तीन तलाक पर आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड ने सरकार से अनुरोध किया है कि वह अपने विधेयक पर पुनर्विचार करे। बोर्ड से अनेक मुस्लिम नेता और महिलाएं इतनी खफा हैं कि उसकी कोई भी बात वे सुनना ही नहीं चाहतीं। यह स्वाभाविक है, क्योंकि बोर्ड सदियों पुराने घिसे-पिटे अरबी कानूनों को भारतीय मुसलमानों पर थोपना चाहता है। तीन तलाक के बारे में भी उसका रवैया आक्रामक और तर्कहीन रहा है। लेकिन अब उसकी जो बैठक हुई है, उसमें उसने कुछ नरम रवैया अख्तियार किया है और कुछ ऐसे तर्क दिए हैं कि जिन पर सरकार को विचार करना ही चाहिए। सबसे पहली बात तो यह है कि तीन तलाक विधेयक पारित करने के पहले उस पर मुस्लिम संगठनों, महिला संगठनों, मुल्ला-मौलानाओं और कानून-विशेषज्ञों से सरकार खुलकर बात करे। दूसरा, उस पर संसद में जमकर बहस हो। जल्दबाजी में वह कानून पास न हो। वरना उसका हश्र नोटबंदी की तरह हो सकता है। तीसरा, उस विधेयक में परस्पर विरोधी प्रावधान हैं। जैसे तीन तलाक बोलनेवाले पति को सजा हो गई और तीन तलाक हुआ ही नहीं तो फिर सजा क्यों हुई ? जब जुर्म हुआ ही नहीं तो सजा क्यों ? और चौथा अगर सजा हो गई तो जेल में पड़ा पति अपनी पत्नी और बच्चों को गुजारा-भत्ता कहां से देगा ? 90 प्रतिशत मुसलमान आदमी रोज कुआ खोदते हैं और रोज़ पानी पीते हैं। पांचवां, तलाक हो या न हो बच्चों की जिम्मेदारी बीवी पर डालने में क्या तुक है? वह अपना पेट तो भर नहीं सकती, बच्चों का कैसे भरेगी ? इनके अलावा भी कुछ छोटे-मोटे प्रावधान ऐसे हो सकते हैं, जिन्हें सुधारकर इस कानून को और अधिक व्यावहारिक बनाया जा सकता है। इस कानून का विरोध करनेवाले सभी लोगों और संस्थाओं को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि सरकार का इरादा सौ फीसदी नेक है। वह मुस्लिम महिलाओं की दशा सुधारना चाहती है, इस्लाम का अपमान नहीं करना चाहती। वह हमारे मुसलमानों को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ और प्रगतिशील मुसलमान बनाना चाहती है।
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