नवभारत टाइम्स, 2 मार्च 2002 : श्री हामिद करज़ई की भारत-यात्र जितनी फ़ीकी रही, उतनी फीकी शायद किसी भी राज्याध्यक्ष की नहीं रही| कोई राज्याध्यक्ष पहली बार भारत आए और अखबारों के मुखपृष्ठों पर उसके चित्र् न छपें, संपादकीय न लिखे जाएँ और खबरें भी कोने में दुबकी रहें तो क्या कहा जाएगा ? यही न, कि यात्र विफल हो गई| यदि यह यात्र सचमुच विफल रहती तो वह बड़ी खबर बनती| यह यात्र विफल नहीं हुई बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि यह विचित्र् संयोगों में उलझ गई| इसीलिए उस पर प्रचारतंत्र् का ध्यान नहीं गया| जिस दिन करज़ई आए, रेल-बजट पेश हुआ और जिस दिन गए गोधरा में हत्याकांड हो गया और उनके जाने के दूसरे दिन मुख्य बजट आ गया| इस बीच बि्रटिश विदेश मंत्र्ी भी भारत आकर चले गए| ऐसी स्थिति में करज़ई की यात्र का सुप्रचारित नहीं होना स्वाभाविक था| यों भी करज़ई अफगानिस्तान के अन्तरिम राज्याध्यक्ष हैं| 22 मई को छह माह पूरे होंगे और उनका कार्यकाल समाप्त हो जाएगा| उसके पहले पूर्व बादशाह ज़ाहिरशाह की देख-रेख में लोया जिरगा (पारम्परिक महासंसद) समवेत होगी और वह तय करेगी कि अगले डेढ़ साल तक लड़खड़ाते अफगानिस्तान की उंगली पकड़कर उसे पुनर्निर्माण के पथ पर कौन चलाएगा !
श्री करज़ई शिमला में पढ़े हैं| भारत में रहे हैं| इस दृष्टि से उनकी भारत-यात्र में जो गर्मजोशी दिखाई पड़नी चाहिए थी, वह भी दिखाई नहीं पड़ी| यद्यपि हमारे नौकरशाहों की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि करज़ई को खुश करने के लिए उन्होंने शिमला से उनके उन अध्यापकों को भी बुलवाया, जो उन्हें राजनीतिशास्त्र् पढ़ाते थे लेकिन प्रधानमंत्र्ी वाजपेयी द्वारा हैदराबाद हाउस में दिए गए मध्यान्ह-भोज में सारी चमक-दमक के बावजूद अजीब-सा ठंडापन और फीकापन था| पिछले पैंतीस साल में आयोजित प्रत्येक अफगान राज्याध्यक्ष के राज-भोज का मैं साक्षी रहा हूँ लेकिन किसी भी राज-भोज में दोनों ओर से इतने संक्षिप्त, नीरस और यांत्र्िक भाषण नहीं हुए, जैसे कि इस राजभोज में हुए| हमारे प्रधानमंत्र्ी ने अपने अंग्रेजी भाषण में अपनी हिन्दी कविता जड़कर उसे सरस बनाने की कोशिश अवश्य की लेकिन भारत-अफगान संबंधों के बारे में हमारे अफसरों का सतही ज्ञान प्रधानमंत्र्ी के भाषण की सतह पर तेल की परत की तरह जमा हुआ था| करज़ई के जवाबी भाषण का स्तर भी वही रहा, जो हमारे प्रधानमंत्र्ी का था| जैसे को तैसा मिला|
लेकिन इस आधार पर यह मान लेना ठीक-नहीं होगा कि करज़ई की भारत-यात्र विफल हो गई| नेतागण बात करना नहीं जानते, इसका मतलब यह नहीं कि वे काम करना भी नहीं जानते| पिछले दो माह में अफगानिस्तान के लिए भारत ने जो कुछ किया, वह कम नहीं है| काबुल में अपना दूतावास दुबारा स्थापित करनेवाले देशों में भारत का नाम अग्रणी है| हमारा दूतावास शहरे-नव के बीचोबीच है और राजदूत का घर रेडियो स्टेशन के सामने ! दोनों ही उजड़े पड़े थे लेकिन हमारे साहसी और अध्यवसायी कूटनीतिज्ञों ने एक होटल के टूटे-फूटे कमरों में अपना डेरा जमाया और दिसंबर-जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में ही भारतीय दूतावास दुबारा खोल दिया| अब भी जो नए राजदूत जा रहे हैं, वे किसी किराए के मकान में रहेंगे और अपना काम चलाएँगे| इसके विपरीत पाकिस्तान जैसे पड़ौसी देश का दूतावास अभी तक उतना सकि्रय नहीं हुआ है| 22 दिसंबर को नई अंतरिम सरकार के शपथ-ग्रहण में हमारे विदेश मंत्र्ी श्री जसवंत सिंह का काबुल में उपस्थित होना भी उल्लेखनीय