राष्ट्रीय सहारा, 17 अगस्त 2013 : अगले साल दक्षिण एशिया का हाल क्या होगा? अफगानिस्तान से अमेरिका की फौजी वापसी हो जाएगी, दिल्ली में नई सरकार आ जाएगी, ईरान और पाकिस्तान में नई सरकार कायम हो ही गई है और अमेरिका, चीन और रूस यहां अपने लिए नई-नई संभावनाएं तलाशने में जुटे हुए हैं। ऐसे में पाकिस्तान और भारत की दक्षिण एशियाई नीति क्या होगी, क्या होना चाहिए? अफगानिस्तान को भारत अपने हाल पर नहीं छोड़ सकता। यह ठीक है कि भारत और अफगानिस्तान एकदम निकट पड़ोसी नहीं हैं लेकिन अफगानिस्तान और भारत का भाग्य हजारों वर्षो से एक दूसरे से जुड़ा रहा है। यह भी ठीक है कि पिछले 66 साल से इन दोनों पड़ोसी राष्ट्रों के बीच पाकिस्तान आन खड़ा हुआ है लेकिन उसके बावजूद आज भी दोनों राष्ट्रों के हित एक दूसरे के साथ गुथे हुए हैं। इसके कई प्रमाण हैं।
सबसे पहला तो यही कि अफगानिस्तान में अराजकता फैली तो उसका प्रतिफलन आतंकवाद में हुआ। आतंकवाद का सबसे बड़ा निशाना कौन बना? भारत। भारत से ज्यादा बड़े पड़ोसी तो पाकिस्तान और ईरान थे लेकिन वहां अफगान आतंकवाद नगण्य रहा। ये बात और है कि पाकिस्तान के अपने आतंकवादियों ने अब पाकिस्तानी फौज और सरकार की नाक में दम कर दिया है। अफगानिस्तान में आतंकवाद के दो रूप रहे। एक राष्ट्रवादी और दूसरा इस्लामी। राष्ट्रवादी आतंक ने अपने आप को अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक सीमित रखा लेकिन इस्लामी आतंक ने अपने पंख कश्मीर से लेकर गुजरात तक फैलाए। भारत पर हमला बोलने में पाक-अफगान इस्लामी आतंकवादी एक हो गए। यह सिलसिला नया नहीं है। काफी पुराना है। 1948 में कश्मीर में भारत से लड़ने के लिए रंगरूटों को काबुल, कंधार और जलालाबाद से लाया गया था। अर्थात अफगानिस्तान और भारत यदि दूर के पड़ोसी की तरह रहना चाहें तो भी पाक उन्हें वैसा नहीं रहने देता। दूसरा, शीतयुद्ध के दशकों में अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों ही गुट-निरपेक्ष रहे यानी वैचारिक दृष्टि से दोनों एक-दूसरे के निकटतम पड़ोसी हुए। दूसरे शब्दों में, दोनों राष्ट्रों से पाकिस्तान की दूरी एक-बराबर हो गई। अगर पाकिस्तान ने उन दिनों भारत से तीन युद्ध लड़े तो अफगानिस्तान से तीन बार युद्ध के नगाड़े बज गए। सीमाएं बंद हो गई। अफगानिस्तान ने पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र-प्रवेश का विरोध किया। जैसे पाकिस्तान कश्मीर के सवाल पर भारत से खिंचा रहा, अफगानिस्तान पख्तूनिस्तान के सवाल पर पाकिस्तान से खिंचा रहा। दुश्मन का दुश्मन,दोस्त-यही फामरूला दक्षिण एशिया में चलता रहा। तीसरा, अफगानिस्तान के प्रति अपने गहरे कर्त्तव्य- बोध के कारण ही भारत ने अब तक दस हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की मदद उसे दे दी है। इतना ही नहीं, भारत ने अपनी दर्जनों अफसरों, कर्मचारियों और मजदूरों की बलि चढ़ जाने के बावजूद अपने सेवा कायरे को नहीं रोका। आम अफगान जनता भारत के प्रति काफी कृ तज्ञता का भाव रखती है। वह उसे अपना हितैषी और अच्छा पड़ोसी मानती है। चौथा, मैं यह भी मानता हूं कि यदि भारत के पाकिस्तान से बहुत अच्छे संबंध हो जाएं लेकिन अफगानिस्तान से अच्छे न हों तो भारत का काफी ज्यादा नुकसान होगा, क्योंकि फिर वह ईरान तथा मध्य एशिया के गणतंत्रों तक कैसे जाएगा? थल मार्ग तो उसके लिए बंद रहेगा। पाकिस्तान से भारत के अच्छे संबंधों का पूरा फायदा उसे तभी मिलेगा जबकि अफगानिस्तान के साथ भी उसके संबंध मधुर हों। यदि संबंधों का यह ढांचा दक्षिण एशिया में खड़ा हो जाए तो इस सारे इलाके की गरीबी अगले पांच साल में ही दूर हो जाए। मध्य एशिया के गैस, तेल और खनिजों के अकूत भंडार भारत के लिए खुल जाएं तो भारत की उन्नत तकनीक और वैज्ञानिकगण पूरे दक्षिण एशिया को मालामाल कर देंगे। पांचवां, मध्य-एशिया