नवभारत टाइम्स, जुलाई 2002 : अफगान लोया जिरगा (महासंसद) को लेकर लगना था कि हाथी तो निकल गया लेकिन पूँछ अटक कई याने मंत्रिमंडल को लेकर कहीं लोया जिरगा ही भंग न हो जाए, यह डर सबसे ज्यादा अमेरिका को सताने लगा था| वाशिंगटन डी0सी0 में कहा जा रहा था कि बॉन सम्मेलन तो अमेरिका ने पार लगा दिया लेकिन काबुल में उसका बेड़ा गर्क हो सकता है| अमेरिकी प्रतिनिधि को लोया जिरगा के कुछ सदस्यों द्वारा उन्हीं गालियों से सम्बोधित किया जा रहा था, जिनसे कभी सोवियत सैनिकों को किया जाता था लेकिन हफ्ते भर की मशक्कत के बाद हामिद करज़ई सारे चक्र-व्यूह को भेदकर सही सलामत बाहर निकल आए| ऐसा लगता था कि ज़ाहिरशाह के समर्थक, रब्बानी के शिष्यगण, युद्घप्रभुगण आदि सभी विघ्नसंतोषी लोग लोया जिरगा को भंग करवाकर ही दम लेंगे और अल-कायदा तथा तालिबान के हाथ मजबूत करेंगे लेकिन लगता है कि शिमला विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र् पढ़े हुए हामिद करज़ई ने अफगान पहेली को सुलझाने में भारतीय गुरों का इस्तेमाल किया है|
सबसे पहले तो उन्होंने चार उप-राष्ट्रपति बनाए, याने अफगानिस्तान की चारों बड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व हो गया| पठान, ताजि़क, हज़ारा और उज़बेक जाति का प्रतिनिधित्व क्रमश: अब्दुल क़ादिर, मुहम्मद फहीम, करीम खलीली और नेमतुल्लाह शहरानी ने किया| करज़ई ने सबके मुँह में लड्डू रख दिया| इसी प्रकार उन्होंने रब्बानी के शिष्य यूनुस क़नूनी को, जो कि ताजि़क है, गृहमंत्र्ी पद से हटाकर पठानों को खुश किया तो रूठे हुए क़ानूनी को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का लॉलीपॉप देकर पटा लिया| क़ानूनी को गृहमंत्र्ी पद न देने पर कड़ी प्रतिकि्रया हुई थी| काबुल के अनेक पुलिस अफसरों ने बगावत के तेवर अपना लिये थे| स्वयं क़ानूनी शिक्षा मंत्र्ी के पद से संतुष्ट नहीं थे| वे कोई विरोधी दल खड़ा करने का प्रयत्न करने लगे थे लेकिन उन्हें बताया गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद गृहमंत्री के पद से अधिक महत्वपूर्ण है और वे मान गए| इसी प्रकार महिला मामलों की मंत्री का पद उन्होंने सीमा समर से ले लिया, क्योंकि वे बड़बोली थीं और उन्होंने शरीयत के विरुद्घ टिप्पणी कर दी थी| उनका पद हबीबा सुराबी को दिया जा रहा है| स्वास्थ्य मंत्री के पद पर श्रीमती सुहैला सिद्दकी पहले से काम कर रही हैं| कहने का मतलब यह कि हामिद करज़ई ने सभी तबकों का उचित ध्यान रखा है लेकिन वे किसी खास गुट या जाति के दबाव में नहीं आए|
इसका प्रमाण यह भी है कि ज़ाहिरशाह समर्थक लगभग आधा-दर्जन मंत्र्ियों को उन्होंने दरवाज़ा दिखा दिया| उनमें हिदायत अमीन-अर्सला प्रमुख हैं| अमीन-अर्सला केवल ज़ाहिरशाह के ही पि्रय नहीं हैं, वे अमेरिकी सरकार के भी चहेते हैं| वर्ल्ड बैंक का अनुभव और अमेरिकी महिला के पति होने के कारण उनका पव्वा औरों से अधिक भारी थी लेकिन करज़ई के तीव्र प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभर रहे इस पठान को अब कुछ समय तक घर बैठना होगा| करज़ई ने अपने नए मंत्र्िमंडल के लिए जो भी कतर-ब्योंत की है, उसे अमेरिका का समर्थन मिला है| स्वयं ज़ाहिरशाह ने प्रकट तौर पर उसका विरोध नहीं किया है| इसी आधार पर कहा जा सकता है कि करज़ई के नेतृत्व को अफगानिस्तान ने कमोबेश स्वीकार कर लिया है| यह मान लेने के बावजूद इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि अगले डेढ़ साल में करज़ई के विरुद्घ अनेक तत्व सकि्रय हो जाएँगे| डेढ़ साल बाद होनेवाले संसद के चुनावों में रब्बानी की पार्टी ‘शूरा-ए-नज़र’ अपने उम्मीदवार तो खड़े करेंगी ही, पीर गैलानी, हिकमतयार, सय्रयाफ और मुजद्ददी जैसे नेतागण भी मैदान में उतरे बिना नहीं रहेंगे| खतकी और परचमी तत्व भी सकि्रय हो गए हैं| ये सर्वाधिक संगठित पार्टियाँ भी किसी न किसी नाम से अफगान अखाड़े में खम अवश्य ठोकेंगी| अफगानिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री बबरक कारमल के छोटे भाई और पूर्व उप-प्रधानमंत्री महमूद