जनसत्ता। वरिष्ठ पत्रकार और विचारक वेद प्रताप वैदिक के अनुसार यह कहना कि पाकिस्तान प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश के चुनाव को प्रभावित कर सकता है, भारतीय लोकतंत्र के साथ मजाक है। उन्होंने कहा कि संघ कार्यकर्ता एक तपस्वी की तरह होते हैं, जिनके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं होता। फिर मोदी पत्रकारों के सवालों से क्यों डरते हैं? छह दशक से हर सरकार से बेबाक सवाल पूछने और उसे सलाह देने वाले वैदिक कहते हैं कि संघ के लोगों को भाजपा और देश के भविष्य की परवाह है तो प्रधानमंत्री पद के बारे में पुनर्विचार करें। न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका सहित लोकतंत्र के चौथे खंभे पत्रकारिता को प्रश्नांकित करती इस बातचीत का संचालन किया कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज ने।
अनिल बंसल : जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तो आपने उनका खुल कर स्वागत किया। लेकिन आजकल आप उनके कटु आलोचक बन गए हैं। क्यों?
वेद प्रताप वैदिक : उस समय देश भर में जैसा माहौल बन गया था, भ्रष्टाचार का, घनघोर गैरजिम्मेदारी का, उसमें मुझे लग रहा था कि उस सरकार को उस समय हटना चाहिए था। इसलिए मैंने मोदी के लिए न केवल समर्थन करते हुए लेख लिखे, बल्कि भाषण दिए। मैंने और बाबा रामदेव ने पूरे देश में घूम-घूम कर सभाएं कीं। इसके अलावा देश के जो सर्वोच्च लोग हैं उनके साथ, भाजपा के सर्वोच्च लोगों के साथ बैठ कर बात की और समझाने की कोशिश की कि मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाइए। उसमें ऐसा नहीं कि हम मानते थे कि मोदी में सामर्थ्य है, पर सोच यह थी कि चूंकि सरकार हम बनवा रहे हैं, इसलिए हम लोगों की देखरेख में, हम लोगों के सुझाव से सरकार चलेगी। मगर ऐसा नहीं हुआ, तो निराशा हुई।
मुकेश भारद्वाज : आप पाकिस्तान गए, जिस पर काफी विवाद भी हुआ। ऐसा करने की इजाजत तो वही दे सकता है, जो सत्ता में है! और मोदी के मामले में चूक कहां हुई?
’पाकिस्तान मैं किसी पार्टी की तरफ से नहीं गया था। जब इसे लेकर विवाद उठा तब भी मैंने यह बात कही थी कि मैं सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर वहां नहीं गया था। तब मैंने पत्रकारों से भी कहा था कि आप मुझे मोदी का दूत क्यों कह रहे हो, मोदी तो मेरे दूत रहे हैं। आप गांधी को नेहरू का दूत कहेंगे कि नेहरू को गांधी का दूत कहेंगे? विचार मैं देता हूं, वे तो केवल लागू करते हैं। मुझे किसी प्रचार की जरूरत नहीं है, न किसी पद की जरूरत है। आज तक मैं किसी भी सरकारी पद पर नहीं रहा। मुझे किसी पद की जरूरत है ही नहीं। मैंने अपने जीवन को इस तरह बनाया है कि सरकार किसी भी पार्टी की हो, मुझे फर्क नहीं पड़ता है। कई प्रधानमंत्रियों के आग्रह पर मैं कई बार विदेश गया हूं और ऐसे-ऐसे देशों के प्रधानमंत्रियों और विदेशमंत्रियों से बातचीत की है, जो हमारे राजदूतों को मिलने का समय नहीं देते थे छह-छह महीने। मगर मैंने कभी विशेष दूत का पद स्वीकार नहीं किया।
अनिल बंसल : हाफिज सईद से आप मिले तो कई लोगों ने मांग उठाई कि आपके खिलाफ आतंकवादियों के साथ साठगांठ का मुकदमा चलाया जाना चाहिए!
