पाकिस्तान की दृष्टि से देखें तो अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन ने भारत आकर कोई खास बात नहीं कही। वे जो बात पाकिस्तान के बारे में वाशिंगटन, काबुल और इस्लामाबाद में कहते रहे, वही उन्होंने नई दिल्ली में भी देाहरा दी। जो खास बातें उन्होंने भारत में कहीं, वे कुछ दूसरी ही हैं।
जैसे उन्होंने कहा कि चीनी महापथ (ओबोर) के मुकाबले भारतीय महापथ बनाना क्यों शुरु नहीं किया जाए? इस संबंध में मेरा कहना है कि हम चीनी महापथ का खुलमखुल्ला विरोध करने की बजाय पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया को जोड़ने वाली सड़क बनाने का काम क्यों नहीं करें? अमेरिका के इशारे पर हमें चीन से झगड़ा मोल लेने की क्या जरुरत है?
दूसरी बात भारत के हिसाब से काफी अच्छी रही। टिलरसन ने ईरान के चाहबहार बंदरगाह को बनाने पर भारत का विरोध नहीं किया। ट्रंप प्रशासन ने ईरान के साथ हुआ परमाणु-समझौता भंग कर दिया है और उस पर नए प्रतिबंध लगा दिए हैं लेकिन टिलरसन ने भारत-ईरान सहयोग का विरोध नहीं किया है। तीसरी बात, उत्तर कोरिया के खिलाफ ट्रंप ने आजकल कूटनीतिक युद्ध छेड़ रखा है लेकिन टिलरसन ने भारत-कोरिया व्यापार और राजनयिक संबंधों पर कोई आपत्ति नहीं की है।
चौथी बात, हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में एच-1 बी वीज़ा की बात भी उठा दी। उधर ट्रंप प्रशासन ने इन वीजाधारियों (भारतीयों) पर कुछ कड़ी शर्तें कल ही थोपी हैं। इस मुद्दे पर भी टिलरसन का रवैया निषेधात्मक नहीं था। पांचवीं बात यह कि टिलरसन की इस यात्रा के दौरान भारत-अमेरिकी सामरिक सहयोग के कुछ नए आयाम खुले हैं। भारत को अब ताजातरीन अमेरिकी हथियार मिलने की संभावनाएं बढ़ गई हैं।
यदि अमेरिका चाहता है कि अफगानिस्तान में शांति स्थापित हो तो उसे चाहिए कि कुछ अरब-खरब डालर वह भारत के हवाले कर दे और उससे कहे कि वह वहां पुनर्निमाण का काम तेजी से करे। यदि अफगानिस्तान शांत, सबल और आत्म-निर्भर बन जाए तो पाकिस्तान को उससे अपने आप सबक मिलेगा। यदि भारत को अफगानिस्तान पहुंचने के लिए पाकिस्तान अपना थलमार्ग नहीं देगा तो भी क्या हुआ ? अब ईरान से अफगानिस्तान जानेवाला थल-मार्ग खुल गया है। अब मध्य एशिया के पांचों राष्ट्रों का भी भारत से सीधा संबंध कायम हो जाएगा। उससे पैदा होनेवाली संपन्नता और शक्ति देखकर क्या पाकिस्तान के मुंह में पानी नहीं आएगा ? दक्षिण एशिया की शक्ल ही बदल जाएगी।
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