दैनिक भास्कर, 26 अगस्त 2017: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान के बारे में अपनी जिस नई नीति की घोषणा की है,यदि वे उसे लागू कर पाए तो अकेले अफगानिस्तान ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया की ही शक्ल बदल जाएगी। इसके पहले तक अमेरिका की हर सरकार ने पाकिस्तान केा अपने क्षुद्र स्वार्थों का मोहरा बनाया याने उसने पहले सोवियत संघ के खिलाफ उसे इस्तेमाल किया और फिर अफगानिस्तान को काबू करने के लिए वह पाकिस्तान का इस्तेमाल करता रहा। अमेरिका ने पाकिस्तान को आंख मींचकर इतनी फौजी और वित्तीय मदद की, कि पाकिस्तान उसका इस्तेमाल भारत के विरुद्ध करता रहा। इसीलिए पिछले 70 साल में दक्षिण एशिया न तो संपन्न बन सका और न ही सशक्त ! खुद पाकिस्तान एक उद्दंड राज्य में बदल गया। उसका अपना नुकसान सबसे ज्यादा हुआ।
ट्रंप ऐसे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने खुले-आम पाकिस्तान को आतंकवाद का गढ़ कहा है। उन्होंने अफगानिस्तान में चल रही अराजकता के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने साफ-साफ कहा है कि यदि आतंकवादियों के खिलाफ पाकिस्तान तुरंत कार्रवाई नहीं करेगा तो अमेरिका उसके खिलाफ कठोर कदम उठाएगा। उनमें फौजी और आर्थिक, दोनों ही कार्रवाइयां की जाएंगी। यहां हम यह न भूलें कि पिछले 40 साल से आतंकवादियों के इन विभिन्न गुटों को अमेरिका ही प्रश्रय देता रहा है। कभी मुजाहिदीन, कभी तालिबान, कभी अल कायदा, कभी इस्लामी राज्य और कभी-कभी स्थानीय अनाम गिरोहों को भी अमेरिका ने अफगानिस्तान के शासकों– सरदार दाऊद, बबरक कारमल, हफीजुल्लाह अमीन, रब्बानी और हामिद करजई आदि के विरुद्ध सक्रिय सहायता की है। यह सहायता पाकिस्तान के जरिए दी जा रही थी। यदि ट्रंप ने पाकिस्तान का हुक्का-पानी बंद कर दिया तो इन अराजक तत्वों का दम अपने आप घुट जाएगा।
काबुल में अमेरिका के राजदूत रहे जलमई खलीलजाद की राय है कि अमेरिका पाकिस्तान को दी जा रही सारी आर्थिक मदद एकदम बंद कर दे और आतंकी शिविरों पर तुरंत हमला बोल दे। पता नहीं,ट्रंप क्या करेंगे ? ट्रंप अपने बड़बोलेपन के लिए तो जाने जाते हैं लेकिन वे बड़े काम कर सकेंगे या नहीं, यह देखना है। वैसे राष्ट्रपति बनने के पहले ट्रंप के दर्जनों बयान हैं, जिनमें उन्होंने राष्ट्रपति बराक ओबामा को इसलिए आड़े हाथों लिया था कि वे करोड़ों अमेरिकियों की खून-पसीने की कमाई को अफगानिस्तान की नालियों में बहा रहे थे। ट्रंप ने अफगानिस्तान से एक-एक अमेरिकी फौजी को तुरंत वापस बुलाने की मांग कई बार की थी। अब उन्होंने राष्ट्रपति बनते ही अपनी ही नीतियों को उलट दिया। यही काम उन्होंने सउदी अरब और चीन के बारे में भी किया। आशा की जानी चाहिए कि वे अब अपनी इस नई अफगान-नीति पर टिके रहेंगे।
ट्रंप की दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होंने अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को खुले-आम रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत सक्रिय भूमिका निभाए। पाकिस्तान के साथ अमेरिका की इतनी तगड़ी सांठ-गांठ रही है कि वह अफगानिस्तान में भारत कानाम लेना भी ठीक नहीं समझता था लेकिन भारत को एक खास भूमिका देकर ट्रंप ने पाकिस्तान के घावों पर नमक छिड़क दिया है। पाकिस्तान को इतनी मिर्ची लगी है कि वहां से भारत की दखलंदाजी के विरुद्ध बयान भी आने लगे हैं। भारत ने अफगानिस्तान में 2 बिलियन डाॅलर से ज्यादा खर्च कर दिए हैं। लेकिन ट्रंप ने भारत से कहा है कि वह भारत-अमेरिका व्यापार से करोड़ों डाॅलर कमाता है, इसीलिए वह अफगानिस्तान में अपना पैसा लगाए। ट्रंप के मुंह से यह बात शोभा नहीं देती लेकिन ट्रंप तो ट्रंप हैं। ट्रंप ने साथ-साथ यह भी कह दिया कि अब अमेरिका अफगानिस्तान में अपना पैसा नहीं लगाएगा। सिर्फ फौजी कार्रवाई करेगा। ट्रंप से कोई पूछे कि यदि अफगानिस्तान में लोग भूखे मरेंगे तो वे किसी भी सरकार को क्यों चलने देंगे और यदि नौजवान बेरोजगार होंगे तो वे तालिबानी फौज में भर्ती क्यों नहीं होंगे ? यह ठीक है कि पिछले 17 साल में अमेरिका वहां 800बिलियन डाॅलर खर्च कर चुका है लेकिन इसकी ज्यादातर राशि तो अमेरिकी कंपनियों की जेबों में ही चली गई है। अब ट्रंप को चाहिए कि जो पैसा वह पाकिस्तान को देना बंद करे, वह अब अफगानिस्तान को दे दे और अमेरिकी पैसे से यदि भारतीय कंपनियां वहां काम करेंगी तो अमेरिकी कंपनियों के मुकाबले उनकी सफलता कम से कम चौगुनी होगी।
