सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात उच्च न्यायालय के एक फैसले को रद्द कर दिया। यह रद्द करना ध्यान देने लायक है। 2002 के दंगों में सैकड़ों मस्जिदों और गिरजों को लोगों ने नुकसान पहुंचाया था। इस्लामिक रिलीफ कमिटी आफ गुजरात ने इन 567 मस्जिदों की मरम्मत के लिए गुजरात सरकार से पैसों की मांग करते हुए एक याचिका दायर कर दी थी। गुजरात न्यायालय ने कमिटी की मांग को जायज मानते हुए गुजरात सरकार को निर्देश दिया कि वह सभी दंगाग्रस्त पूजा-स्थलों की मरम्मत के लिए जितनी भी जरुरत हो, उतनी आर्थिक मदद करे।
गुजरात सरकार ने इस फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। उसका तर्क यह था कि इस तरह की आर्थिक मदद धर्म-निरपेक्षता के विरुद्ध होगी और इससे संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार की इस राय पर अपनी मोहर लगा दी है। उसने अपने फैसले में इस तर्क का समर्थन किया है कि आम जनता से टैक्स लगाकर इकट्ठा किया गया पैसा किसी भी धार्मिक स्थल पर खर्च नहीं किया जा सकता लेकिन इसी फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा निर्देश कर दिया है कि उससे सांप भी मर गया है और लाठी भी नहीं टूटी है।
उसने गुजरात सरकार के उस निर्णय को संविधानसम्मत बता दिया है, जिसके अंतर्गत उसने पूजा-स्थलों सहित सभी संपत्तियों के क्षतिग्रस्त होने पर अधिक से अधिक 50 हजार रुपए की राशि देने की घोषणा की है। याने मंदिरों, मस्जिदों और गिरजाघरों को कोई विशेष दर्जा नहीं दिया गया है। उनकी पहचान अन्य मकानों के समान कर दी गई है। वैसे मेरी राय यह है कि दोनों अदालतों के फैसलों का अंजाम एक ही है। उच्च न्यायालय ने भी किसी धर्म-विशेष के साथ पक्षपात करने का समर्थन नहीं किया था। वह भी सर्वध र्म सदभाव की बात कर रहा था लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने पूजा-स्थलों को साधारण मकानों की श्रेणी में डालकर अपने निर्णय को सांप्रदायिक प्रहारों से बचा लिया।
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