R Sahar, 23 Oct 2002 : मतवाद में फँसा आदमी कितना मतवाला हो जाता है, इसका प्रमाण हैं, प्रवीण तोगडि़या, जिन्होंने ‘इटली नी कूतरी’ शब्द का प्रयोग किया| अच्छा हुआ कि अंग्रेजी अखबार गुजराती नहीं जानते | वे इसका अनुवाद ‘इटली का कुत्ता’ कर रहे हैं| यह गलत अनुवाद उतना घातक नहीं है, जितना कि सही अनुवाद होता| अनुवाद सही हो या गलत, ‘कुत्ता’ शब्द भारत में जितना गंदा माना जाता है, यूरोप और अमेरिका में नहीं माना जाता| वहाँ सांसदों को लोकतंत्र के रक्षक-कुत्ते (वॉचडॉग) कहा जाता है और हाउस ऑफ लार्डस्र के सदस्यों को अनेक संविधानशास्त्रिायों ने ‘पालतू कुत्ते (पूडल) की संज्ञा दी है| ‘कुत्ते भौंकते हैं’, इस मुहावरे का प्रयोग भी पश्चिम में प्राय: होता है| काँग्रेसियों ने राम जेठमलानी के लिए इस मुहावरे का जमकर प्रयोग किया था| जाहिर है कि तोगडि़या ने भी ‘कुत्ता’ शब्द का प्रयोग मुहावरेदारी के रूप में किया होगा लेकिन जिस तरह से इस मुहावरेदारी की तान टूटी है, वह बहुत ही शर्मनाक हादसा है| अब विश्व हिंदू परिषद्र के नेता चाहे यह कहें कि तोगडि़या ने सोनिया का नाम नहीं लिया, लेकिन ‘कूतरी’ शब्द का प्रयोग करने के बाद भी नाम लेने की जरूरत रह गई थी, क्या ? सोनिया गाँधी से किसी को कितनी ही चिढ़ हो, यह कैसे भूला जा सकता है कि वे भारत की एक महान पार्टी की अध्यक्ष हैं, वे विपक्ष की नेता हैं, वे सच्चरित्र महिला हैं| वे विदेशी मूल की हैं, इसलिए हमारे लिए और भी अधिक सम्मानीय हैं, खास तौर से एक व्यक्ति के रूप में| सोनिया के लिए क्या हमें ऐसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए कि उनके मन में यह भाव उत्पन्न होने लगे कि ‘ मैं इतने असभ्य लोगों के देश में क्यों ब्याही’ ? ‘मैं भारत की नागरिक क्यों बनी’, “भारत का सार्वजनिक जीवन इतना गंदा है तो इसमें कोई सभ्य महिला क्यों प्रवेेश करे ?” यदि विश्व हिंदू परिषद्र के लोग सचमुच भारत से और उसकी संस्कृति से प्रेम करते हैं तो उन्हें अपने शब्द-प्रयोग पर विशेष ध्यान देना होगा| जिस तरह के शब्द का प्रयोग तोगडि़या ने किया है, क्या उससे सोनिया की इज्ज़त घटी है ? सोनिया की इज्ज़त तो ज्यों की त्यों है लेकिन विहिप, हिंदुत्व और भारत – तीनों की इज़्ज़त बुरी तरह से पिटपिटा गई है| अच्छा होता कि तोगडि़या खुद जाकर सोनिया से माँफी मांगते और कान पकड़कर कहते कि ‘अब लौं नसानी, अब नसैंहों|’ तोगडि़या से जो गलती हुई है, उसका नतीजा यह है कि जो लोग सोनिया के प्रधानमंत्री या कांग्रेस अध्यक्ष बनने के विरुद्घ हैं, वे भी सोनिया के पक्ष में बोल रहे हैं|
आश्चर्य यह है कि अपनी मर्यादा के लिए विख्यात अटलजी भी मौन साधे हुए हैं| शायद इसका कारण यह भी हो सकता है कि वे नया मोर्चा नहीं खोलना चाहते हों| विहिप और संघ आजकल उन पर भी जमकर मेहरबान हो रहा है| कभी बाल ठाकरे, कभी अशोक सिंहल और कभी दत्तोपंत थेंगड़ी उनकी धोती ढीली करने में लगे रहते हैं| यदि वे तोगडि़या को डाँट-डपट दें तो हो सकता है कि समस्त विघ्नसंतोषियों का संयुक्त हमला उन पर ही हो जाए| यह भाजपा के शीर्ष नेतागण को सोचना है कि वे अपने बचाव की खातिर क्या राजनीतिक शिष्टाचार की बलि चढ़ा