NavBhart Times, 04 Oct 2002 : अक्षरधाम के सबक बहुत गहरे हैं| पहला सबक तो यही है कि अक्षरधाम और गोधरा जैसी घटनाओं को राज्य के निकम्मे नेतृत्व के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता| यदि अक्षरधाम को गोधरा की तरह नरेंद्र मोदी के हवाले कर दिया जाता तो इस बार क्रिया की प्रतिक्रिया इतनी भयंकर होती कि सारा भारत ही काँप उठता| अक्षरधाम गोधरा नहीं था| अक्षरधाम में मरनेवाले किसी पार्टी के कार्यकर्त्ता या किसी संगठन के स्वयंसेवक नहीं थे| वे ऐसे लोग थे, जैसे कि कोई भी औसत भारतीय होता है| उनकी पहचान अखिल भारतीय थी| वे केवल गुजराती ही नहीं थे| गुजरात के बाहर से आनेवाले गैर-गुजराती भी थे| इसके अलावा आतंक की घटना किसी रेलगाड़ी में नहीं, पवित्र मंदिर में घटी थी| एक ऐसे मंदिर में घटी थी, जिसके वास्तु-सौंदर्य का आनंद हिंदू, मुसलमान, ईसाई तथा देसी-विदेशी सभी समान रूप से उठाते रहे हैं|
यह आग अगर फैलती तो पता नहीं कहाँ तक फैल जाती लेकिन बिल्कुल नहीं फैली| अक्षरधाम में ही बुझ गई| इसका रहस्य क्या है ? इसका सीधा रहस्य है, केंद्र का सक्रिय होना| ज्यों ही हमले की खबर लगी, उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने कमान संभाल ली| उन्होंने केंद्रीय कमांडो फोर्स को तो तुरंत तैनात कर ही दिया, उससे भी बड़ी बात यह कि गहरी राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया| इसके पहले कि टी.वी. चैनल देश को अक्षरधाम की खबर अपने हिसाब से देते और उसकी मनमानी व्याख्या करते, स्वयं उप प्रधानमंत्री ने पहल की| शाम को जैसे ही देश में सनसनी फैली, करोड़ों लोगों ने श्री आडवाणी के मुँह से हमले का वृतांत सुना और यह जाना कि इस हमले के पीछे पाकिस्तानी हाथ है| उन्होंने यह भी सुना की जनता को धैर्य नहीं खोना है और स्वयं उप प्रधानमंत्री घटना-स्थल पर पहुँच रहे हैं| प्रधानमंत्री वाजपेयी ने मालदीव यात्रा स्थगित की और वहाँ से वे सीधे अक्षरधाम पहुँचे, यह अपने आप में गहन संकेत था, राज्य के सचेष्ट होने का ! गोधरा के बाद गुजरात पहुँचने में प्रधानमंत्री केा 35 दिन लगे और अक्षरधाम के बाद 35 घंटे भी नहीं ! क्या इसका कोई अर्थ नहीं है ?
इसे कहते हैं, राजधर्म का निर्वाह ! गोधरा में राज्य निष्क्रिय रहा| इसीलिए जनता सक्रिय हो गई| अक्षरधाम में राज्य सक्रिय हुआ तो जनता उत्तेजित नहीं हुई| लगाम खिंची रही तो घोड़ा सीधी राह पर दौड़ता रहा| गुजरात की जनता तो वही है| ऐसा नहीं है कि फरवरी में जो गुजराती थे, सितम्बर में उनकी जगह कोई दूसरे आ गए| गोड़से का गुजरात गांधी के गुजरात में कैसे बदल गया ? इसका मूल कारण राज्य है| गोधरा के बाद राज्य ने अपनी कमान हत्यारों, गुण्डों और अपराधियों के हाथों सौंप दी थी और अक्षरधाम के वक्त वह उसे अपने हाथ में थामे रहा|
इतना ही नहीं, सारे मामले को उप-प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के माथे मढ़ दिया| उनका वह बयान बाद में जाकर गलत भी सिद्घ हो सकता है और जिस वक्त उन्होंने वह बयान दिया, उसका कोई प्रमाण भी उनके पास नहीं था लेकिन अगर वे वैसा बयान नहीं देते या जो बात मोटे तौर पर सबको दिखाई पड़ रही थी, वह ही कह देते तो अक्षरधाम गुजरात की कब्रगाह बन जाता| हजारों उलट-गोधरा घट जाते| माना जाता कि अक्षरधाम पर हुआ हमला विदेशी आतंकवाद नहीं, मुस्लिम प्रतिशोध है और प्रतिशोध का शमन प्रतिशोध से किया जाए| उप-प्रधानमंत्री के बयान ने प्रतिशोध के लावे को धैर्य की सरिता में बदल दिया| उन्होंने नरेंद्र मोदी की भी रक्षा कर ली| वरना माना जाता कि अक्षरधाम का नरसंहार नरेंद्र मोदी की क्रिया की ही प्रतिक्रिया है| अक्षरधाम का असली कारण मुशर्रफ नहीं, नरेंद्र मोदी है| आडवाणी के बयान ने नरेंद्र मोदी को पर्दे में ले लिया, बचा लिया, जनता का ध्यान मुशर्रफ की तरफ मोड़ दिया| गुजरात की जनता नरेंद्र मोदी का तो अच्छा या बुरा कर सकती है लेकिन मुशर्रफ का वह क्या बिगाड़ सकती है ? इसके अलावा गेंद को पाकिस्तान के पाले में फेंक देने का जबर्दस्त फायदा अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में भी मिला| दुनिया के प्रमुख नेताओं ने अक्षरधाम-कांड की भर्त्सना की और उसे कश्मीर से भी जोड़ा| एक पत्थर से कई शिकार हुए|
