अमेरिका के किसी भी राष्ट्रपति ने अपने पद की गरिमा इतनी जल्दी नहीं गिराई, जितनी पिछले 7-8 महिने में डोनाल्ड ट्रंप ने गिरा ली है। ट्रंप की सरकार के सबसे मजबूत स्तंभ ढह चुके हैं। उनके महत्वपूर्ण मंत्री, सर्वोच्च अधिकारी, सर्वोच्च रणनीतिकार, न्यायाधीश और उनकी सलाहकार समितियों में शामिल प्रसिद्ध व्यवसायी और कलाकारों ने इस्तीफे दे दिए हैं। उनमें से कुछ ने यह भी कहा है कि ट्रंप ने खुद को खत्म कर लिया है।
अमेरिका के राष्ट्रपति के तौर पर उनकी अवधि पूरी हो चुकी है। यों भी ट्रंप के चुनाव में रुस की भूमिका के कारण वे काफी बदनाम हो चुके हैं। उनकी अपनी रिपब्लिकन पार्टी के विरोध के कारण उनका चिकित्सा संबंधी ओबामा-विरोधी विधेयक भी लटक गया। अब वर्जीनिया के शहर शार्लोट्सविल में दो गुटों के बीच हुई मुठभेड़ ने ट्रंप के लिए मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर दिया है। ट्रंप विरोधियों ने बोस्टन में 40 हजार लोगों की भीड़ जमा करके ट्रंप की निंदा की है, क्योंकि उन्होंने शार्लोट्सविल में रंगभेदी, नव—नाजी और उग्र ईसाई संगठनों की कड़ी आलोचना नहीं की थी।
इन गिरोहों ने उन प्रदर्शनकारियों पर हमला बोल दिया था, जो रंगभेद का विरोध कर रहे थे। ट्रंप ने दोनों पर एक समान दोष मढ़ कर उग्रवादियों को गुप्त समर्थन दे दिया था। अब जबकि ट्रंप की कटु आलोचना उनके अपने लोग कर रहे हैं तो वे कुछ दृढ़ता दिखा रहे हैं लेकिन उसका कोई असर नहीं हो रहा है। लोग यह मान रहे हैं कि ट्रंप को इन उग्रवादियों ने उनके चुनाव के वक्त समर्थन दिया था। वे इसी का कर्ज चुका रहे हैं।
इस तरह ट्रंप उन सब आदर्शों को भस्मसात कर रहे हैं, जो अमेरिका के संस्थापकों ने कायम किए थे। इसके बावजूद रिपब्लिकन पार्टी में ट्रंप के समर्थकों की संख्या काफी बड़ी है। इसीलिए ट्रंप देशी और विदेशी मामलों में बेलगाम होते जा रहे हैं। उन्हें हिटलर का अनुयायी कहा जा रहा है।
हो सकता है कि ट्रंप उस अमेरिका की आवाज़ बन गए हैं, जो वहां के गोरे बहुसंख्यकों के दिल में हैं लेकिन जिसे वे मुंह पर नहीं लाते। गोरे अमेरिका के अचेतन मन को सहला कर ही ट्रंप चुनाव जीते हैं। वे उसी तुरुप के पत्ते को अपना ब्रह्मास्त्र बनाए हुए हैं। पता नहीं, यह ट्रंप-कार्ड कब तक चलेगा ?
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