हिन्दुस्तान, 1 अप्रैल 2002 : कुछ दिन पहले राष्ट्रपति बुश के सलाहकार डॉ0 जलमई खलीलजाद भारत आए थे| वे भारत के कुछ विशेषज्ञों से अफगानिस्तान पर बात कर रहे थे| बात चलते-चलते यहाँ तक पहुँच गई कि नई दिल्ली में अमेरिका के राजदूत प्रो0 ब्लेकविल ने सारे विशेषज्ञों से पूछा कि “यह बताइए, मध्य एशिया और अफगानिस्तान में भारत और अमेरिका के हित एक-जैसे हैं या नहीं ? उस इलाके में भारत और अमेरिका की जुगलबंदी हो सकती है या नहीं ?” इस सवाल पर तत्काल साँप-सा सूँघ गया| एक को छोड़कर, जो भी बोले, सबकी राय थी कि दोनों राष्ट्रों के हितों में विलक्षण समानता है| अब लगभग दो सप्ताह बाद यह फुसफुसाहट भौंपू की आवाज़ बन गई है| विदेश नीति क्षेत्र् में यह चर्चा चल पड़ी है कि भारत, अमेरिका को अपने स्थायी और नये पड़ौसी के रूप में स्वीकार क्यों नहीं कर लेता ? यहाँ पड़ौसी का मतलब सिर्फ पड़ौसी नहीं, महाप्रभु है, बड़े मियाँ है, दादा है, संरक्षक है| भारत, अमेरिका को उसी तरह दक्षिण एशिया का दादा क्यों नहीं मान लेता जैसे कि वह लातीन अमेरिका में माना जाता है| जैसे अमेरिकी महाद्वीप में ‘मुनरो सिद्घांत’ दो सौ साल से काम कर रहा है, अब इक्कीसवीं सदी में दक्षिण एशिया में भी क्यों नहीं लागू कर दिया जाए ? भारतीय विदेश नीति कब तक गुट-निरपेक्षता के शव को अपने कन्धे पर ढोती रहेगी ? यह है, हमारे विशेषज्ञों का मौलिक चिन्तन!
पहले यह समझें कि अमेरिका हमारा पड़ौसी कैसे बन गया है ? 11 सितंबर के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में सैन्य-कार्रवाई की| इस कार्रवाई के दौरान उसने भारत के पड़ौसी देशों में लगभग डेढ़ दर्जन सैनिक अड्डे बना लिये हैं या सैन्य-सुविधाएँ प्राप्त कर ली हैं| खाड़ी में पहले से उसकी सेनाएँ टिकी हुई थीं| अब उसने रूस के नर्म नाभि-क्षेत्र् में भी अड्डे बना लिये हैं| उज़बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और किरगिजिस्तान में पहली बार अमेरिका ने अपने पाँव जमा लिये हैं| द्वितीय महायुद्घ के बाद 56 साल तक लगातार कोशिश करने के बावजूद जिस लक्ष्य को प्राप्त करने में अमेरिका असफल हो गया था, वह उसे पलक झपकते ही प्राप्त हो गया| अफगानिस्तान तो उसकी जेब में है ही, पाकिस्तान भी उसकी कठपुतली बन चुका है| नेपाल को माओवादियों और श्रीलंका सरकार को तमिल छापामारों के खिलाफ सहायता की पेशकश करके अमेरिका ने भारत के चारों तरफ अपने वर्चस्व का घेरा डाल दिया है| अमेरिकी राष्ट्रपति और विदेश मंत्र्ी कई बार यह कह चुके हैं कि जब तक वे आतंकवाद का पूर्ण उन्मूलन नहीं कर लेंगे, वे दक्षिण एशिया से नहीं लौटेंगे याने अमेरिका की यह सैन्य उपस्थिति बेमियादी है| इस बेमियादी बुखार के उतरने की कोई संभावना फिलहाल दिखाई नहीं देती, क्योंकि अभी तो अफगानिस्तान के मुख्य खलनायकों को ही अमेरिकी नहीं छू पाए हैं, जबकि उज़बेकिस्तान और नेपाल में भी आतंकवाद का बुखार फैलता जा रहा है| ऐसी स्थिति में अमेरिका से नाक-भौं सिकोड़ने का क्या लाभ है ? उसे अब अपना स्थायी पड़ौसी मानकर उससे लाभ क्यों नहीं उठाया जाए ?