अक्षरधाम का दूसरा सबक यह है कि भारत की जनता को बहादुर बनना पड़ेगा| चाहे कंधारवाला विमान अपहरण हो, चाहे संसद पर हमला हो या अक्षरधाम का नरसंहार हो, भारत की जनता काठ के उल्लू की तरह पेश आती है| अपनी रक्षा का सारा भार वह पुलिस, कमांडो और फौज पर डालकर बेखबर हो जाती है| बेखबरी की यह धारावाहिकता पिछले ढाई हजार से चली आ रही है| भारतीयों की इसी चारित्र्िाक कमजोरी का फायदा सिकंदर, मुहम्मद बिन क़ासिम, गज़नी, ग़ोरी, चंगेज, बाबर और यहाँ तक कि मरगिल्ले अंग्रेजों तक ने उठाया| यदि किसी देश की जनता कायर हो तो नेता बहादुर कैसे हो सकते हैं ? नेताओं से यह आशा करना कि वे कंधार पर कब्जा कर लेते तथा संसद और अक्षरधाम का जवाब पाकिस्तान पर हमले से देते, पानी बिलोकर मक्खन निकालने जैसा है| विश्व हिंदू परिषद्र चाहती थी कि अक्षरधाम के बहाने हम पाकिस्तान को दबोच लेते| विहिप यह नहीं कहती तो क्या कहती ? विहिप भूल गई कि बहाना, बहाना होता है, सच्चाई नहीं| और फिर क्या पाकिस्तान को दबोच लेना बच्चों का खेल है ? गलत अवसर पर उठाया गया सही कदम भी गलत हो जाता है| सही अवसर पर सही कदम उठाया जाना चाहिए| इस समय पाकिस्तान को सबक सिखाने की बजाय गुजरात के घावों की मरहमपट्टी ज्यादा जरूरी थी|
गोधरा और उसके बाद गुजरात में जो कुछ हुआ, वह कायर-कर्र्म था| पहले मुसलमानों और फिर हिन्दुओं ने अपूर्व कायरता का परिचय दिया| बेकसूरों की हत्या की| अक्षरधाम ने उन्हें मौका दिया था कि आतंकवादियों के कायराना हमले का वे बहादुराना प्रतिकार करें| लेकिन वे यह मौका भी चूक गए| अक्षरधाम में मरनेवाले ढाई दर्जन और घायल होनेवाले छह दर्जन लोगों में से कोई तो अपनी जान पर खेलता और कूदकर आतंकवादियों की छाती पर चढ़ बैठता| दो आतंकवादियों पर हमारे दर्जनों कमांडो पिल पड़े और उन्हें मार गिराया, यह सराहनीय बात है| लेकिन कमांडो जवान तो भारत के हर मंदिर, हर मस्जिद, हर गुरुद्वारे और हर गिरजे में नहीं बैठाए जा सकते| जबकि लोग तो हर जगह होते हैं| अगर लोग बहादुरी दिखाएँ तो आतंकवादियों के हौंसले पस्त होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी| कमांडो कार्रवाई से आतंकवादी नष्ट होते हैं, आतंकवाद नष्ट नहीं होता| आतंकवादी नष्ट होने से वे प्रमाण भी लगभग नष्ट हो जाते हैं, जिनके आधार पर किसी देसी या विदेशी ताकत को जिम्मेदार ठहराया जाता है| अक्षरधाम ही नहीं, बेंगलूर में भी पाँचों आतंकवादी मार दिए गए| उन्हें जिन्दा क्यों नहीं पकड़ा गया ? इसके अलावा अक्षरधाम में गुजरात की पुलिस और प्रान्तीय कमांडो की बदहवासी हमारा ध्यान हमारे सुरक्षा-तंत्र की दरिद्रता पर भी केंदि्रत करती है| बेकसूर और निहत्थे नागरिकों के संहार के लिए तो हमारा सुरक्षा-तंत्र सदा सुयोग्य सिद्घ होता है लेकिन खूंखार आतंकवादियों के आधुनिक हथियारों के मुकाबले हमारे सुरक्षाकर्मी खिलौने लटकाए हुए-से दिखाई पड़ते हैं| आतंकवाद सिर्फ बयानों से नष्ट नहीं होगा| उसे नष्ट करने के लिए जन-साधारण और सुरक्षा-तंत्र, दोनों को मुस्तैद बनाना पड़ेगा|
अक्षरधाम का तीसरा और महत्वपूर्ण सबक यह है कि जो दल और नेता क्षुद्र राजनीति से बचने की हिम्मत दिखाते हैं, वे दल और देश, दोनों को काफी आगे ले जाते हैं| भाजपा ने बंद के आह्रवान से खुद को अलग कर लिया| अच्छा ही किया| बंद के आह्रवान से काँग्रेस और विश्व हिन्दू परिषद्र को क्या मिल गया ? दोनों लगभग किनारे लग गए| देश और दुनिया ने यह जाना कि सत्तारूढ़ गठबंधन की पहली प्राथमिकता सांप्रदायिक शांति है| इससे देश में उसकी छवि थोड़ी सम्हली और दुनिया में देश का नाम चमका| अक्षरधाम के प्रमुख स्वामी ने जिस धैर्य और गरिमा का परिचय दिया, वह कोई सच्चा संन्यासी ही दे सकता है| हिन्दुत्व का सही चेहरा यही है| यही कारण है कि मस्जिद के मुल्ला, गिरजे के पादरी और गुरुद्वारे के गं्रथी भी अक्षरधाम के कुशल-मंगल की प्रार्थना में लीन दिखाई पड़े|
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