जो काम सरकार और संसद को करना चाहिए, वह अदालत कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है कि खाप पंचायतों द्वारा शादियों में की जाने वाली दखलंदाजी अब अवैध मानी जाएगी। कोई भी जातीय पंचायत किसी भी बहाने से दो स्त्री और पुरुष की शादी के बीच अड़ंगा नहीं लगा सकती। वह न तो सगोत्र विवाह, न स्वगांव विवाह, न पड़ौसी गांव में विवाह करने वालों को दंडित कर सकती है। ये जातीय पंचायतें इतनी क्रूर हैं कि नव-विवाहितों की हत्या के फरमान जारी कर देती हैं। पिछले तीन वर्षों में देश में ऐसी 288 हत्याएं हो चुकी हैं। पंचायतों के डर से सैकड़ों नव-विवाहित पति-पत्नी अपना गांव और प्रदेश छोड़कर दूर-दराज के स्थानों पर छिप कर रह रहे हैं।
यह हालत भारत में नहीं, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और अफगानिस्तान में भी है। अदालत ने कहा है कि यदि दो वयस्क स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से शादी करना चाहें तो वैसा करने में वे पूर्ण स्वतंत्र हैं। कोई गौत्र, कोई जाति, कोई मजहब, कोई वंश आदि के नाम पर उन्हें रोका नहीं जा सकता। अदालत ने ऐसी शादियों में बाधा डालने के विरुद्ध कई कदम उठाने के निर्देश सरकार को दिए हैं और उन नव-विवाहितों की सुरक्षा के लिए भी स्थानीय प्रशासनों पर जिम्मेदारी डाली है। अदालत का यह आदेश देश के सभी नागरिकों पर लागू होगा, चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों।
इस आदेश के बाद अब भारत में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह करना आसान हो जाना चाहिए लेकिन समाज में चली आ रही सैकड़ों वर्षों की परंपराओं से सिर्फ कानून छुटकारा नहीं दिला सकता। उसके लिए देश में सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन की जरुरत है। हमारी सरकारों को चाहिए कि अन्तरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह करने वालों को वह प्रोत्साहन राशि दे और जातीय उपनाम हटाने वालों को भी। यों भी सगौत्र विवाह और चाचा-ताऊ के बच्चों में आपसी विवाह को भी वैज्ञानिक दृष्टि से ठीक नहीं माना जाता। इस दृष्टि से अदालत के आदेश से भी बेहतर व्यवस्था बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
यदि अदालत के आदेश को थोड़ा लंबा खींचा जाए और यदि दो वयस्क सगे भाई-बहन आपस में शादी करना चाहें तो क्या अदालत उसे भी उचित मान लेंगी ? कानूनी तौर पर तो इसे भी नहीं रोका जा सकता लेकिन तब मनुष्य समाज और पशु समाज में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। समाज के संचालन में कानून का सहारा तो लेना ही पड़ता है लेकिन जन-जागरण उससे बेहतर और ऊंचा विकल्प है।
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