’जब मुझ पर मुकदमा चलाने की बात उठी तो मैंने कहा कि जरूर मुकदमा चलाएं। मुझ पर मुकदमा चलाने की बात पहली बार नहीं हुई। रामलीला मैदान में बाबा रामदेव की सभा पर लाठियां चली थीं, तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पच्चीस फीसद मुआवजा बाबा रामदेव भरें। तब मैंने एक टीवी चैनल पर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश कानून को समझना तो है, पर न्याय क्या है, यह सुप्रीम कोर्ट नहीं समझता। तब कांग्रेस के प्रवक्ता ने उसी टीवी पर कहा कि आपके खिलाफ मुकदमा चलना चाहिए। तब मैंने कहा था कि मुकदमा चलाइए और उसे टीवी पर खुला चलाइए, फिर देखिए देश की जनता सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कहां तक स्वीकार करती है।
अजय पांडेय : कश्मीर को लेकर सरकार की नीति से आप कहां तक सहमत हैं?
’मैं कहता हूं कि समस्या को बोली से हल करो, मगर गोली तैयार रखो। अगर कभी हम पर हमला होता है, तो उसके आगे झुकने की, समझौता करने की, सहिष्णु बनने की कोई जरूरत नहीं है। एक गोली चले तो तुम दस चलाओ। मगर बातचीत बंद नहीं होनी चाहिए। यह बात हमने महाभारत से सीखी है कि दिन भर युद्ध होता था, पर रात को सब साथ बैठ कर बातचीत करते थे। यह परंपरा सिर्फ हमारे यहां नहीं, पूरे विश्व में निभाई जाती है। तो, बातचीत कभी बंद नहीं होनी चाहिए। हाफिज सईद को लेकर बहुत हल्ला मचा, मगर हाफिज सईद से ज्यादा खतरनाक लोगों से भी, जो भारत के दुश्मन रहे हैं, मेरी बातचीत हुई है। अफगानिस्तान के हिकमतयार से बातचीत कर चुका हूं। कहने का अर्थ यह कि आतंकवादियों से भी बातचीत होनी चाहिए।
मृणाल वल्लरी : इस समय जिस तरह गुजरात चुनाव में पाकिस्तान का इस्तेमाल हो रहा है, उसके बाद भी आपको लगता है कि बातचीत की राह बनेगी?
’हां, बिल्कुल। गुजरात में जो हो रहा है, वह एक तरह का नाटक है। नाटक के बाद भी जीवन तो जीना पड़ता है। बातचीत करना जीवन है, और यह इल्जाम लगाना अपने लोगों पर कि गुजरात के चुनाव में गुजरात के मुसलमान पाकिस्तान के इशारे पर वोट डाल देंगे, पाकिस्तान उनको प्रभावित कर रहा है, बिल्कुल बचकानी बात है। मैं इसके जवाब में एक सवाल पूछता हूं कि अगर पाकिस्तान गुजरात के मुसलमानों पर एक फतवा जारी करे कि मोदी जी से बढ़ कर कोई प्रधानमंत्री पूरे दक्षिण एशिया में कोई हुआ ही नहीं, आप सब उनका समर्थन कीजिए, तो क्या गुजरात के मुसलमान पाकिस्तान की बात को मानेंगे? इससे उल्टा गुजरात के मुसलमान, मोदीजी के बारे में जो राय रखते हैं, पाकिस्तान उसे मानता है। पाकिस्तान गुजरात के चुनाव को प्रभावित करेगा, उसकी बजाय मुसलमान और गुजरात पाकिस्तान को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए यह कहना कि पाकिस्तान एक छोटे से प्रदेश के चुनाव, प्रधानमंत्री के प्रदेश के चुनाव को प्रभावित कर सकता है, यह लोकतंत्र के साथ मजाक है। यह भारत का अपमान है कि भारत के लोग इतने अपरिपक्व हैं कि वे पाकिस्तान के इशारे पर वोट डालेंगे! कितना बेजा है यह कहना कि भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, हमारे पूर्व राजदूत और पूर्व सेनाध्यक्ष मिल कर वहां सरकार गिराने की साजिश कर रहे हैं। मतलब, देश के विकास का मुद्दा खत्म, देश के अंदरूनी मामले खत्म, जो उम्मीदें बंधा रहे हैं वे खत्म, गुजरातियों के