उप्र में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने हाथ क्या मिलाया, यह खबर सभी अखबारों के मुखपृष्ठ पर चमकने लगी ? क्यों चमकने लगी ? क्योंकि उत्तर-पूर्व के प्रांतों में प्राप्त भाजपा की सफलता ने विपक्षियों के होश फाख्ता कर दिए थे। अब अखिलेश और मायावती के इस छोटे-से समझौते ने इतना महत्व क्यों प्राप्त कर लिया है ? इसीलिए कि दो संसदीय सीटों- गोरखपुर और फूलपुर- पर दोनों पार्टियों का समझौता हुआ है कि दोनों समाजवादी उम्मीदवारों का बसपा समर्थन करेगी। कुछ लोग यह मानकर चल रहे हैं कि इस समझौते के कारण भाजपा दोनों सीटें हार जाएगी। भाजपा को इन सीटों पर हराना आसान नहीं है।
गोरखपुर तो मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की खाली की हुई सीट है और फूलपुर उप-मुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य की सीट है। क्या ये दोनों भाजपा नेता उनकी अपनी सीट हारने देंगे ? दूसरी बात यह कि दोनों सीटों पर पिछले चुनाव में भाजपा को 51 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं जबकि दोनों सीटों पर सपा और बसपा को मिलाकर 37-38 प्रतिशत से ज्यादा वोट नहीं मिले हें। यह ठीक है कि मोदी लहर उतर चुकी है लेकिन उप्र की भाजपा सरकार ने ऐसा क्या कर दिया है कि उसके वोटों में 10-15 प्रतिशत की कमी हो जाए ? हां, कांग्रेस भी सपा का समर्थन कर दे तो नतीजें काफी चौंकानेवाले हो सकते हैं। यदि भाजपा ये दोनों सीटें जीत जाए, इसके बावजूद सपा और बसपा का गठबंधन 2019 के लिए बन गया तो मोदी की भाजपा को संसद में बहुमत मिलना कठिन हो सकता है लेकिन असली सवाल यह है कि सपा और बसपा का गठबंधन बन सकता है या नहीं ? मायवती किसी भी गठबंधन से इंकार कर रही हैं। मायावती को यह भुलाना कठिन पड़ेगा कि 1995 में सपा के लोगों ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया था लेकिन आज की सपा अखिलेश की सपा है। अखिलेश ने मायावती की शान में कभी कोई गुस्ताखी नहीं की है। कोई आश्चर्य नहीं कि दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और नौजवानों का यह गठबंधन 2019 में मोदी के लिए भयंकर सिरदर्द सिद्ध हो जाए।
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