दैनिक भास्कर, 11 जनवरी 2014 : देश में चुनाव का माहौल गर्माने लगा है। सर्वत्र एक ही प्रश्न पूछा जा रहा है। देश का प्रधानमंत्री कौन बनेगा? नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी या अरविंद केजरीवाल? या मुलायम सिंह या जयललिता या कोई और प्रांतीय नेता? क्यों पूछा जा रहा है, यह सवाल? क्या भारत के प्रधानमंत्री का चुनाव भारत की जनता करती है? कदापि नहीं! भारत में अमेरिका की तरह की अध्यक्षात्मक प्रणाली नहीं है। वहां की जनता अपने देश के राष्ट्रपति का सीधा चुनाव करती है। वहां प्रधानमंत्री नहीं होता। भारत के प्रधानमंत्री को जनता सीधे नहीं चुनती है। वह लोकसभा के चुनाव में पार्टियों के सांसदों को चुनती है और फिर सबसे अधिक सीटें जीतने वाली बहुसंख्यक संसदीय पार्टी अपना नेता चुनती है। वही प्रधानमंत्री बनता है।
तो फिर यह क्यों कहा जा रहा है कि देश का प्रधानमंत्री कौन बनेगा? यह क्यों नहीं पूछा जा रहा है कि कौन-सी पार्टी जीतेगी? यह सही सवाल क्यों नहीं पूछा जा रहा है और गलत सवाल हवाओं में क्यों गूंज रहा है? क्या यह प्रवृत्ति भारत के लोकतंत्र के लिए खतरनाक सिद्ध नहीं हो सकती? इसी प्रवृत्ति का ही परिणाम है कि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों’ में परिणित हो गए हैं। ज्यादातर पार्टियां नेता- आधारित हो गई हैं। कोई मां-बेटा पार्टी है तो कोई पति-पत्नी पार्टी है। कोई बाप-बेटा पार्टी है तो कोई साला-जीजा पार्टी है। जिन पार्टियों में परिवारवाद नहीं है, अब वे पार्टियां भी एक नेता पर ही ध्यान केंद्रित कर रही हैं। इसका अर्थ क्या हुआ? पार्टी की अपनी विचारधारा गौण हो गई! संगठन गौण हो गया! कार्यक्रम गौण हो गया! नीतियां गौण हो गईं! इन सबके गौण हो जाने का जो सबसे बड़ा खतरा है, वह सिर पर सवार हो जाता है। वह है पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का गौण हो जाना। क्या आज किसी भी पार्टी में किसी भी मुद्दे पर खुलकर विचार-विमर्श होता है? नेता के डर के मारे अत्यंत वरिष्ठ लोग भी बैठे-बैठे मूंड हिलाते रहते हैं। सारी राजनीति नेता-केंद्रित हो गई है। विभिन्न दलों के नेता एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं। उन्हें अपने पद और मर्यादा का ध्यान भी नहीं रहता। एक नेता दूसरे नेता का मजाक उड़ाता है। सारी राजनीति ही मजाक बन जाती है। जिन सवालों को लेकर सारा देश परेशान है, उन पर कोई बहस ही नहीं होती। डर यही लगता है कि इस तरह की राजनीति से पैदा होनेवाला प्रधानमंत्री देश का भला कैसे करेगा? प्रधानमंत्री कोई भी बने, किसी भी पार्टी का बने- यदि वही इसी पद्धति से बनेगा तो उसका अहंकार कितना भारी-भरकम हो जाएगा? एक पलड़े पर अहंकार और दूसरे पलड़े पर अज्ञान- यह तराजू कैसी होगी?