ट्रंप ने ओबामा की नीति को उलटते हुए यह ठीक ही कहा कि अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों की न तो समय-सीमा होगी और न ही संख्या-सीमा होगी। ट्रंप को शायद अभी ठीक से अंदाज नहीं है कि 8400 अमेरिकी सैनिक तो आटे में नमक के बराबर भी नहीं हैं। उनकी संख्या अगर दस गुनी हो जाए तो सारा मामला साल-दो साल में ही ठीक हो सकता है। एक तो पाकिस्तान पर लगाम लगने से आतंकियों की कमर टूट जाएगी और फिर अफगान सेना में घुसे विघ्नसंतोषियों से भी छुटकारा मिलेगा। मेरा सुझाव तो यह भी है कि अमेरिका अफगानिस्तान में भारत और पाकिस्तान के साथ मिलकर एक संयुक्त फौजी कमान बनाए और यह फौजी कमान यदि ईमानदारी से काम कर सकी तो दक्षिण एशिया का नक्शा ही बदल जाएगा। अफगानिस्तान में थोड़ी स्थिरता बढ़ते ही तालिबान आदि असंतुष्ट तत्वों के साथ सार्थक बातचीत चलाना भी आसान हो जाएगा।
यदि ट्रंप ने सावधानी और दूरदर्शिता से काम नहीं लिया तो यह मामला और भी बिगड़ सकता है। रुस और चीन दोनों मिलकर पाकिस्तान की पीठ ठोक सकते हैं। ओबामा से चिढ़ा हुआ ईरान भी उनका साथ दे सकता है। इन राष्ट्रों का तालिबान से इधर संपर्क बढ़ता चला जा रहा है। तालिबान का संपर्क कुछ अरब राष्ट्रों के साथ पहले से घनिष्ट है। पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी सउदी अरब के दरबार में अपनी गुहार लगाने रियाद पहुंच गए हैं। मियां नवाज़ शरीफ के अस्थिर होने से पाकिस्तान में फौज का पव्वा भारी हो गया है। अमेरिकी असहयोग कितना भयावह हो सकता है, इसका अंदाज सबसे ज्यादा फौज को ही होगा। सेनापति कमर जावेद बाजवा इस्लामाबाद स्थित अमेरिकी राजदूत डेविड हाल से भी मिल आए हैं। ट्रंप प्रशासन को इस समय सीधे पाकिस्तान की फौज से बात करनी होगी और उसे साफ-साफ बताना होगा कि वह किसी भी प्रकार का आतंकवाद बर्दाश्त नहीं करेगा, चाहे वह अफगानिस्तान के खिलाफ हो या भारत के खिलाफ। पाकिस्तान के नेताओं की प्रतिक्रियाएं तो उटपंटाग आ रही हैं लेकिन फौज का रवैया जरा संयत है। ट्रंप में यदि कूटनीतिक होशयारी हो तो वे चीन से सिंक्यांग में चल रहे उइगर आतंकवाद और रुस से मध्य एशियाई मुस्लिम राष्ट्रों में चल रहे आतंकवाद के बारे में भी बात करेंगे। जैसे सीरिया में रुस और अमेरिका मिलकर आईएसआईएस का मुकाबला कर रहे हैं, वैसा ही कोई अंतरराष्ट्रीय तंत्र दक्षिण एशिया में भी खड़ा किया जाना चाहिए। यो ट्रंप की घोषणा पर चीन कीप्रतिक्रिया काफी सधी हुई आई है। उसे भारत को दिया गया महत्व अटपटा लगा है लेकिन वह अपने लिए भी कुछ न कुछ भूमिका चाह रहा है।
अफगानिस्तान में सफल होने के लिए विदेशी शक्तियों को एक बुनियादी बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी। अफगान लोग स्वभाव से ही आज़ाद लोग हैं। हर अफगान अपने आप में संप्रभु होता है। कोई विदेशी शासक कितना ही सबल, कितना ही शक्तिशाली, कितना ही क्रूर हो, वह अफगानिस्तान में टिक नहीं सकता। अफगानिस्तान दो बड़े साम्राज्यों की कब्रगाह पहले से ही है- ब्रिटिश और सोवियत ! मुझे विश्वास है कि बड़बोले ट्रंप के सलाहकार अमेरिका को उसी खाई में नहीं खिसकाएंगे, जिसमें पहले से दो साम्राज्य दफन हैं।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
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