देंगे ? यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि ज्योति बसु ने हिन्दुत्ववादियों को हत्यारा या अपराधी कहा था, सोनिया ने गुजरात को गोड़सेवादी कहा था और कम्युनिस्ट नेतागण भाजपाइयों को नाजी़वादी और फासीवादी कहते हैं, इसलिए हिन्दुत्ववादियों को यह अधिकार मिल गया है कि वे विरोधी नेताओं या अल्पसंख्यकों या दलितों के बारे में कुछ भी बोल दें| हरयाणा के दलितों के बारे आचार्य गिरिराज किशोर ने जो कुछ कहा, शब्दश: वह गलत नहीं है याने गाय की जिंदगी का भारत में बहुत महत्त्व है लेकिन इन शब्दों का अर्थ कितना भयंकर है ? अर्थ स्पष्ट है| वह यह कि जिन पाँच दलितों की हत्या हुई है, वह कोई ध्यान देने योग्य बात नहीं है| इससे अधिक मानवीय जड़ता और निर्ममता क्या हो सकती है| पहले तो यही पता नहीं कि गोहत्या हुई है या नहीं हुई है| और अब रामबिलास पासवान कह रहे हैं कि उन दलितों की हत्या किसी भीड़ ने नहीं, रिश्वतकामी पुलिसवालों ने की है| वे दलित कसाई नहीं थे| वे केवल मृत पशुओं का चमड़ा उतारने का काम करते थे| याने सारा प्रकरण अभी प्रश्न-चिन्हों के कुहासे में ढँका हुआ है और गिरिराज किशोर ने अपना बाण चला दिया| सिर्फ एक ही तथ्य निर्विवाद है कि पाँच दलितों की हत्या हुई है| इस घृणित तथ्य पर सम्पूर्ण राष्ट्र की एक ही प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी| इस हत्याकांड पर आँसू बहाने के लिए न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकार का कोई नेता उन दलितों के घर पहुँचा और न ही उन्होंने कोई वैसी मुस्तैदी दिखाई जैसी कि अक्षरधाम में दिखाई थी| अक्षरधाम का दुश्मन तो बाहरी था, यह दुश्मन तो अन्दरूनी है| यह ठीक है कि गोरक्षा परम धर्म है लेकिन अगर किसी स्वार्थ या अज्ञान या आवेश या अविवेक के कारण किसी दलित से गाय की हत्या हो भी गई तो क्या उसकी सजा वही होगी, जो उन्हें दी गई है ? ऐसी सजा की अनुमति तो हिन्दू शास्त्र भी नहीं देते| यदि कोई सजा दी जानी है तो भी भीड़ या पुलिसवाले कौन होते हैं, इस तरह की सजा देनेवाले ? यदि अपराधिायों को भीड़ के हवाले ही करना है तो न्यायालयों की क्या जरूरत है ? हरयाणा में जो हुआ, वह गुजरात की पुनरावृत्ति है| राज्य नामक संस्था कितनी अकर्मण्य होती जा रही है, इसका प्रमाण पहले गुजरात में मिला और अब हरयाणा में मिल रहा है| राज्य हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे और भीड़ लोगों को न्याय बाँटती फिरे, इससे बढ़कर अराजकता क्या हो सकती है| यह मामला दलित और अ-दलित का, मुसलमान और हिन्दू का, सवर्ण और अ-वर्ण का नहीं है, राजधर्म का है| राजा का धर्म क्या है ? सबकी रक्षा ही उसका धर्म है| गोधरा में हिन्दू मारे जाएँ, अहमदाबाद में मुसलमान और हरयाणा में दलित, यह सब एक ही प्रपंच है| तीनों जगह राजधर्म की एक-जैसी अवहेलना हुई है|
