सर्वोच्च न्यायालय ने पटाखेबाजी पर नियंत्रण लगाकर सराहनीय फैसला किया है। खेतों से निकला कचरा जलाने के कारण दिल्ली ही नहीं, भारत के कई शहर और गांव भीषण प्रदूषण की चपेट में हैं। अब दीवाली में यह प्रदूषण ‘करेला और नीम चढ़ा’ की कहावत को चरितार्थ करेगा। पिछले साल दीवाली पर ऐसा प्रदूषण फैला था, जैसे कि किसी संक्रामक रोग ने दिल्ली पर हमला बोल दिया हो। हमारे देश के साधु-संत, मुल्ला मौलवी, ज्ञानी-ग्रंथी और पादरी तथा इनके साथ-साथ हमारे धुरंधर नेता लोग भी इस मामले में बिल्कुल अर्थहीन साबित हो गए हैं। वे न तो जनता के नाम कोई अपील जारी करते हैं और कर भी दें तो उनकी कौन सुनता है? ऐसे में अदालत को ही सही फैसले करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लेकिन दीवाली के 15-20 दिन पहले इतना सख्त फैसला लागू कैसे किया जा सकेगा, यह समझ में नहीं आता।
कम शोर और कम धुंएवाले पटाखे छुड़ाए जाएं, यह बात तो ठीक है लेकिन यह हिदायत दो-चार माह पहले दी जानी चाहिए थी। अब निर्माता और दुकानदार अपना करोड़ों रु. का नुकसान कैसे बर्दाश्त करेंगे और जिन लोगों ने ऐसे पटाखे खरीद लिये हैं, वे उन्हें नाली में कैसे फेकेंगे? इसके अलावा रात 8 से 10 बजे की सीमा भी व्यावहारिक नहीं है। इसे शाम 6 से रात 12 बजे तक किया जा सकता है। फिर पुलिस विभाग इस बात की निगरानी कैसे करेगा कि छूटे हुए पटाखे सही थे या नहीं और उन्हें नियत स्थानों पर भी छुटाया गया है या नहीं ? ऐसा ही आदेश गत वर्ष पंजाब उच्च न्यायालय ने दिया था लेकिन उसका पालन कम, उल्लंघन ज्यादा हुआ था। ऐसे उल्लंघन की धमकी उज्जैन के सांसद, चिंतामणि मालवीय जो कि मेरे प्रिय हैं, ने भी दी है लेकिन मैं उनसे और देश के सभी नेताओं और धर्म-ध्वजियों से निवेदन करुंगा कि वे अदालत के सदाशय को समझें और उसके फैसले को व्यावहारिक बनाने में सहयोग करें।
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