घटना थी| उनके पहले किसी भी अफगान प्रधानमंत्र्ी या राष्ट्रपति के शपथ-ग्रहण में भारत का कोई भी मंत्र्ी काबुल नहीं गया| वर्तमान अफगानिस्तान में भारत के प्रति शत्र्ुतापूर्ण भाव का अभाव इसलिए भी है कि उसकी सरकार पर अभी उस्ताद बुरहानुद्दीन रब्बानी की पार्टी का वर्चस्व है| रब्बानी अपने शासन के अंतिम वर्षों में भारत के निकट आ गए थे और पाकिस्तान से दूर हो गए थे| इसके अलावा पाकिस्तान तालिबान का ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी रहा है| तालिबान-विरोधी भावना का लाभ भी भारत को मिल रहा है|
यद्यपि भारत दुनिया के मालदार देशों की तरह अफगानिस्तान को करोड़ों-अरबों डॉलर देने की घोषणा नहीं कर रहा है लेकिन तालिबान के भागने के पहले ही उसने दस करोड़ रूपए देने की घोषणा कर दी थी| इस दस करोड़ की राशि का भुगतान किस तरह होगा, यह अभी पता नहीं चला है| यह ऊँट के मुँह में जीरा है| जहाँ पाँच अरब डॉलर पहुँच रहे हों, वहाँ दस करोड़ रूपए की क्या कीमत है ? लेकिन भारत ने इधर अफगानों की जेब भरने की बजाय दिल भरने का काम किया है| काबुल स्थित इंदिरा गाँधी अस्पताल में हमारे डॉक्टरों ने सैकड़ों अपंग अफगानों को ‘जयपुर पाँव’ लगाकर जो प्रशंसनीय कार्य किया है, वह कई पीढि़यों तक साभार याद किया जाएगा| अब भी हजारों अफगानों को कृत्र्िम अंगों की जरूरत है| यदि भारतीय डॉक्टर काबुल के अलावा कन्धार, कुन्दूज, मज़ार, हेरात और लश्करगाह जैसे इलाकों में जा बैठें तो वे अफगान-राष्ट्र के साथ सच्ची और गहरी मैत्र्ी के राजदूत सिद्घ होंगे| भारत की फिल्मों और गानों ने अफगान दिलों पर फिर से अपनी हुकूमत जमा ली है|
अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत असाधारण भूमिका निभा सकता है| अफगान फौज और पुलिस को प्रशिक्षित करना भारत के लिए जितना सहज है, किसी अन्य देश के लिए नहीं है| भारत और अफगानिस्तान का सामाजिक वातावरण लगभग एक-जैसा है| पुलिस की भूमिका वहाँ भी लगभग समान ही होती है| इसी प्रकार अफगान फौजी लंबे समय से भारत में प्रशिक्षण लेते रहे हैं| यद्यपि तुर्की और ईरान ने अफगान फौज के पुनर्गठन में पहलकदमी की है लेकिन भारत के साथ फौजी सहयोग करना अफगानिस्तान के लिए अधिक फायदेमंद है, क्योंकि अन्य देशों की तरह अफगानिस्तान में भारत का निहित स्वार्थ नहीं है| इसका मतलब यह नहीं कि स्वयं भारतीय फौजें ही अफगानिस्तान में भेज दी जाए| सुरक्षा-परिषद्र ने जो विदेशी सैनिक अफगानिस्तान में अभी तैनात किए हैं, उनमें अफगानिस्तान के पड़ौसी देशों के सैनिकों को जान-बूझकर नहीं रखा गया है, क्योंकि वे उन राष्ट्रों के राजनीतिक उपकरण भी बन सकते हैं| भारतीय फौजों को भी कुछ सोच-समझकर ही बाहर रखा गया है| प्रधानमंत्र्ी वाजपेयी ने अपनी सहज सदाशयता में बहकर चाहे यह कह दिया हो कि यदि काबुल माँगे तो हमें भारतीय सैनिकों को भेजने में कोई आपत्ति नहीं है| लेकिन यह नीति भारत के लिए अहितकर होगी| 1981 में बबरक कारमल ने जब रूसी फौजों की जगह भारतीय फौज भिजवाने का आग्रह किया था तो मैंने उन्हें तत्काल उसके नुकसान बताए और बाद में श्रीमती इंदिरा गाँधी ने भी अधिकारिक तौर पर उन्हें भारत के दृष्टिकोण से अवगत करवा दिया| यह अच्छा हुआ कि हामिद करज़ई ने तुरंत यह कहकर बात टाल दी कि विदेशी फौजों को बुलाने का अधिकार तो सुरक्षा परिषद्र के पास है| उनकी सरकार इस संबंध में खास कुछ नहीं कर सकती|