दुख-दर्द के मामले खत्म, बस मामला एक ही रह गया है कि पाकिस्तान की बोगी उठाओ और किसी तरह से वोट लो! यह कोई तरीका है? यह प्रधानमंत्री पद का अपमान है। प्रधानमंत्री पद का स्तर गिराना है। और यह कहना कि मणिशंकर अय्यर वहां जाकर सुपारी दे आए! आप सुपारी खा-खा के गालियां दे रहे हैं, यह शोभा देता है आपको? वे सुपारी देके आए, यह आपको पता चला, तो तभी आपने सख्त कदम क्यों नहीं उठाया? सुपारी देने की जहां तक बात है, आपने साढ़े तीन साल क्या किया? जितना गोपनीय मणिशंकर अय्यर ने उसे रखा, उससे ज्यादा आपने रखा! यह क्या मजाक है? और यह देखिए कि कहा कि जो बैठक हुई, वह गुप्त बैठक हुई और वह गुजरात चुनाव हराने के लिए हुई। तो, आपको कैसे पता चला कि वह गुप्त है? वह हुई और वहां उन लोगों ने आपके खिलाफ बात की, इसका मतलब कि बैठक गुप्त नहीं थी। और कोई मोदी से पूछे कि गुप्त बात क्या होती है, उसका अंदाजा उनको है कि नहीं? दस लोगों के बीच बैठ कर कोई बात गुप्त हो सकती है! और अगर गुप्त बैठक हुई और आपके पास इंटेलीजेंस नाम की कोई चीज है, तो उस गुप्त बैठक को होने ही क्यों दिया? वे उसके घर जाते, उसके पहले ही गिरफ्तार कर लेते। या अगर उनकी बातों का आपको पता चल गया, इसका मतलब कि आपने वहां कोई गुप्त चिप लगा रखी थी, आपको सब सुनाई पड़ रहा था। तो वे वहां से निकलते उससे पहले ही गिरफ्तार कर लेते! वैसा आपने किया नहीं और अब उसे वहां जाकर बोल रहे हैं, यह तो अपने आपको गिराना हुआ।
अरविंद शेष : इससे मोदी के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को कितना नुकसान हो रहा है?
’मोदी की गरिमा का कोई नुकसान नहीं हो रहा है, क्योंकि मोदी इसके पहले भी, इससे भी ज्यादा बोल चुके हैं। यहां मोदी की नहीं प्रधानमंत्री पद की गरिमा का प्रश्न है। लेकिन यहां मैं यह भी कह देना चाहता हूं कि मणिशंकर अय्यर ने जो शब्द इस्तेमाल किया है, वह भी गलत है। वह मणिशंकर अय्यर की सारी शिक्षा को मटियामेट कर देता है।
मृणाल वल्लरी : लोकसभा चुनाव से पहले ही मीडिया मोदीमय हो चुका था, मगर अब कोई भी पत्रकार मोदी के निकट नहीं जा पाता। इन साढ़े तीन सालों में उन्होंने एक भी प्रेस वार्ता नहीं की। फिर भी मीडिया का उनके प्रति इतना प्रेम क्यों बना रहा?
’देखिए, मोदी जो चुनाव जीते हैं, वह प्रबल विपक्ष के अभाव में जीते हैं। मोदी की जगह और कोई भी होता, तो चुनाव जीत जाता। उसके बाद मोदी जब प्रधानमंत्री बने, तो लोकतंत्र में संवाद का बहुत बड़ा महत्त्व है, पर मोदी के स्वभाव में संवाद करना है ही नहीं। इसलिए कि मोदी में वैसा आत्मविश्वास नहीं है, जैसा अन्य प्रधानमंत्रियों में रहा है। जिनको हम कमजोर प्रधानमंत्री मानते रहे, जो अल्पकालिक प्रधानमंत्री थे, वे भी पत्रकारों से संवाद करते थे। पर मोदी अपने आप को बहुत शक्तिशाली प्रधानमंत्री समझते हैं। अगर वे शक्तिशाली हैं, तो बातचीत करने से क्यों डरते हैं? पत्रकारों के सवालों से क्यों डरते हैं। अगर उनके पास छिपाने को कुछ नहीं है, तो यह भय क्यों? मैं मानता हूं कि संघ के कार्यकर्ताओं का जीवन प्राय: इतना तपस्यामय रहता है कि उनको छिपाने के लिए कुछ होता ही नहीं है। उनको कुछ छिपाने की जरूरत क्या है। एकदम खुला जीवन होना चाहिए।
सूर्यनाथ सिंह : आने वाले समय में मोदी का कितना प्रभाव बचा रह पाएगा?
