तृणमूल कांग्रेस की नेता और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने दिल्ली-प्रवास में भाजपा-विरोधी कई नेताओं से मिलीं। वे वास्तव में मोदी-विरोधी भाजपा नेताओं से भी मिलीं। उन्होंने सोनिया गांधी से मिलकर यह संदेश भी दिया कि वे कोई तीसरा मोर्चा (याने गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस मोर्चा) खड़ा करना नहीं चाहतीं तो फिर वे क्या चाहती हैं?
वे सिर्फ एक दूसरा मोर्चा खड़ा करने में लगी हुई हैं। यह दूसरा मोर्चा क्या है ? इस दूसरे मोर्चे में सभी भाजपा-विरोधी पार्टियां समा सकती हैं। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह ऊपर से नीचे नहीं चलता है बल्कि नीचे से ऊपर जाता है। सभी राज्यों में जितने भी विपक्षी दल सक्रिय हैं, वे आपस में समझौता करके सीटें बांट लें और भाजपा के विरुद्ध साझा उम्मीदवार खड़ा करें। याने चुनावी दंगल प्रांतों में मुख्य रुप से दो ही पार्टियों के बीच हो याने भाजपा और विरोधी मोर्चे के बीच ! जाहिर है कि यदि ऐसा हो जाए तो भाजपा की 280 सीटें वर्तमान गणित के हिसाब से 100 से भी नीचे चली जाएंगी। इस दूसरे मोर्चे की खूबी यह होगी कि यह अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम की घोषणा नहीं करेगी। लेकिन इसका कोई न कोई अध्यक्ष या संयोजक जरुर होगा। इस तरह का दूसरा मोर्चा बनना लगभग असंभव है। उत्तरप्रदेश में बन गया, शायद अखिलेश यादव की विनम्रता, सज्जनता और मर्यादापूर्ण आचरण के कारण लेकिन क्या ऐसा ही मोर्चा माकपा और तृणमूल कांग्रेस बंगाल में बना सकती हैं या कांग्रेस और माकपा केरल में बना सकती हैं ?
कांग्रेस की अपनी समस्याएं हैं। वह अखिल भारतीय पार्टी होने के नाते अभी भी सभी प्रांतों में अपनी प्रमुखता बनाए रखना चाहती है। वह दूसरे मोर्चे में दूसरे दर्जे का पद क्यों स्वीकार करेगी ? इसमें शक नहीं कि नरेंद्र मोदी का नशा उतरता चला जा रहा है लेकिन आज भी देश में एक भी ऐसा नेता नहीं है, जिसकी छवि मोदी के लिए खतरा बन सके। इसके अलावा सवा साल का समय अभी बचा हुआ है। मोदी चाहे तो प्रचारमंत्री बने रहने के साथ-साथ भारत के सच्चे प्रधानमंत्री बनने की कोशिश भी कर सकते हैं और अपनी डगमगाती नैया को पार लगा सकते हैं।
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