तक भारत की मुक्त पहुंच का सबसे बड़ा सुपरिणाम यह होगा कि पाकिस्तान की आक्रामकता अपने आप शांत हो जाएगी। इन रास्तों के खुलने से सबसे अधिक मार्ग शुल्क पाकिस्तान को मिलेगा और दक्षिण एशिया के सभी देशों की व्यापारिक नकेल भी उसके हाथों में ही होगी। पाकिस्तान अपने इस निहित स्वार्थ में इतना डूब जाएगा कि वह युद्ध की बात ही भूल जाएगा। कश्मीर और जिहाद को वह दरी के नीचे सरका देगा। यदि दक्षिण एशिया से युद्ध की आशंकाओं की विदाई हो जाए तो हमारे राष्ट्र अरबों रुपये हर साल बचा सकेंगे और उस पैसे को आम आदमी के लिए रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार दिलाने में लगा सकेंगे। इस बृहत्तर लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को अफगानिस्तान की मदद के लिए सदा तत्पर रहना होगा। इसका अर्थ पाकिस्तान में कुछ लोग यह लगाते हैं कि अमेरिका के विदा होते ही अफगानिस्तान पर भारत काबिज होना चाहता है। इसीलिए भारत दूतावासों पर सीधे हमले करवाए जाते हैं। उन्हें भारत के जासूसखाने बताया जाता है और माना जाता है कि उनका काबुल, कंधार, जलालाबाद और हेरात में एक ही काम है, पाकिस्तान-विरोधी ताकतों को उकसाना। यदि बलूचिस्तान, सिंध और पख्तूनख्वाह-खैबर में कोई भी बड़ी हिंसा होती है तो उसका ठीकरा भारत के सिर फोड़ा जाता है। पाकिस्तान का सत्ता- प्रतिष्ठान यह भी मानता है कि भारत के साथ अमेरिका और रूस की पूरी सांठ- गांठ है। इसीलिए पाकिस्तान चीन को पाकिस्तान से ही नहीं, अफगानिस्तान में भी छतरी तानने के लिए प्रेरित करता रहता है। चीन ने पाकिस्तान को अभी- अभी आश्वासन दिया है कि वह काराकोरम से हिंदमहासागर तक विशाल रेलवे लाइन डालेगा। अफगानिस्तान में उसने तांबे की एक बड़ी खदान खरीद ही ली। पाकिस्तान के एक प्रभावशाली तबके का ख्याल है कि अमेरिकी वापसी के साथ अफगानिस्तान का आम पक जाएगा और वह अपने पाकिस्तान की झोली में टपक पड़ेगा, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि रूसियों के जाते ही नजीबुल्ला का अफगानिस्तान मुजाहिद्दीन का शरणागत हो गया था। लेकिन ध्यान रहे कि अमेरिका के नए विदेश मंत्री जॉन कैनेडी से साफ-साफ कहा है कि अगले साल से अमेरिका अपनी फौजें हटा नहीं, घटा रहा है। वह अफगानिस्तान से एक दीर्घकालीन रक्षा समझौते पर विचार कर रहा है। वह तालिबान से भी सीधे सम्पर्क साधे हुआ है। पाक को यह गलतफहमी है कि अमेरिका भारत को अपनी जगह बिठाने को तैयार है। यदि वह तैयार हो तो भी भारत तैयार नहीं होगा। हां, भारत अफगानिस्तान में एक मजबूत राष्ट्रीय फौज खड़ी करने से सहायता कर सकता है। वह प्रशिक्षण और हथियार दे सकता है; यह काम तो ऐसा है, जिसे भारत से ज्यादा पाक को करना चाहिए। यदि भारत और पाकिस्तान, दोनों मिलकर काम करें तो सोने में सुहागा हो जाएगा लेकिन इस महान सुझाव को लागू करने की इच्छा, समझ और योग्यता मुझे दोनों देशों के नेताओं में दिखाई नहीं पड़ती। पाक पहल करे तो सफलता आसान है और यदि उसका इरादा काबुल पर वर्चस्व का है तो कहीं ऐसा न हो कि काबुल के चक्कर में पेशावर उसके हाथ से खिसक जाए। पाकिस्तान को जितना डर और शक भारत से है, उससे कहीं ज्यादा डर और शक अफगानों को पाकिस्तान से है। अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद वहां स्थिरता होगी या अराजकता, इसका निर्णय सबसे ज्यादा पाकिस्तान के हाथ में होगा। अब अफगानिस्तान को अपना ‘पांचवां प्रांत’ बनाने के बजाय पाकिस्तान उसे अपनी समृद्धि का ‘पश्चिमी द्वार’ बनाने का संकल्प करे तो सम्पूर्ण दक्षिण एशिया की किस्मत चमक उठेगी। क्या अफगानिस्तान को लेकर भारत पाक संयुक्त मोर्चा खड़ा हो सकता है? (लेखक, विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं) |
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