’मैं पहले भी कह चुका हूं कि 2014 के चुनाव में भी मोदी का कोई प्रभाव नहीं था। वह उस वक्त के सत्ता पक्ष की कमजोरी थी। अबका सत्ता पक्ष भी कमजोर होता जा रहा है। अगर गुजरात के चुनाव में भाजपा हार जाती है या भाजपा की सीटें कम होती हैं, तो उसका बहुत बड़ा प्रभाव मोदी की सरकार पर पड़ेगा। यह सरकार लंगड़ी बतख की तरह चलेगी। और यह भी हो सकता है कि संघ के लोगों को अगर भाजपा के भविष्य की परवाह है, देश के भविष्य की परवाह है, तो वे प्रधानमंत्री पद के बारे में पुनर्विचार भी करेंगे। पर मैं समझता हूं कि मोदी को खुद, अगर वे संघ के सच्चे स्वयंसेवक हैं तो, इस बारे में पहल करनी चाहिए। प्रधानमंत्री का पद क्या होता है! अगर आप ईमानदारी से काम करें, तो दस बार प्रधानमंत्री बन सकते हैं। और अगर भूल हुई है, मैं समझता हूं कि बहुत गंभीर भूल हुई है, उसे सुधारने में क्या हर्ज है। जिसे सर्जिकल स्ट्राइक कहा गया, वह दरअसल फर्जिकल स्ट्राइक थी। इसलिए कि सर्जिकल स्ट्राइक क्या होती है, मेरी राय में, यह मोदी को पता ही नहीं है। सर्जिकल स्ट्राइक 1967 में इजराइल ने की थी। लगभग साढ़े चार सौ हवाई जहाज मिस्र के उसने एक झटके में खत्म कर दिए। उसके बाद से आज तक मिस्र ने उंगली भी नहीं उठाई। मिस्र का ऐसा मानमर्दन किया कि वह इजराइल का अनुगत हो गया है। उसे कहते हैं सर्जिकल स्ट्राइक। आपने वहां सीमा पर जाकर दो-चार चौकियां गिरा दीं, उससे क्या हुआ! उसके बाद कई बार हमले हो गए, कई बार आपकी सीमा का उल्लंघन हो गया, आपके जवान मारे गए, यह कौन-सी सर्जिकल स्ट्राइक है! यह फर्जिकल स्ट्राइक है। उसके बाद उन्होंने नोटबंदी लागू की। नोटबंदी के मूल उद्गाता हैं अनिल बोकिल, जो अर्थ क्रांति नाम की संस्था चलाते हैं। अनिल जी उनसे मिले, उन्हें अपना सुझाव दिया। उसे प्रधानमंत्री ने गौर से सुना। पर, जब नोटबंदी लागू हुई, तो देख कर हैरानी हुई कि उन्होंने अनिल बोकिल के सारे सुझाव मानने के बजाय उसे अपने ढंग से लागू कर दिया। उसमें उनका सुझाव था कि सौ रुपए के भी नोट बंद होने चाहिए, आयकर बंद होना चाहिए और पैसे की हर निकासी पर शुल्क लगाया जाना चाहिए। पर वैसा नहीं किया गया। फिर नतीजा यह हुआ कि सब तरफ अफरातफरी का-सा माहौल हो गया, लोग लाइनों में खड़े-खड़े मरने शुरू हो गए। मोदी जी ने कहा कि उन्होंने बड़ा क्रांतिकारी काम कर दिया। मगर हकीकत यह है कि सैकड़ों लोग मर गए, बेरोजगारी बढ़नी शुरू हो गई, महंगाई बढ़ गई! और नए नोट छापने में चौंतीस हजार करोड़ रुपए खर्च हो गए, और काला धन एक फीसद भी नहीं निकला! उसके बाद जीएसटी लागू हुआ। उसमें एकरूपता नहीं रही। अब रोज संशोधन करने पड़ रहे हैं! मोदी अपने जिन तीन चमत्कारी कामों- सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी और जीएसटी-की बात कर रहे हैं, उसका लोगों पर सकारात्मक असर नहीं हुआ!