यों भी अमेरिका वे सब काम कर रहा है, जो भारत के हित में हैं या जिन्हें करना भारत का कर्तव्य है लेकिन भारत कर नहीं पाता| जैसे अफगानिस्तान से तालिबान और अल क़ायदा का सफाया भारत के हित में था या नहीं ? था, लेकिन भारत कुछ नहीं कर पाया| यह क्षेत्र् कश्मीरी आतंकवाद का सप्लाय डिपो बना हुआ था| उस पर बम बरसाने की बजाय भारत ने आतंकवादी वापस ले जाकर उनके हवाले कर दिए| ऐसे मजबूर भारत को अमेरिकी कार्रवाई ने मजबूत भारत बनाया या नहीं ? यही काम नेपाल के माओवादियों और श्रीलंका के तमिल छापामारों से लड़कर सम्पन्न किया जाएगा| करगिल के खलनायक मुशर्रफ को आखिर किसने प्रेरित किया है कि वह जिहाद के विरुद्घ जिहाद बोले ? पाकिस्तान को नई लीक पर चलाने का काम आखिर कौन कर रहा है ? मुशर्रफ के साथ अमेरिका की सांठ-गांठ तात्कालिक है| उसका स्थायी हित तो भारत के साथ ही सधेगा| उसका जो रिश्ता भारत के साथ गठ सकता है, किसी के साथ नहीं गठेगा, क्योंकि एक तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र् है, दूसरा, चीन के बाद वह एशिया का सबसे बड़ा बाज़ार है, तीसरा, भारतीय भद्रलोक में जैसी गुलाम मानसिकता की परंपरा है, किसी अन्य देश में नहीं है, चौथा, अब भारत-रूस की अघोषित गुटबाजी खत्म हो चुकी है और एशिया में चीन के मुकाबले भारत को अपना मोहरा बनाया जा सकता है तथा छठा, भारत के न चाहने पर भी जब दूसरी महाशक्तियाँ उसके पड़ौसियों से सांठ-गांठ करती रहती हैं, जैसे चीन पाकिस्तान से और नॉर्वे श्रीलंका से तो भारत, अमेरिका से खुद आगे बढ़कर सांठ-गांठ क्यों नहीं करता ? अन्य महाशक्तियों को दक्षिण एशिया में घुसने से रोकने में भी अमेरिका भारत की मदद करेगा| सातवाँ, आतंकवाद-विरोध की बहती हुई अमेरिकी गंगा में भारत डुबकी क्यों नहीं लगता ? अब तक वह 70 हजार लोग और 45 हजार करोड़ रू0 खो चुका है| आतंकवाद खत्म होगा तो न केवल प्रचुर धनराशि बचेगी बल्कि अमेरिका से अपूर्व आर्थिक सहायता भी मिलेगी, जो दक्षिण एशिया को हरा-भरा कर देगी|
कितने मोहक, मादक और मारक तर्क हैं, ये| इन पर कौन फिदा न हो जाएगा ? इन पर कौन फिसल न जाएगा ? कुछ हद तक तो हम फिसल चुके हैं| वरना एन0एम0डी0 (राष्ट्रीय प्रक्षेपास्त्र् सुरक्षा) जैसी अमेरिकी योजना का हम तत्काल समर्थन क्यों करते ? अमेरिका की सुरक्षा की इस स्वार्थी योजना का रूस, चीन और फ्राँस ने ही नहीं, अनेक अन्य यूरोपीय देशों ने भी विरोध किया है लेकिन भारत ने समर्थन किया, जिसके कारण अमेरिका की बाँछंें खिल गइंर्| इसी प्रकार पर्यावरण के क्योतो प्रोटोकॉल पर भी भारत ने अपनी जुबान को फिसलने दिया है| भारत की इस हकलाहट पर अमेरिका को बहुत प्यार आ रहा है| जब अमेरिका ने अल-कायदा पर हमले की घोषणा की तो भारत ने पाकिस्तान से भी पहले सम्पूर्ण सहयोग की बाँग लगा दी और अब अमेरिका के रखैला जनरल मुशर्रफ को भी भारत केवल दूर से मुक्का दिखा रहा है ताकि अमेरिका नाराज़ न हो और भारत की जनता के क्रोध को भी थोड़ी गली-सी मिल जाए|
इसमें शक नहीं कि काबुल से तालिबान को अपदस्थ करके अमेरिका ने दक्षिण एशिया में अंगद का पाँव गाड़ दिया है लेकिन अभी तो खुद अफगानिस्तान ही खदबदा रहा है| यदि काबुल सरकार नहीं चल पाई तो अफगानिस्तान अमेरिका की इज्ज़त का कब्रगाह बन जाएगा| न केवल अमेरिकी सिपाही बड़ी संख्या में वहाँ मारे जाएँगे बल्कि सारे एशिया में अमेरिकी छवि चूर-चूर हो जाएगी| जब अमेरिकी सिपाहियों की शव-पेटिकाएँ वाशिंगटन लौटेंगी तो सारे अमेरिका में हड़कम्प मच जाएगा और जैसे दर्जन भर सिपाहियों के मरने पर सोमालिया से अमेरिकी फौजें भाग खड़ी हुई थीं, वैसे ही अफगानिस्तान से भी भागने लगेंगी तो क्या आश्चर्य होगा| अफगानिस्तान में पश्चिमी देशों के गोरे जवानों को तैनात करने की जो भूल अमेरिका कर रहा है, उसका खामियाज़ा उसे भुगतना ही पड़ेगा| यदि अफगानिस्तान में अस्थिरता फैलेगी तो ईरान, रूस और भारत चुप नहीं बैठेंगे| वे अमेरिका का साथ नहीं दे पाएँगे| इन पड़ौसी राष्ट्रों और अन्दरूनी अफगान तत्वों के समीकरण बदलेंगे| एक तरफ अमेरिका और पाकिस्तान होंगे और दूसरी तरफ अन्य पड़ौसी राष्ट्र !
यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि अमेरिका इसलिए मुशर्रफ का साथ दे रहा है कि वह आतंकवाद को जड़मूल से उखाड़ने के लिए कटिबद्घ है| वास्तव में मुशर्रफ को स्वामिभक्ति के बदले मलाईदार टोस्ट के कुछ टुकड़े प्राप्त हो रहे हैं, जिनका इस्तेमाल सैनिक तानाशाही को बरकरार रखने और भारत-विरोधी आतंकवाद पर पर्दा डाले रखने के लिए किया जा रहा है| तालिबानी आतंकवाद से कहीं अधिक खतरनाक पाकिस्तानी आतंकवाद है| वह सारी दुनिया के आतंकवाद की जड़ है लेकिन अमेरिका उस पर कोई सीधा प्रहार नहीं कर रहा है बल्कि उसकी सैन्य उपस्थिति के कारण भारत के दिल में झिझक पैदा हो गई है| वरना 13 दिसंबर के दिन स्वयं भारत आतंक की जड़ पर प्रहार कर सकता था| याने हर पड़ौसी देश में कोई भी कार्रवाई करते समय अब भारत को झिझकना पड़ेगा| जिसे हम ‘इंदिरा सिद्घांत’ के नाम से जानते हैं याने पड़ौसी देशों में उचित हस्तक्षेप का सिद्घांत, उसे अब हमें शीर्षासन कराना होगा| यदि कल पाकिस्तान विखंडित होने लगे और लाखों शरणार्थी भागकर भारत आने लगें तो अमेरिका की मज़ीर् के बिना भारत कुछ नहीं कर सकेगा| दूसरे शब्दों में दक्षिण एशिया में अब ‘इंदिरा सिद्घांत’ की जगह ‘मुनरो सिद्घांत’ चलेगा| याने भारत अपने ही घर में किरायेदार होकर रहेगा|
अमेरिकी नीति-निर्माता और उनके भारतीय समर्थक यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि मध्य और दक्षिण एशियाई देशों में अमेरिका की उपस्थिति स्थिरता और शांति का कारण बनने की बजाय गहन असंतोष और बगावत का कारण बनेगी| अभी अकेले ईरान को ही राष्ट्रपति बुश ‘बुराई की जड़’ कह रहे हैं| कुछ वर्षों में यह जड़ अन्य देशों में भी फैल जाएगी| यह ठीक है कि अमेरिका इस समय विश्व की एक मात्र् महत्तम शक्ति है लेकिन अपनी इस हैसियत का इस्तेमाल यदि वह इन राष्ट्रों की स्वाभाविक राजनीतिक प्रतिकि्रयाओं में हस्तक्षेप के लिए करेगा, जैसा कि वह हमेशा करता है तो वह घृणा का केंद्र बन जाएगा| मानो पाकिस्तान के लोग लोकतंत्र् लाना चाहें और अमेरिका मुशर्रफ को डटाए रखे तो क्या होगा ? बम बरसाकर तालिबान को भगाना आसान है लेकिन करोड़ों आम आदमियों को अमेरिका कहाँ भगाएगा ?
दक्षिण एशिया में अमेरिका अपने हितों की रक्षा करेगा या भारत के हितों की ? भारत के लिए वह चीन या पाकिस्तान से क्यों लड़ेगा ? मध्य एशियाई तेल और गैस में अमेरिका की अत्यंत गहरी रूचि है| यदि पाकिस्तान का भारत से झगड़ा जारी रहे और भारत तथा अमेरिका में गहरी दोस्ती न हो तो भी अमेरिका को क्या नुकसान है ? उसे मध्य-एशिया की खनिज सम्पदा को अफगानिस्तान और पाकिस्तान के जरिए कराची और ग्वादर तक पहुँचने के सीधे और सस्ते रास्ते मिल जाएँगे| उस मुनाफे का इस्तेमाल अफगान-खर्च को भुगताने में भी होता रहेगा| इस गणित में भारत का क्या काम है ?
इसीलिए भारत को विचार करना होगा कि वह खुद को अमेरिका के हवाले करे या न करे| घनिष्ट संबंध बनाना एक बात है और गतानुगतिक बनना बिल्कुल दूसरी बात| एक तरफ भारत महाशक्ति बनना चाहता है और दूसरी तरफ वह अपने ही घर में सिकुड़कर बैठ जाए, यह कैसे संभव है|
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