वस्तुस्थिति यह है कि अफगान फौज का पुनर्निर्माण बिल्कुल घोंघा-गति से हो रहा है| जो नए रंगरूट भर्ती किए जा रहे हैं, उनके लिए वर्दी और वेतन तक उपलब्ध नहीं है| हथियार और प्रशिक्षण तो आगे की बात है| सेना और पुलिस का जो खंड-बंड ढाँचा अभी करज़ई को उपलब्ध है, उसका विदेशी फौजियों से कोई खास ताल-मेल नहीं है| अगर तालमेल होता तो क्या केन्द्रीय मंत्र्ी अब्दुर रहमान की दिन-दहाड़े हत्या हो सकती थी, वह भी जहाज से खींचकर हवाई अड्डे पर ? इसके अलावा चार-पाँच हजार विदेशी फौजी, खासकर गोरे फौजी, अफगानिस्तान को कैसे सँभाल पाएँगे, यह शंका हम दिसंबर से ही व्यक्त करते आ रहे हैं| सिर्फ काबुल ही अफगानिस्तान नहीं है| पिछले दिनों हेरात में इतना दंगा भड़क गया कि खुद करज़ई को वहाँ जाना पड़ा| इसी प्रकार करज़ई-सरकार द्वारा नियुक्त कंधार के राज्यपाल को स्थानीय प्रशासन और लोगों ने लगभग रद्द कर दिया| अन्य इलाकों में जब-तब मारकाट और खून-खराबे का सिलसिला चल पड़ता है| करज़ई-सरकार ने अब्दुर रहमान की हत्या के लिए कुछ ऊँचे अफसरों को जिम्मेदार ठहरा दिया लेकिन हाजियों ने अपने मंत्र्ी की हत्या में जिस दुस्साहस का प्रदर्शन किया है, उससे सिद्घ होता है कि अंतरिम सरकार श्रीविहीन है| काबुल में ही उसका सिक्का नहीं चल रहा तो सारे देश में क्या चलेगा ? जिस अफगानिस्तान में लाखों आदमियों को दो वक़्त का खाना मयस्सर नहीं, वहाँ एक-एक लाख रू0 खर्च करके हज करनेवालों की भीड़ क्या साबित करती है ? यही कि अफगानिस्तान की स्थिति अत्यंत विकट है| अपराधी तत्वों को पैसा, हथियार और गुप्त संगठनों का समर्थन अब भी उपलब्ध है| करज़ई के पास अब यही विकल्प बचा है कि या तो विदेशी फौजियों की संख्या बढ़ाकर 40-50 हजार करवाए या उससे भी बड़ी संख्या में अपनी फौज खड़ी करे| भारत दूसरे काम में मदद कर सकता है, पहले में नहीं| इस काम में भी अभी बाधा यह है कि पाकिस्तान होकर जानेवाले हवाई और थल मार्ग भारत के लिए बंद हैं| भारत-पाक तनाव भारत-अफगान रिश्तों को सीधा प्रभावित कर रहा है|
इस बाधा के बावजूद भारत अफगानिस्तान की काफी सहायता कर सकता है| उसके विदेश मंत्रलय के अफसरों का प्रशिक्षण भारत में शुरू हो चुका है| प्रशासकीय अधिकारी भी अब मसूरी की अकादमी में आएँगे| अफगान छात्र्-छात्रओं को बड़े पैमाने पर छात्र्वृत्तियाँ देकर भारत बुलाया जा सकता है| भारत के विभिन्न विशेषज्ञों को सैकड़ों की संख्या में अफगानिस्तान भेजकर उनके रेडियो, टीवी, अखबारों, प्रशासकीय विभागों, विश्वविद्यालयों और कारखानों को शुरू किया जा सकता है लेकिन यह योजना तभी सफल होगी जबकि पाँच अरब डॉलर की जो थैली करज़ई को तोक्यो में थमाई गई है, उसका मुँह खुलना शुरू हो| शायद अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ज़ाहिरशाह के लौटने और लोया जिरगा के भरने का इंतजार कर रहा है| भारत की भूमिका में भी तब ही चार चाँद लगेंगे| इन बातों से निराश होने की जरूरत नहीं है कि करज़ई पहले पाकिस्तान क्यों गए, भारत क्यों नहीं आए ? यह हम बहुत पहले ही कह चुके हैं कि काबुल में पाकिस्तान को मात करने की कोई कोशिश हमें नहीं करनी चाहिए, खास तौर से तब जबकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों के सिर पर अमेरिका का हाथ है| अगर हम कोशिश करेंगे तो मात खाएँगे| पाकिस्तान को तो अफगानिस्तान खुद ही सँभाल लेगा| हमारा लक्ष्य तो यह हो कि क्षेत्र्ीय महाशक्ति होने के नाते हम अफगानिस्तान में विधेयात्मक काम करते चले जाएँ ताकि अगर पाकिस्तान से हमारे संबंध सहज हो जाएँ तो हमारे लिए मध्य-एशिया के ख्ाज़ानों के मार्ग खुल जाएँ|
Leave a Reply