राजधर्म की मर्यादा का पालन सभी राजनीतिक दल करें, यह जरूरी है| राजधर्म की मर्यादा सभी धर्मों की मर्यादा से ऊपर हो, यह भी जरूरी है| सभी धर्म याने दलधर्म, संगठनधर्म, व्यक्तिगत धर्म आदि| जब सभी राजनीतिक दल और अन्य संगठन संविधान को समान रूप से सर्वोपरि मानते हैं और लोकतांत्र्िाक व्यवस्था को स्वीकार करते हैं तो उन्हें मतवाद में फँसकर न तो ऐसा कुछ बोलना चाहिए और न ऐसा कुछ करना चाहिए कि लोग कहने लगें कि इनकी मति ही मारी गई है| यों भी मतवादी राजनीति के दिन लद गए हैं| वे दिन गए, जब स्तालिनकालीन साम्यवादी बुद्घिजीवी गाँधी और नेहरू को ‘साम्राज्यवाद के कुलबुलाते हुए कुत्ते’ कहा करते थे और राष्ट्रवादी नेतागण कम्युनिस्टों को ‘रूस और चीन के टट्टू’ कहकर चिढ़ाया करते थे| इसका मतलब यह नहीं कि भारत की राजनीति बिल्कुल बनिए की दुकान बन गई है| सैद्घांतिक और वैचारिक मतभेदों के लिए अब भी बहुत जगह है लेकिन इस जगह का इस्तेमाल कैसे हो, इस बारे में आम राय कायम करना जरूरी है| ऐसा नहीं है कि भारत इस आम राय के बिना ही चल रहा है| यह आम राय बनी हुई है लेकिन इसका पालन सिर्फ संसद में ही होता दिखाई पड़ता है| संसद में अनेक शब्दों का प्रयोग किया ही नहीं जा सकता| यदि कोई सांसद कर भी दे तो या तो उसे वह शब्द वापस लेना पड़ता है या उसे ‘कार्रवाई’ से निकाल दिया जाता है| संसद की यह मर्यादा सड़क पर क्यों नहीं दिखाई देती ? सड़क पर वह पूरी तरह दिखाई दे, यह असंभव ही है लेकिन उसे वहाँ तक लाने का प्रयत्न तो किया ही जा सकता है| इस मामले में सबसे पहली पहल तो प्रचारतंत्र को करनी होगी| अगर अखबार और टी. वी. चैनल यह तय कर लें कि किसी भी सभा या पत्रकार परिषद्र में यदि कोई नेता असंसदीय शब्द का प्रयोग करता है तो उसे प्रचारित नहीं किया जाएगा बल्कि उस संपूर्ण भाषण और बयान को ही रद्द कर दिया जाएगा तो नेताओं को अपने आप सबक मिलेगा| इस तरह के अमर्यादित विचारों से बड़े पैमाने पर जो कटुता फैलती है, वह भी नहीं फैलेगी| उनकी खबर को रद्द करने के साथ-साथ उसके कारण का भी संकेत कर दिया जाए तो अमर्यादित नेताओं की छवि अपने आप गिरती चली जाएगी|
इसका लक्ष्य यह नहीं कि भारतीय राजनीति का आँगन ही सूना हो जाए| पक्ष-प्रतिपक्ष, वाद – प्रतिवाद, आरोप-प्रत्यारोप, आक्रमण-प्रत्याक्रमण, तर्क-वितर्क के बिना राजनीति का मजा ही क्या है? यह मजा इसलिए भी भंग हो रहा है कि राजनीति की उक्त सभी भंगिमाएं मंद पड़ती जा रही हैं| कुर्सी की ललक और पैसे की धमक ने सभी नेताओं और दलों को लील लिया है| मुद्दों पर बहस करना अब कोई दल पसंद नहीं करता| इसीलिए व्यक्तियों पर प्रहार होते हैं| कौनसा दल कब कौनसा मुद्दा पकड़ लेगा और कौनसा नेता कब किस दिल के साथ नत्थी हो जाएगा, कुछ पता नहीं चलता| विनिवेश के सवाल पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, कम्युनिस्ट पार्टियां और लोहिया के शिष्य जॉर्ज फर्नांडीस एक ही हम्माम में नहा रहे हैं जबकि भाजपा, काँग्रेस और अन्य दल दूसरे घाट पर एक साथ अपने कपड़े धो रहे हैं| भाजपा और बसपा तथा काँग्रेस और समाजवादी पार्टी का प्रेमालाप कल तक हास्यास्पद और अकल्पनीय था, आज वह यथार्थ है और काम्य है| भारतीय राजनीति के इस गड्रड-मड्रड दौर में हताशा, विभ्रम और झुँँझलाहट के कारण कुछ नेताओं की रेल पटरी से उतर जाए, यह स्वाभाविक ही है लेकिन यह देखना राज्य का कर्तव्य है कि राजनीति का कोई भी खिलाड़ी राजधर्म का उल्लंघन न कर पाए|
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