जगन्नाथ पुरी के मंदिर को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ी सार्थक बहस चला दी है। एक याचिका पर अदालत ने पूछा है कि मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजा आदि सभी पूजा-स्थल हर व्यक्ति के लिए क्यों नहीं खुले हैं? अदालत ने अभी कोई फैसला नहीं दिया है लेकिन उसने पुरी के मंदिर के प्रबंधक मंडल से पूछा है कि दूसरे धर्मों को मानने वालों और विदेशियों को वहां प्रवेश से वंचित क्यों किया जाता है ? वहां सबके प्रवेश की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती ?
जहां तक हिंदू धर्म का सवाल है, वह तो अनेक पूजा-पद्धतियों वाला धर्म है। वह तो किसी भी भेद-भाव को नहीं मानता। सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने हिंदू धर्म के बारे में मोटी-मोटी बात सही ढंग से कह दी है लेकिन वे गहराई में उतरते तो वे यह भी कह सकते थे कि हिंदू धर्म तो एक समुद्र की तरह है। इसमें शंकराचार्य और महर्षि दयानंद जैसे आस्तिक हैं तो चार्वाक जैसे नास्तिक भी हैं। एक श्लोक का अर्थ यह है कि मैं अंदर से शाक्त हूं, बाहर से शैव हूं और सभा में वैष्णव हूं। शाकाहारी भी हिंदू है और मांसाहारी भी हिंदू है। मूर्तिपूजक भी हिंदू है और मूर्तिनिंदक भी हिंदू है। एकांतवादी और अनेकांतवादी, दोनों ही हिंदू हैं। राम भी हिंदू है और रावण भी हिंदू है। देशी भी हिंदू है और विदेशी भी हिंदू है।
मद्यपान अष्टांग योग के विरुद्ध है लेकिन कई देवताओं को शराब पिलाना अनिवार्य है। एक पत्नीव्रत भी हिंदुआना चलन है, बहुपत्नी प्रथा भी ! इस तरह के तर्क देकर आप समस्त हिंदू मंदिरों को तो विधर्मियों के लिए खोल सकते हैं लेकिन किसी मस्जिद, गिरजे या साइनेगाग (यहूदी) को आप सबके लिए कैसे खुलवाएंगे? मुझे रोम के सेंट पीटर्स गिरजे तथा पेरिस के नोत्रदाम चर्च, वाशिंगटन के बड़े चर्च और लंदन के साइनेगॅग में जाने से किसी ने कभी नहीं रोका लेकिन बगदाद की गैलानी दरगाह, मशद की शिया मस्जिद और हमारे चांदनी चौक की जामा मस्जिद में मुझे अंदर जाने से रोका गया। 1983 में पेशावर के जंगलों में जब मैं प्रो. बुरहानुद्दीन रब्बानी (जो बाद में अफगान राष्ट्रपति बने) से मिलने गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि आप यहीं बैठिए। मैं नमाजे-तरावी करके आता हूं और फिर हम डिनर करेंगे। मैंने कहा मैं भी आपके साथ चलता हूं। आप नमाज पढ़िए। मैं पद्मासन लगाकर बैठता हूं। आप कुरान की आयत पढ़िए, मैं वेदमंत्र पढ़ूंगा। आप नमाज के वक्त क्या कोई ऐसी हरकत करते हैं, जिससे मुझे एतराज हो सकता है ? वे मान गए।
इससे तर्क यह निकला कि यदि आप सचमुच ईश्वर की प्रार्थना कर रहे हैं तो आप किसी भी इंसान को उसमें शामिल करने से मना नहीं कर सकते। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए कि वह जो कानून पुरी के मंदिर के लिए बनाए, उसे देश के सभी पूजा-स्थलों पर लागू करे। यदि किसी पूजा-स्थल को आप ईश्वर का घर कहते हैं तो वह सबका है।
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