R Sahara, 23 March 2003 : 21 मार्च को हर साल अफगानिस्तान में ‘नवराज’ (नया साल) मनाया जाता है| यह वास्तव में पारसियों का त्यौहार है| महात्मा जरथुष्ट्र के ज़माने से चला आ रहा है| नवरोज़ मतलब नया दिन| भारतीय त्यौहारों की तरह मज़जब से इसका कुछ लेना देना नहीं है लेकिन मौसम से है| आज से वास्तव में यहॉं मौसम बदल रहा है| सर्दी और बरसात की मार हल्की पड़ गई है| दिन भर स्वेटर और शेरवानी लादे रखने का मन नहीं करता| सुबह-सुबह रजाई छोड़ते ही हीटर चलाने का मन नहीं हुआ| सूरज जरा तेज़ चमक रहा है| पद्यमान की पहाडि़यों पर जमी बर्फ की चादर के कारण दिन ज्यादा रोशन मालूम पड़ता है| सभी लोग नए-नए कपड़े पहनते हैं और सुबह ‘हफ्त मेवा’ याने सात मेवों को पानी में गलाकर खाते हैं| कटोरे में भरे सात प्रकार के मेवे इंद्रधनुषी छटा बिखेरते हैं| आज सारा अफगानिस्तान छुट्टी मना रहा है| कोई भी महत्वपूर्ण व्यक्ति काबुल में नहीं है| पूर्व बादशाह ज़ाहिरशाह मज़ारे-शरीफ गए हैं, पूर्व राष्ट्रपति प्रो. बुरहानुद्दीन रब्बानी पंजशेर घाटी में अहमदशाह मसूद की समाधि पर जलसा करने गए हैं| मैं भी इन दोनों निमंत्रणों को छोड़कर (क्योंकि ये देर से आए) अपने मित्रों के साथ जबल सिराज़ और सालंग दर्रा देखने गया| रात को लौटा तो मालूम पड़ा कि राष्ट्रपति हामिद करज़ई काबुल में ही थे| वे पूर्वान्ह में मिलना चाहते थे लेकिन तब तक हम अहमदशाह मसूद के उस घर पर पहुंच चुके थे, जहा| से उन्होंने जबर्दस्त छापामार युद्घ चलाया था और सोवियत संघ का गला घोंट दिया था| मसूद का विदेश मंत्रालय भी देखा, जो सालंग दर्रे के मुहाने पर एक झोपड़ानुमा मकान में था और वह जेल भी देखी, जिसमें उन्होंने तालिबॉं और पाकिस्तानियों को पकड़कर (अमेरिकी कार्रवाई) के पहले बंद कर दिया था| 80 कि.मी. के पूरे रास्ते में मसूद के बड़े-बड़े चित्र लगे हुए थे| उनकी हत्या 9 सितंबर 2001 को हुई याने ट्रेड टॉवर के दो दिन पहले| 49 वर्ष के मसूद अब राष्ट्रीय महानायक बन चुके हैं| उनकी गणना विश्व के महान छापामार योद्घाओं में होने लगी है|
मसूद के छोटे भाई अहमद वली मसूद यों तो लंदन में अफगानिस्तान के राजदूत हैं, लेकिन अपना ज्यादा समय काबुल में ही बिताते हैं| उनसे तीन साल पहले लंदन में ही परिचय हुआ था| 40 वर्षीय वली मसूद अफगान राजनीति की मजबूत धुरी हैं| हालांकि उन्होंने अपनी ‘नहज़त-ए-मिल्ली’ पार्टी से अपना सरोकार एकदम कम कर दिया है लेकिन ‘मसूद फाउंडेशन’ को शक्ति और सेवा का केंद्र बना दिया है| इस संस्था को संसार के हर कोने से करोड़ों रु. का अनुदान मिल रहा है| यह गॉंवों में बिजली, पानी, भोजन, मकान आदि का इंतज़ाम कर रही है| मसूद चाहते हैं कि काबुल में एक सेसे अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करें, जो सारे एशिया में विद्या का केंद्र बन जाए| वली मसूद इस क्षेत्र की राजनीति पर भी गहरा असर डालना चाहते हैं, जो अंततोगत्वा भारत के लिए बहुत फायदेमंद हो सकती है| उनसे कल लगभग चार घंटे बात हुइ| राजनीति से बाहर रहते हुए भी उनका इतना असर है कि यदि वे लोया जिरगा के 800 सदस्यों का समर्थन-पत्र नहीं देते तो हामिद करज़ई राष्ट्रपति नहीं बन पाते| वली मसूद जब मुझसे बात कर हरे थे तो उस समय अनेक मंत्री उनके दूसरे कमरे में इंतजार कर रहे थे| विदेश मंत्री डॉ. अब्दुल्ला दो बार अंदर आए लेकिन हमें बात करता देख वापस चले गए| वली मसूद मानते हैं कि जैसे पूर्व बादशाह जाहिरशाह अफगानिस्तान में एकता की कड़ी हैं, वैसे ही उनके भाई मसूद को भी एकता की नई कड़ी बनाया जा सकता है|
