अंचल सिन्हा/उगांडा, अफ्रीकी देश
अंचल सिन्हा, पत्रकार से बैंकर
मैं जब जब अर्नब गोस्वामी को एंकरिंग करते देखता हूँ तो मन में सवाल उठता है कि क्या सचमुच अर्नब गोस्वामी पत्रकार हैं ! अपनी पत्रकारिता की पीठ ठोंकना और अपनी तारीफ़ करने की कुछ लोगों की आदत होती है, वे इस या उस बहाने ऐसा करने का प्रयास करते हैं कि आम दर्शक या पाठक उनकी बहादुरी गाना शुरू कर दे . महान अर्नब गोस्वामी इस जमात में सबसे आगे हैं . उन्हें टाइम्स नाउ जैसा बैनर मिला हुआ है और वे इस बैनर का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं. उन्हें हिंदी के पत्रकारों से वैसे भी नफरत सी है और उन्हें लताड़ने का वे कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं देते .
वेद प्रताप वैदिक वाले किस्से में भी उन्होंने यही किया और उनके कुछ चेले जो इन दिनों दूसरे चैनलों में हैं , वे भी लगे हाथ वैदिक जी को गाली देने में पीछे नहीं रहे. अर्नब गोस्वामी ने आज के अनेक एंकरों को यही शिक्षा दी है कि वे केवल अपनी ही बात कहें और किसी और को बोलने का या किसी आरोप का विरोध करने का कोई मौका बिलकुल न दें . अगर सामने वाले ने अपनी बात कह ही दी तो हमारी बात ऊपर रहेगी कैसे ? आज के अनेक एंकर अर्नब गोस्वामी से यही सीख ले रहे हैं और चैनलों के मालिक को यह समझाने में सफल हो रहे हैं कि यही असली पत्रकारिता है .
Arnab-Vaidik एक ज़माना था जब रघुवीर सहाय यह बताते थे कि पत्रकार का काम सचाई को सामने रख देने का है और अपनी बात भी जनपक्षीय होकर बता देने का है. सुरेन्द्र प्रताप सिंह तो साफ़ कहते थे कि आप केवल सच को सामने रख दें, अपना कोई विचार न दें , आम पाठक को फैसला करने दें कि क्या हुआ और क्या होना चाहिए. अर्नब गोस्वामी जैसे लोग उन दिनों में एक स्टोरी नहीं कर पाते ! आज वे पत्रकारिता की सीख वैदिक को दे रहे हैं.
अब रही वैदिक जी की बात ! पत्रकारिता में ईमानदारी बरतने वाले पत्रकार वैदिक जी की हिंदूवादी छवि के कारण उन्हें प्रगतिशील पत्रकार नहीं मानते , मैं भी उन अनेक लोगों में से एक हूँ. पर 50 बरस तक तमाम अखबारों में काम करने वाले वैदिक जी पत्रकार ही नहीं हैं और हाफ़िज़ का इंटरव्यू करके उन्होंने देशद्रोह का काम किया है , यह एक मूर्खतापूर्ण वक्तब्य के सिवा और है ? 1973 – 74 के दौरान देश के कट्टर नक्सलवादी नेताओं से मिलने और स्टोरी करने के लिए पत्रकार बेचैन रहते थे और उन दिनों के बड़े अखबार और बड़ी पत्रिकाएं पूरे सम्मान से उन्हें प्रकाशित करते थे . क्या वीरप्पन का इंटरव्यू करने वाला पत्रकार देशद्रोही घोषित कर जाता था ? और क्या राजीव गांधी के हत्यारों से पत्रकारों ने इंटरव्यू नहीं किया था ? और तो और क्या कसाब का इंटरव्यू करने वाला पत्रकार देशद्रोही था ?
अगर नहीं तो वैदिक को एक अपराधी की तरह अर्नब ने क्यों बदनाम किया ? यह अर्नब की भड़काने वाली बाते ही हैं जिनके कारण वैदिक पर किसी ने देशद्रोह का मुकदमा ठोंक दिया, तो कहीं उनके पुतले जलाए गए . असल में अर्नब ने देश में अस्थिरता और दंगा फैलाने की भरपूर कोशिश की है और उन्हें सजा मिलनी चाहिए.
पर हमारे देश में अब पत्रकारिता कोई जज़्बा या मिशन नहीं रह गया है , वह बस नौकरी भर है . इसके लिए किसीको भी गाली दीजिये, किसी पर भी कोई आरोप लगा दीजिये, किसी की बात को संपादित करके , कांट छाँट कर सनसनी पैदा करने के लायक बना कर दीजिये , उनकी इस हरकत से कौन बेवजह बदनाम हो जाता है या कई बार आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर हो जाता है ,पर इसके बारे में सोंचने की ज़रुरत क्या है ? कोई मरता है तो मरे, हमारा नाम हो गया , हमारी नौकरी में हमें शाबाशी मिल जाये, बस यही चाहिए. समाज के प्रति हमारी कोई ज़िम्मेदारी है क्या ? यही पत्रकारिता का ताज़ा रूप बन गया है. इससे टीआरपी बढ़ती है , ज्यादा विज्ञापन मिलते हैं, मालिक का व्यापार चलता है. अर्नब गोस्वामी और उनके चेले चपाटी यही तो कर रहे हैं. फिर भी वे छाती ठोंक कर कहते हैं कि असल में वे ही तो पत्रकार हैं. मेरे पत्रकार मित्र कहेंगे, तुम कोई पत्रकार हो ? तुम कौन होते हो हम महान लोगों पर टिप्पणी करने वाले ? बैंकर हो , वही रहो. इसीलिए तो तुम्हे किसी अखबार में नौकरी नहीं मिली . है न भइया यही बात ?
Leave a Reply