नया इंडिया, 28 सितंबर 2013 : केंद्र सरकार अब एक नई मुसीबत में फंस गई है। यह मुसीबत किसी और ने नहीं, राष्ट्रपतिजी ने खड़ी कर दी है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी सरकार के इस अध्यादेष के प्रति सशंकित है कि सजायाफ्ता सांसदों या विधायकों को तत्काल पदमुक्त न किया जाए। सरकार ने यह अध्यादेश सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को प्रभावहीन बनाने के लिए जारी किया है कि यदि कोई सांसद या विधायक अपराधी पाया गया और किसी अदालत ने उसे दो साल या ज्यादा की सजा दे दी तो उसे तुरंत इस्तीफा देना होगा। फिलहाल कानून उन्हें अपील की छूट देता है।
वे अपील-काल में अपने पदों पर बने रह सकते हैं। अब अदालत का फैसला ऐसा है कि उसने सारे दलों के नेताओं के पसीने छुड़ा दिए हैं। देश के सैकड़ों विधायकों और सांसदों पर ऐसे मुकदमे चल रहे हैं, जिनमें उन्हें दो साल से ज्यादा की सजा हो सकती है।
जैसे ही सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आया, सभी दल एक हो गए। किसी भी दल ने इसका स्पष्ट समर्थन नहीं किया। एक सर्वदलीय बैठक में 13 अगस्त को तय हुआ कि इस मुद्दे पर संसद में एक विधेयक लाया जाए और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को रद्द किया जाए। लेकिन सरकार ने इस विधेयक के कानून बनने का इंतजार नहीं किया और वह एक अध्यादेश ले आई। यह अध्यादेश अभी राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए गया है। इस अध्यादेश के आते ही कई दलों को पल्टी मारने का मौका मिल गया। इसके बहाने वे कह रहे हैं कि वे अपराधी सांसदों और विधायकों को बचाने के पक्ष में नहीं हैं। इसीलिए वे इस अध्यादेश के विरूद्ध हैं। वे पूछ रहे हैं कि सरकार को आनन-फानन अध्यादेश लाने की जल्दी क्यों पड़ी हुई है? वे यह नहीं बता रहे कि वे सिर्फ इस अध्यादेश् के विरोधी हैं या अपराधी सांसदों और विधायकों को बचाने के लिए जो कानून बनाया जा रहा है, उसके भी विरोधी हैं?
वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरूद्ध जब सारे मौसेर भाई एक दिखाई पड़े तो जनमत भी एकमत में बदल गया। देश में जनता का विरोध देखकर प्रतिपक्षी दल घबरा गए। घबराए तो कांग्रेसी भी लेकिन वे क्या करें? कुछ कांग्रेसी नेताओं ने भी साहसपूर्वक इस अध्यादेश को अनुचित बता दिया। अब राष्ट्रपति ने गृहमंत्री, विधि मंत्री और संसदीय मामलों के मंत्रियों को बुला भेजा है, यह जानने के लिए कि अध्यादेश निकालने की क्या जरूरत है? सबको पता है कि लालू प्रसाद यादव और रषीद मसूद के विरूद्ध अगले सप्ताह अदालती फैसले आनेवाले हैं। सिर्फ इन दो नेताओं को बचाने के लिए कांग्रेस अपनी गर्दन क्यों फंसाए? भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस पहले से बदनाम है। अब उस पर राजनीति के अपराधीकरण का बिल्ला भी क्यों चिपकाना चाहिए?
इस अध्यादेश पर राष्ट्रपति आंख मींचकर दस्तखत न करें तो वे अपने पद को गरिमा प्रदान करेंगे। यदि वे इसे वापस लौटा दें तो मंत्रिमंडल इसे दुबारा उनके पास भेजने का साहस नहीं कर सकता।
अध्यादेश बकवास है या सरकार बकवास है?
कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सरकार के लिए राष्ट्रपति से भी ज्यादा मुसीबत खड़ी कर दी है। उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस में अचानक कह दिया कि यह अध्यादेश बकवास है। इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए। उन्होंने अध्यादेश के साथ-साथ सरकार की भी मिट्टी पलीत कर दी है। अध्यादेश तो अब खत्म हो ही जाएगा लेकिन अब यह मनमोहन सरकार किस मुंह से कुर्सी में लदी रहेगी? अगर प्रधानमंत्री ज़रा भी पानीदार आदमी हैं तो उन्हें न्यूयार्क से ही अपना इस्तीफा भेज देना चाहिए। राष्ट्रपति अध्यादेश की बजाय इस इस्तीफे को स्वीकार करें।
राहुल गांधी का यह विस्फोट जनमत का सम्मान जरूर है और प्रशंसनीय भी है लेकिन यह सवाल भी खड़ा करता है कि यह कैसी पार्टी और कैसी सरकार है? सरकार का इतना बड़ा निर्णय और पार्टी-नेतृत्व को उसकी जानकारी तक नहीं थी। यदि जानकारी थी तो तब राहुल गांधी को क्या हुआ था? वे तीन-चार दिन क्या करते रहे?
जो भी हो, इस सारे प्रकरण से कांग्रेस की जबर्दस्त किरकिरी हो रही है।
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