पूर्व-बाहदशाह जाहिरशाह आजकल काबुल में ही हैं| उनकी आयु अब 90 को छू रही है| अपने राजमहल में ही रहते हैं| लगभग 40 साल तक उन्होंने अफगानिस्तान पर राज किया है| इतना लम्बा राज एशिया में शायद किसी भी बादशाह का नहीं रहा| लगभग 30 साल का बनवास (रोम में) भुगतने के बाद वे वापस लौटे हैं| उन्हें राष्ट्रपिता (बाबा-ए-कौम) का रुतबा दिया गया है| उनसे मेरी भेंट 34 साल बाद हुई| इस बीच मैं उनसे मिलने दो बार रोम भी गया था लेकिन एक बार उन्हें अचानक बाहर जाना पड़ा और दूसरी बार वे सख्त बीमार थे| उनकी बेटी राजकुमारी मरियम और उनके पति अजीज़ नईम मेरे घनिष्ट मित्र रहे हैं| इस भेंट के दौरान सबसे छोटे राजकुमार मीर वाइज़ और सबसे बड़े पोते मुस्तफा भी साथ थे| लगभग घंटे भर की भेंट में जाहिरशाह बराबर बोलते रहे| भारत के प्रति उनका प्रेम उनके मुख से टपका पड़ रहा था| उनके पिता, चाचा, ताऊ सभी देहरादून में पैदा हुए थे| उन्होंने बताया कि उनके पिता नादिरशाह फारसी से बेहतर हिन्दी बोलते थे| जाहिरशाह को भारत आए 40 साल से ज्यादा हो गए| वे भारत आना चाहते हैं| देहरादून, ताजमहल और बंबई की फिल्मी दुनिया देखना चाहते हैं| उन्होंने अफगानिस्तान पर लिखी मेरी ताज़ा किताब के चित्र देखे तो पुरानी यादों में डूब गए| उन्होंने मेरे साथ जो बर्ताव किया, वह आशातीत था| जब फोटो खिंचाने की बारी आई तो उन्होंने मुझसे कहा कि आप खड़े मत रहिए, मेरे सोफे के हत्थे पर बैठ जाइए| आप में और मरियमजान में क्या
फर्क है? उनके पोते मुस्तफा (38 साल) बेहद सुंदर और सुशिक्षित व्यक्ति हैं| आजकल इटली में राजदूत हैं लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में विशेष भूमिका अदा करना चाहते हैं|
पि्रंस मुस्तफा यों तो हैं, राजदूत, किसी भी अन्य राजदूत की तरह लेकिन पूर्व राष्ट्रपति रब्बानी की दावत में उन्हें बैठने का ऊॅंचा स्थान मिला था| अफगान राजदूतों के काबुल सम्मेलन के बाद रब्बानी ने सभी राजदूतों को संबोधित किया था| रब्बानी साहब लगभग 10 साल तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति रह चुके हैं| वे काबुल वि.वि. में 35 साल पहले इस्लामी कानून पढ़ाते थे और मैं उस समय राजनीतिशास्त्र विभाग में शोध-कार्य कर रहा था| यद्यपि 1996 में तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया था लेकिन संयुक्तराष्ट्र, भारत, अमेरिका आदि सभी प्रमुख देश रब्बानी सरकार को ही वैध सरकार मानते रहे| बर्लिन की लोया जिरगा में रब्बानी के बजाय हामिद करजई को राष्ट्रपति घोषित कर दिया गया| रब्बानी के लिए यह धक्का था| उनके अपने शिष्यों, फहीम (रक्षामंत्री), अब्दुल्ला (विदेश मंत्री), क़ानूनी (शिक्षा मंत्री) ने उनका साथ नहीं दिया| वे सरकार में नहीं हैं लेकिन उनका यहॉं बड़ा रुतबा है| उनकी पार्टी ‘जमीयत-ए-इस्लामी’ सबसे मजबूत पार्टी है| यदि अगल साल निष्पक्ष चुनाव हुए तो वे फिर राष्ट्रपति बन सकते हैं| रब्बानी ताजिक हैं, विद्वान हैं और बड़े मित्र-वत्सल हैं| पिछले 25 वर्षों में उनके साथ पेशावर में कई बार लंबी भेंटें और भोजन आदि हुए हैं| काबुल पहुंचते ही सबसे पहले उनसे ही भेंट हुई| वे भी भारत आना चाहते हैं|
Leave a Reply