बरयलाई आजकल यूरोप और दक्षिण के परचमियों को एकजुट करने में संलग्न हैं| इसी प्रकार ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ में काम कर रहे ‘अफगान सोशलिस्ट पार्टी’ के अध्यक्ष डॉ0 अमीन वाकमन भी संसदीय राजनीति में कोई भूमिका अदा करने को बेताब हैं| कोई आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तान अपने हितों की रक्षा के लिए शीघ्र ही या तो कोई नया संघटन खड़ा कर देगा या पहले से सकि्रय किसी संगठन को गोद ले लेगा| हामिद करज़ई को इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि स्वस्थ राजनीतिक दलों के बिना संसदीय चुनाव कैसे सम्पन्न करवाए जाएँगे ? यह बहुत संभव है कि वे स्वयं अपना अलग राजनीतिक दल खड़ा कर लें|
बॉन-घोषणा के मुताबिक अगले डेढ़ वर्ष में करज़ई की अन्तरिम सरकार को-तीन प्रमुख कार्य करने हैं| एक तो संविधान बनाना, दूसरा चुनाव कराना, तीसरा संसद का निर्माण| जहाँ तक संविधान का प्रश्न है, 1964 में बना ज़ाहिरशाही संविधान मोटे तौर पर स्वीकार कर लिया जाएगा, बशर्ते कि उसमें से राजशाही का अंश निकाल दिया जाए| आश्चर्य नहीं कि अफगान-संविधान भारतीय संविधान की तज़र् पर बनाया जाए| अफगान संविधान के निर्माण में कोई विशेष कठिनाई दिखाई नहीं पड़ती| लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला है कि इस संविधान का निर्माण करने के लिए क्या लोया जिरगा के सत्र् लगातार बुलाए जाते रहेगे या संविधान बनाकर केवल उसे पास कराने के लिए लोया जिरगा बुला ली जाएगी| चुनाव और संसद का गठन उतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी यह कि अगले डेढ़ वर्ष में फौज और प्रशासन का गठन कैसे होगा, अल-कायदा और तालिबान का समूलोच्छेद कैसे होगा, अर्थव्यवस्था को पटरी पर कैसे लाया जाएगा, शरणार्थियों का पुनर्वास कैसे दिया जाएगा, मादक-द्रव्यों की उपज और तस्करी को कैसे रोका जाएगा और उजड़े हुए अफगानिस्तान को फिर से कैसे बसाया जाएगा ?
यदि पश्चिमी राष्ट्रों ने सहायता देने में कोताही दिखाई तो करज़ई सरकार ही नहीं, सारे अफगानिस्तान का ही शीराज़ा बिखर जाएगा| डॉलर वह सबसे सशक्त गोंद है, जो सारे ताने-बाने को जोडे़ हुए है| फौज में लोग इसीलिए भर्ती होंगे कि अब उन्हें नियमित वेतन मिलेगा| यही बात प्रशासन पर लागू होगी| पिछले अनेक वर्षों से फौज और प्रशासन के कर्मचारी अपना वेतन शासन से नहीं पाते थे, जनता से वसूलते थे| ‘इसाफ’ (इंटरनेशनल सिक्योरिटी एसिस्टेन्स फोर्स) को भी तभी सफलता मिलेगी, जबकि राष्ट्रीय सेना का साथ-साथ निर्माण होता चला जाएगा| यह बात हम पहले दिन से ही कह रहे थे कि चार-पाँच हजार गोरे सिपाहियों के दम पर अफगानिस्तान को काबू नहीं किया जा सकता| अब बि्रटेन के बजाय तुर्की के हाथ में कमान का आ जाना स्वागत योग्य है| अब भी लगभग 40 हजार फौजियों के बिना पूरे अफगानिस्तान में शांति और व्यवस्था बनाए रखा कठिन होगा| गोरे सिपाहियों की बजाय एशियाई देशों के जवानों को तैनात करना अधिक मुफ़ीद होगा| यदि सेना का इन्तज़ाम ठीक से नहीं हुआ तो युद्घपिपासु क्षत्र्प करज़ई सरकार को लंगड़ा कर देंगे| इसी प्रकार प्रशासन को मुस्तैदी से चलाने के लिए डॉलरों के साथ-साथ सलाहकारों की भी भारी जरूरत है| इस क्षेत्र् में भारत का योगदान काफी उल्लेखनीय रहा है| भारत न केवल फौजी और प्रशासनिक प्रशिक्षण उपलब्ध करवा सकता है बल्कि अफगानिस्तान के औद्योगिक और व्यावसायिक पुनर्निर्माण में अग्रणी भूमिका भी निभा सकता है| इस मामले में पश्चिमी राष्ट्रों की यह टेक युक्तिसंगत नहीं है कि वे अगर डॉलर दे रहे हैं तो तकनीशियन भी वे ही देंगे| पश्चिमी राष्ट्र एक डॉलर के बदले अनेक डॉलर की वापसी की मृग-मरीचिका में न फँसे और अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण सहज भाव से होने दें तो वे वास्तव में आतंकवाद को दफनाने का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं|
(डॉ0 वैदिक आजकल अमेरिका और मुस्लिम राष्ट्रों की यात्रi कर रहे हैं|)
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