उप-राष्ट्रपति वैंकय्या ने हिंदी के बारे में ऐसी बात कह दी है, जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया में ही थी। वैंकय्याजी ने कहा कि ‘‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ अंग्रेजी का स्थान हिंदी को मिलना चाहिए, जो कि ‘‘भारत को सामाजिक-राजनीतिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है।’’ वैंकय्या नायडू के इस बयान ने भारत के अंग्रेजीदासों के दिमाग में खलबली मचा दी है। कई अंग्रेजी अखबारों और टीवी चैनलों ने वैंकय्या को आड़े हाथों लिया है।
अब भी उनके खिलाफ अंग्रेजी अखबारों में लेख निकलते जा रहे हैं ? क्यों हो रहा है, ऐसा ? क्योंकि उन्होंने देश के सबसे खुर्राट, चालाक और ताकतवर तबके की दुखती रग पर उंगली रख दी है। यह तबका उन पर ‘हिंदी साम्राज्यवाद ’ का आरोप लगा रहा है और उनके विरुद्ध उल्टे-सीधे तर्कों का अंबार लगा रहा है। नायडू ने यह तो नहीं कहा कि अंग्रेजी में अनुसंधान बंद कर दो, अंग्रेजी में विदेश नीति या विदेश-व्यापार मत चलाओ या अंग्रेजी में उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान का बहिष्कार करो। उन्होंने तो सिर्फ इतना कहा है कि देश की शिक्षा, चिकित्सा, न्याय प्रशासन आदि जनता की जुबान में चलना चाहिए। भारत लोकतंत्र है लेकिन लोक की भाषा कहां है ? उसे बिठा रखा है पदासान पर और अंग्रेजी को बिठा रखा है, सिंहासन पर ! वे अंग्रेजी का नहीं, उसके वर्चस्व का विरोध कर रहे थे। यदि भारत के पांच-दस लाख छात्र अंग्रेजी को अन्य विदेशी भाषाओं की तरह सीखें और बहुत अच्छी तरह सीखें तो उसका स्वागत है लेकिन 20-25 करोड़ छात्रों के गले में उसे पत्थर की तरह लटका दिया जाए तो क्या होगा ? वे रट्टू-तोते बन जाएंगे, उनकी मौलिकता नष्ट हो जाएगी, वे नकलची बन जाएंगे। सत्तर साल से भारत में यही हो रहा है।
अंग्रेजी की जगह शिक्षा, चिकित्सा, कानून, प्रशासन और व्यापार आदि में भारतीय भाषाएं लाने को ‘‘हिंदी साम्राज्यवाद’ कहना अंग्रेजी की गुलामी के अलावा क्या है ? अंग्रेजी को बनाए रखने के लिए हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं से लड़ाना जरुरी है। अंग्रेजी की तरह हिंदी अन्य भाषाओं को दबाने नहीं, उन्हें उठाने की भूमिका निभाएगी। वह अन्य भाषाओं की भगिनी-भाषा है, बहन है, मालकिन नहीं। ऐसा ही है। तभी तो तेलुगुभाषी वैंकय्या नायडू ने इतना साहसिक बयान दिया है। हमारे तथाकथित राष्ट्रवादी संगठनों और नेताओं को वैंकय्याजी से कुछ सबक लेना चाहिए।
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