आजकल भारत के सर्वोच्च न्यायालय में यह बहस जोरों से चल रही है कि नागरिकों को गोपनीयता का अधिकार है या नहीं ? कुछ याचिका डालने वालों का कहना है कि आधार कार्ड की अनिवार्यता के कारण किसी भी नागरिक के बैंक खाते, आमदनी-खर्चे, आवागमन, लेन-देन और अन्य कई निजी जानकारियां सार्वजनिक हो रही हैं। याने इस डिजिटल संसार में आम आदमी का जीना हराम हो सकता है।
इस प्रकार संविधान द्वारा प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय इस व्यक्तिगत गोपनीयता को मूलभूत अधिकार क्यों नहीं घोषित कर देता जैसे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की व्याख्या उसने इस तरह से कर दी है कि प्रेस की आजादी अपने आप सुरक्षित हो गई है। इस व्यक्तिगत गोपनीयता या निजता के अधिकार का विरोध सरकार कर रही है। सरकारी वकील का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 1954 और 1962 के दो फैसलों में निजता को मूल अधिकार मानने से मना कर दिया था। यदि निजता को मूल अधिकार का दर्जा दे दिया गया तो उसकी आड़ में वेश्यावृत्ति, तस्करी, जासूसी, ठगी, राष्ट्रद्रोही एवं आतंकी गतिविधियां बड़े मजे से चलाई जा सकती हैं। न उनकी खुलकर जांच की जा सकती है और न ही पुलिस उन्हें पकड़ सकती है।
इस सवाल के दोनों पक्षों के तर्कों में दम है। किसी एक पक्ष को सही मान कर अतिवादी कदम नहीं उठाया जा सकता। सभी नागरिक मनुष्य हैं। मनुष्यों में निजता की रक्षा स्वाभाविक है। पशुओं में कोई भी निजता नहीं होती। यदि उनकी निजता समाप्त कर दी गई तो सारा राष्ट्र पशुओं की रेवड़ में बदल सकता है। सोवियत और चीनी साम्यवादी व्यवस्था में कुछ हद तक यह होते हुए हमने देखा था लेकिन निजता की रक्षा का मतलब अपराधियों को निजता की स्थायी आड़ नहीं पकड़ा देना है।
अदालत के दो पुराने फैसलों में निजता के मूल अधिकार को इसीलिए नहीं माना गया था कि उनकी आड़ में कुछ अपराधी पुलिस कार्रवाई से बचना चाहते थे। इसीलिए इस समय यह बहस जमकर चल रही है। नौ जजों की बेंच इसे सुन रही है। मुझे पूरा विश्वास है कि वह निजता की रक्षा जरुर करेगी लेकिन उसे बेलगाम नहीं होने देगी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी असीमित नहीं है। मध्यममार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है।
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