पारुल शर्मा : कश्मीर की आजादी को लेकर जो राजनीति हो रही है, उस पर आपका क्या कहना है?
’जम्मू-कश्मीर ही नहीं, मैं हर नागरिक की आजादी का पक्षधर हूं। पर, पाकिस्तान के नेताओं से मैं कहता रहा हूं कि जिसे आप आजाद कश्मीर कहते हैं, वह आपका गुलाम कश्मीर है। मैं चाहता हूं कि वह भी आजाद हो। मगर आजादी का मतलब क्या है? जैसे मैं आजाद हूं, वैसे श्रीनगर में फारूख अब्दुल्ला को भी आजाद होना चाहिए। जैसे श्रीनगर में फारूख अब्दुल्ला आजाद हैं, वैसे मुजफ्फराबाद में मुजाहीदीन-ए-अव्वल को आजाद होना चाहिए। 2005 में मुशर्रफ और मनमोहन सिंह के बीच जो चार सूत्रीय समझौते पर बातचीत हुई थी, वह मुझे बहुत पसंद है। उस पर अब भी बातचीत होनी चाहिए। दोनों कश्मीरों के बीच रास्ता खोल दें, दोनों कश्मीरों को स्वायत्तता मिले। दोनों कश्मीरों में रिश्ता कायम होना चाहिए- अभी उनके बीच खाई बनी हुई है। उसके लिए हमसे ज्यादा पाकिस्तानी कश्मीर को ठीक करने की जरूरत है। लोग कहते हैं कि कश्मीर विवाद में सिर्फ दो पक्ष हैं-भारत और पाकिस्तान, पर मैं कहता हूं कि चार पक्ष हैं। हुर्रियत वाले भी एक पक्ष हैं और वहां के आजाद कश्मीर के लोग भी एक पक्ष हैं। ये चारों बैठ कर बात करें, तो कोई बात बने।
मृणाल वल्लरी : आनेवाले समय में क्या मोदी राग वाली पत्रकारिता का स्वरूप कुछ बदल पाएगा या इससे भी खराब होगा?
’इसके लिए मैं मोदी को बिल्कुल दोष नहीं देता। हर शासक चाहता है कि लोग उसकी विरुदावली गाएं। यह पत्रकारों का दोष है कि वे मोदी की विरुदावली गा रहे हैं। कोई अघोषित आपातकाल नहीं है। जो लिखने वाले हैं, वे लिख रहे हैं। जब घोषित आपातकाल था, तब भी लोगों ने खूब लिखा था। अभी कौन-सा आपातकाल है? आपातकाल को तो हमने बुलाया है। हमें राग-द्वेष से ऊपर उठ कर काम करना चाहिए। अगर सरकार ठीक काम कर रही है, तो वह लिखना चाहिए। अगर वह ठीक काम नहीं कर रही, तो उस पर भी निर्भीक होकर लिखना चाहिए।
ABhatia says
“अगर सरकार ठीक काम कर रही है, तो वह लिखना चाहिए। अगर वह ठीक काम नहीं कर रही, तो उस पर भी निर्भीक होकर लिखना चाहिए।” Rightly said, vaidik ji. This is the utmost responsibility of a Journalist. Modi ji, is no doubt having hold on BJP, but it looks he has become over confident and little arrogant. It appears that, he gets dreams and then without having in depth discussions and without due home work , he announces his dreams to people. The results are that, most of his dreams announced as national agenda like, swachcchh Bharat, Jan dhan yojna, Note bandi, etc have almost failed. His foreign policy is also not being effective. In spite of his visits to almost all the main countries of the world, India is not able to get due support to tackle the growing threats and tension from neighbouring countries.The Gujrat election, though won by BJP on the name of Modi ji, but the nos of seats won by BJP has come down to 99 from 115. The anguish among the people against Modi ji seems increasing, as people now have started realising that, there is more talking but very less work.
It is therefore, advisable that, Sangh may reconsider his leadership.