जेएनयू में हिंदी से शोध करने वाले पहले शोधार्थी हैं वैदिक
एक तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, उपर से विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज से अतंरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी करना और वो भी हिंदी में, इसे करना तो दूर इसके बारे में सोचना भी सौ बार पड़ेगा। क्योंकि हाल तक जेएनयू में हिंदी बोलने वालों को हिकारत भरी नजरों से देखा जाता रहा है ऐसे में अगर किसी ने सत्तर के दशक में हिंदी से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शोध किया हो तो निश्चित रूप में अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति उनके समर्पण और सम्मान को नमन।
और ऐसा किया है, जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हिंदी माध्यम से पहली बार शोध करने वाले व्यक्ति का नाम वेद प्रताप वैदिक हैं।
वैदिक ने साल 1971 में जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी हिंदी माध्यम से कर एक मिसाल कायम की। क्योंक ऐसा करने वाले वह पहले व्यक्ति हैं खासकर के तब जब आज भी लोग वहां से हिंदी से पीएचडी करने के बारे में कम से कम सौ बार सोचते हैं। लेकिन वैदिक ने ये सब जितना निजी स्वार्थ या जरूरत के लिए नहीं किया उससे कहीं ज्यादा हिंदी को स्थापित करने और हिंदी को सम्मान दिलाने के लिए किया। लेकिन ऐसा करने के दौरान उन्हें कम पापड़ नहीं बेलने पड़े।
वैदिक ने अफगानिस्तान के साथ सोवियत संघ और अमेरिका के संबंधों का तुलनात्मक अध्ययन, 1946-63 को ही अपना शोध का विषय बनाया। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना शोध अपनी मातृभाषा हिंदी में लिखने का आग्रह किया, उसकी अनुमति तो नहीं ही मिली उल्टे शोध संस्थान से निष्कासित तक कर दिए गए। हालांकि विश्वविद्यालय के इस कदम की देशभर में निंदा ही नहीं हुई बल्कि उसके खिलाफ लोगों में काफी रोष भी दिखा। इस मसले पर वैदिक को सर्वश्री डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य कृपालानी, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडिस, भागवत झा आजाद, मधु लिमये, रवि राय, राजनारायण, सिद्घेश्वर प्रसाद, हेम बरूआ, के. उमानाथ, किशन पटनायक, प्रकाशवीर शास्त्री, हीरेन मुखर्जी जैसे कई दिग्गज नेताओं का समर्थन मिला। इस मसले पर इन नेताओं ने दो सालों तक (1966-67) संसद को हिलाये रखा।
इन्हीं लोगों के समर्थन के कारण और सभी राजनीतिक दलों के सहयोग से भाषाई संघर्ष में उन्हें ऐतिहासिक विजय हासिल हुई। इन नेताओं के साथ ही वेद प्रताप वैदिक के संघर्ष के कारण ही हिंदी के साथ-साथ समस्त भारतीय भाषाओं को पहली बार मान्यता मिली की वो पीएच. डी. शोधग्रंथों के लिए माध्यम बन सकेगी।
दैनिक भास्कर, 14 सितंबर 2014
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