देश के सामने मुद्दे तो कई हैं, लेकिन आज जो मुद्दा हवा में सबसे ज्यादा तैर रहा है, वह है, भ्रष्टाचार का मुद्दा! क्या प्रधानमंत्री पद का कोई उम्मीदवार हमें यह बता रहा है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए वह क्या-क्या ठोस कदम उठाएगा? क्या वह जनता को सबसे पहले अपने बारे में विश्वास दिलाता है कि वह भ्रष्टाचार नहीं करेगा? शासक पर वे नियम लागू नहीं होते, शासितों पर होते हैं, क्या इस पारंपरिक समझ को उलटने के लिए कोई उम्मीदवार तैयार है? क्यों कोई उम्मीदवार यह नहीं कहता कि वह किसी भी अपराधी भूमिकावाले या भ्रष्ट नेता को अपनी पार्टी का टिकट नहीं देगा? हर प्रधानमंत्री बननेवाला उम्मीदवार इसी फिराक में है कि वह ऐसे लोगों को टिकट दे, जो चुनाव जीत सकें। यही योग्यता सबसे बड़ी है। भ्रष्ट होना आज भी अयोग्यता नहीं है।
यही कारण है कि आज ‘आम आदमी पार्टी’ ने हवा में लट्ठ घुमाते-घुमाते दोनों राष्ट्रीय दलों के सिर तोड़ दिए। दिल्ली में तो तोड़ ही दिए। यह ठीक है कि वह कांग्रेस की सीढ़ी लगाकर सत्ता के पायदान पर पहुंची है और उसने बिजली-पानी की तात्कालिक समस्याएं ही हल की हैं, लेकिन उसने रिश्वतखोरों के खिलाफ जो अभियान चलाया है, उसकी टंकार सारे देश में हो रही है। दिल्ली छोटा-सा राज्य है और अन्य राज्यों की तरह पूरा राज्य नहीं है, लेकिन यह देश का दिल है। पूरा देश इसकी धड़कनें सुन रहा है और फड़क रहा है। ‘आम आदमी पार्टी’ के पास न तो विशाल संगठन है और न पैसा है। उसके पास न तो अनुभव है और न ही इतिहास की धरोहर है। लेकिन उसकी एक धुन है, जो लोगों के दिलों को छू रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि देश के लोग एक जुआ खेलने को तैयार हो जाएं, जैसे कि वे 1977 या 1989 में तैयार हो गए थे।
आपात्काल और बोफोर्स, दोनों के बाद जो नेतृत्व सामने आया था मोरारजी देसाई और विश्वनाथ प्रताप सिंह का, देश के लोगों ने उसे पहले से परखा-जाना था लेकिन आम आदमी पार्टी एक कोरे कागज की तरह है, बिना चखे हुए घी की तरह है। बिना सूंघे हुए फूल की तरह है। पता नहीं वह आगे जाकर कैसी निकले? जैसी भी निकले। आज लोगों का दम घुट रहा है और इस घुटन से बचने के लिए उन्हें एक खिड़की दिखाई पड़ने लगी है। अब देखना यह है कि क्या यह खिड़की, खिड़की ही रहेगी या दरवाजा बन जाएगी? अगर दिल्ली में ‘आप’ की सरकार अगले चार-पांच माह तक चलती रह सकी और इसने भ्रष्टाचार के दैत्य का दलन कर दिया तो कोई आश्चर्य नहीं कि धक्के में ही यह बड़ी पार्टी बन जाए।
भ्रष्टाचार-विरोधी होने के कारण लोग इस पार्टी की ओर आकर्षित तो होंगे, लेकिन मुझे नहीं लगता कि भारत की जनता उसे सरकार बनाने का मौका दे देगी। इस पार्टी के पास बिजली, पानी, रैन-बसेरे जैसे तात्कालिक मुद्दे हैं। ये मुद्दे शासन के उतने नहीं हैं, जितने प्रबंधन के हैं। सरकार के उतने नहीं हैं, जितने नगरपालिका के हैं। क्या भारत की जनता इतनी अधकचरी है कि वह नगरपालिका के अध्यक्ष को भारत जैसे विशाल राष्ट्र का प्रधानमंत्री बनाने को तैयार हो जाएगी? इसके अलावा दिल्ली का हर घर रामलीला मैदान से प्रभावित हुआ था और दिल्ली में जाति तथा मजहब के मोहरे भी उतने असरदार नहीं होते, जितने कि राज्यों में होते हैं। ऐसी स्थिति में ‘आप’ यदि भारत के प्रमुख विरोधी दल की तरह उभर सके तो भारतीय राजनीति के लिए यह नई हवा का झोंका होगा। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह अपने प्रधानमंत्री के उम्मीदवार की छवि चमकाने के लिए 500 करोड़ रुपए पानी में बहाने को तैयार है। याने आप अंदाज लगा सकते हैं कि उसकी छवि कितनी अधिक विकृत हो चुकी है। फिर भी प्रधानमंत्री पद का सपना देखनेवाले हर दल और उम्मीदवार से यह आशा तो की ही जा सकती है कि वह देश के सामने वैकल्पिक नक्शा पेश करे। वह यह बताए कि वह प्रधानमंत्री बनेगा तो वह इस देश को कैसा बनाएगा? उसके सपनों का देश कैसा होगा? वह गरीबी दूर कैसे करेगा? गरीब-अमीर की खाई कैसे पाटेगा? अपनी भाषाओं में अपना राज-काज कब चलेगा? रक्षा और विदेश नीति कैसी होगी? सामाजिक विषमता कैसे घटेगी? जात-पांत कैसे मिटेगी? प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार यदि इन गहरे और ज्वलंत मुद्दों पर बहस नहीं चलाएंगे और सिर्फ अपनी पीठ ही ठोकते रहेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब देश अपना माथा ठोकने लगेगा।
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