नया इंडिया, 14 मार्च 2014: मैं अन्ना पर कुरबान जाता हूं। उनकी सादगी पर कौन ना मर जाए, या खुदा! उनके धोती-कुर्ता-टोपी जितने सादे हैं, उनका दिमाग उनसे भी ज्यादा सादा है। उनके दिमाग में लहर उठी कि ममता बेनर्जी का समर्थन करना चाहिए तो वे रालेगण से उड़े और कोलकाता पहुंच गए। समर्थन क्यों करना चाहिए, क्योंकि उनके 17 सूत्री पत्र का जवाब सिर्फ ममता ने दिया था। बाकी सब नेताओं ने उस पत्र को यथास्थान भेज दिया था याने कूड़ेदान के हवाले कर दिया था। ममता भी चकमे में आ गईं। प्रधानमंत्री का पद उन्हें सामने दिखाई पड़ने लगा। उन्हें लगा कि अन्ना से बेहतर सीढ़ियां क्या मिल सकती है? बंगाल की शेरनी अब सारे भारत में दहाड़ेगी। सो घोषणा कर दी कि रामलीला मैदान में रैली होगी। रामलीला मैदान की ममता-अन्ना रैली जितनी फुस्स हुई, उतनी आज तक कोई रैली नहीं हुई होगी। ममता-अन्ना के नाम पर वहां जितने लोग इकट्ठे हुए, उससे ज्यादा तो छुटभय्यों की नुक्कड़-सभाओं में हो जाते हैं। अन्ना तो इतने भोले हैं कि वे वहां भी पहुंच जाते लेकिन वे नहीं गए। बहाना बना दिया। बीमार हो गए। धूप नहीं सह सकते थे। याने मान लिया गया कि वे महाराष्ट्र सदन से रामलीला मैदान तक पैदल जाते। कारें उनके आगे-पीछे सिर्फ पहरा देतीं। ममता चाहतीं तो वे भी नहीं जातीं। वे भी बीमार पड़ सकती थीं। लेकिन वे गईं और उन्होंने हिंदी में सिंह-गर्जना की। ममता बाई के क्या कहने? उनकी सभा में अगर सिर्फ एक आदमी हो या न भी हो तो भी वे घंटे-दो घंटे तक गरजती रह सकती हैं।
रामलीला मैदान ने ममता और अन्ना दोनों की पोल खोलकर रख दी है। ममता अब जब भी प्रधानमंत्री बनने की बात कहेंगी, वे अपने आप को राष्ट्रीय मसखरों की श्रेणी में पहुंचा देंगी। जहां तक अन्ना का संबंध है, उन्हें अपनी महत्वाकांक्षा को अब विराम दे देना चाहिए। वे एक तात्कालिक लोक-नाटक के नायक अचानक बन गए थे। उन्होंने अपना ‘प्रतीक’ का रोल अच्छा अदा किया। अब नाटक खत्म हो गया है। अब भी वे मंच पर नौटंकियां करते रहे तो वे उसी श्रेणी में पहुंच जाएंगे, जिसमें देश के कुछ शीर्ष नेता पहुंच गए हैं। अब अरविंद केजरीवाल-जैसा कुशल डायरेक्टर उन्हें मिलने वाला नहीं है। सारे देश को पता चल गया है कि अब अन्ना के गन्ना में रस नहीं है। जो लोग इस सूखे गन्ने को चबा रहे हैं, उनसे विनती है कि इस भोले-भंडारी पर दया करें और उसे अपना शेष जीवन शांति से बिताने दें।
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