भीड़ की हिंसा के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय को मुंह क्यों खोलना पड़ा ? भारत की कानून-व्यवस्था में हत्या, मार-पीट और हिंसा के लिए उचित सजा के प्रावधान हैं, फिर भी अदालत को इसीलिए विस्तार से बोलना पड़ा कि 2015 से लेकर अब तक के समय में ऐसी 200 घटनाएं हो चुकी हैं। 2017 में ऐसी घटनाएं 80 प्रतिशत बढ़ गई। पिछले डेढ़ साल में 66 बार भीड़ ने कुछ लोगों पर हमला बोला, जिसमें 33 लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए। पांच तरह के लोगों पर हमले हुए। सबसे ज्यादा मुसलमानों पर यह कहकर हुए कि वे गोमांस ले जा रहे थे और उन्होंने गोवध किया है। दूसरे हमले दलितों पर हुए। इनका बहाना यह था कि वे सवर्णों की तरह शेखी बघार रहे हैं। घोड़े पर बैठकर बारात ले जा रहे हैं आदि। तीसरा बहाना यह है कि फलां-फलां बच्चों का अपहरण करनेवालों को मार डाला जाए।
चौथा, कुछ औरतों को इसलिए जिंदा जला दिया गया कि उन्हें डाकिन या प्रेतनी समझ लिया गया और पांचवां हमला वह है, जो अग्निवेशजी पर किया गया याने हमें जिसकी भी बात पसंद नहीं होगी, उसे हम जिंदा नहीं रहने देंगे। यह ठीक है कि इस तरह के सभी हमलों की निंदा लोकसभा में सभी दलों ने की है। गृहमंत्री राजनाथसिंह ने राज्यों से भी आग्रह किया है कि वे इन हिंसक तत्वों के साथ कड़ाई से पेश आएं लेकिन मुझे संघ और भाजपा के नेताओं से कहना है कि वे अपने कार्यकर्त्ताओं को समझाएं और देश में ऐसा माहौल बनाएं कि भीड़ कानून को अपने हाथ में न ले। यदि भीड़ इसी तरह हिंसा करती रही तो भाजपा सरकार ही बदनाम नहीं होगी, भारत के माथे पर कलंक का टीका भी लग जाएगा। भाजपा-शासन के पहले कांग्रेसी राज में भी ऐसी हिंसक घटनाएं होती रही हैं और अब की तरह तब भी मुस्लिम और दलित उनके शिकार होते रहे हैं। ऐसा नहीं है कि भीड़ सिर्फ मुसलमानों को मारती है। उसके हत्थे जो भी चढ़े, उसे वह मौत के घाट उतार देती है। भीड़ में शामिल होने पर भेड़ भी भेड़िए में बदल जाती है। भीड़ के पास दिमाग नहीं होता। उसके पास सिर्फ हाथ, पांव और हथियार होते हैं। यदि उस भीड़ को इस बात का जरा भी अंदाज हो जाए कि एक आदमी की हत्या के बदले 100 आदमियों की पूरी भीड़ को फांसी के फंदे पर लटकना होगा तो वह सिर पर पांव रखकर भाग खड़ी होगी। भीड़ से ज्यादा कायर कौन होता है लेकिन क्या हमारे सांसदों में इतना दम है कि वे इतना कठोर कानून बना सकें ?
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