दैनिक भास्कर, 9 जनवरी 2008 : बेनज़ीर भुट्टो की हत्या कैसे हुई और किसने की, इन सवालों का पाकिस्तान की राजनीति पर गहरा असर हो रहा है| पहले-पहल शक की सुई मुशर्रफ की तरफ घूमने का सवाल ही नहीं उठता था| सभी मानकर चल रहे थे कि बेनज़ीर को अल-क़ायदा ने मारा है, क्योंकि वह इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ खुलकर बोल रही थीं| पहले उन्होंने 18 अक्तूबर को कराची में बेनजीर को मारने की कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली लेकिन 27 दिसंबर को वे रावलपिंडी में कामयाब हो गए| अगर मुशर्रफ सरकार के गृह मंत्री और प्रवक्ता अपनी जुबान पर लगाम रखते तो उक्त निष्कर्ष सर्वमान्य हो जाता और असली हत्यारे का पता चलता या न चलता, यह मामला यहीं बंद हो जाता| लोग यह तो पहले से ही जानते थे कि मुशर्रफ और बेनज़ीर दोनों ही अमेरिकी इशारे पर आगे बढ़ रहे हैं| दोनों आतंकवाद के विरूद्घ एकजुट हो गए हैं| और यदि बेनज़ीर प्रधानमंत्री बन जातीं तो वे मुशर्रफ के साथ ताल-मेल बिठाकर अपना काम चलातीं| उन्होंने नवाज़ शरीफ की तरह यह कभी नहीं कहा कि वे मुशर्रफ को हटाकर ही दम लेंगी| वास्तव में राष्ट्रपति के चुनाव में अपने उम्मीदवार को बेनज़ीर ने हरवाया ताकि मुशर्रफ आसानी से जीत सकें| बेनज़ीर इस बात का भी श्रेय ले रही थीं कि उनके दबाव के कारण ही मुशर्रफ ने सेनापति का पद छोड़ा| मुशर्रफ-बेनज़ीर की यह जुगलबंदी स्वयं बेनज़ीर पर भारी पड़ रही थी| बेनज़ीर की हत्या के समय घटना-स्थल पर मौजूद इस्लामाबाद के प्रसिद्घ वकील अनीस जीलानी ने ‘डॉन’ में छपे लेख में लिखा है कि 27 दिसंबर के दिन लियाक़त बाग में हुई बेनज़ीर की सभा बहुत फीकी थी| दो-तिहाई मैदान खाली पड़ा हुआ था| मुशर्रफ-बेनज़ीर की सांठ-गांठ का सीधा लाभ नवाज शरीफ को मिल रहा था| नवाज़ शरीफ की सभाओं में जन-सैलाब उमड़ रहा था और वे फौजी तानाशाही के विरोध के प्रतीक बनते जा रहे थे| ऐसी स्थिति में बेनज़ीर की हत्या में मुशर्रफ का कोई हाथ हो सकता है, यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी लेकिन पिछले 10 दिन में सारी तस्वीर बदली नजर आ रही है|
आज भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर मुशर्रफ-सरकार को बेनज़ीर की हत्या के लिए दोषी ठहराया जा सके| यह सीधा आरोप आसिफ ज़रदारी और नवाज शरीफ ने भी नहीं लगाया है लेकिन दोनों ने यह भी कहा है कि इस हत्या के पीछे आतंकवादी नहीं हैं, अल-क़ायदा नहीं है, तालिबान नहीं हैं, बेतुल्ला महसूद नहीं है| इतना ही नहीं, दोनों यह भी कह रहे हैं कि सरकार ने बेनज़ीर की सुरक्षा में लापरवाही की है याने आखिरकार इस हत्या की जिम्मेदारी सरकार पर ही आ रही है| हो सकता है कि दोनों राजनेता इस हत्या का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हों| अगर दोष आतंकवादियों के मत्थे मढ़ें तो उन्हें क्या फायदा है? वे उनका बाल भी बॉंका नहीं कर सकते| आतंकवादी चुनाव नहीं लड़ रहे हैं कि उनके वोट कट जाऍंगे| ज़रदारी और नवाज़ को वोट काटना है, मुशर्रफ-समर्थक पार्टी – मुस्लिम लीग (क़ायदे-आज़म) के ! यह काम अपने आप बखूबी हो रहा है|
क्यों हो रहा है? कैसे हो रहा है? आम जनता का शक स्वयं पाकिस्तान की सरकार ने मजबूत किया है| सबसे पहले उसके प्रवक्ता ने ही बेतुल्ला महसूद का नाम उछाला और उस बातचीत को प्रचारतंत्र् में उद्रधृत किया, जिसमें महसूद ने बेनज़ीर की हत्या पर किसी मौलवी को बधाई दी थी लेकिन महसूद ने दूसरे दिन ही इस खबर का खंडन कर दिया| बाक़ायदा बयान जारी करके पाकिस्तान के तालिबान ने कह दिया कि इस घटना से उनका कुछ लेना-देना नहीं है| अब सरकार क्या करती? किसी जरूरत से ज्यादा चतुर व्यक्ति ने एक नई कहानी गढ़ ली| वह यह कि बेनजीर का सिर कार की छत में लगे लीवर से टकरा गया और फट गया| डॉक्टरों की रपट और बयानों के बाद जब इस बयान पर जग-हॅंसाई हुई तो सरकार ने कह दिया कि बेनज़ीर के शव को बाहर निकालकर उसकी जॉंच की जा सकती है| इस बात से पाकिस्तान की जनता को बहुत धक्का लगा| अब खुद मुशर्रफ ने ‘सीएनएन’ को दिए इंटरव्यू में माना कि, हॉं बेनज़ीर को गोली लगी है| यह अफवाह भी फैलाई जा रही है कि किसी हत्यारे ने ‘लेज़र-बीम’ वाले तमंचे से बेनज़ीर को मारा है| पाकिस्तान इसी तरह के मनमाने अनुमानों की मंडी बन गया है| इसका सबसे ज्यादा खामियाजा स्वयं मुशर्रफ को और उनकी ‘मुस्लिम लीग’ को भुगतना पड़ रहा है| पाकिस्तान के लोग मुस्लिम लीग क़ायदे-आजम को अब मुस्लिम लीग क़ातिले-आज़म बोल रहे हैं| चुनाव को 40 दिन आगे बढ़ाने और हत्या की जॉंच के लिए स्काटलैंड यार्ड के बुलाने को भी पाकिस्तानी जनता राजनीतिक चालबाजी के अलावा कुछ नहीं मान रही हैं|
इस दुखद स्थिति के लिए पाकिस्तान की सरकार ही जिम्मेदार मालूम पड़ती है| बेनज़ीर की हत्या पर नवाज़ शरीफ रो पड़े| वे बेनज़ीर के कट्टर दुश्मन रहे हैं| बेनज़ीर ने उनके पिता को भी जेल में डाला था और उन पर तरह-तरह के मुकदमे चलाए थे| इसके अलावा बेनज़ीर ने कुछ माह पहले नवाज़ शरीफ के संयुक्त मोर्चे को भी अधर में ही छोड़ दिया था और प्रधानमंत्र्ी पद के लिए दोनों में मुठभेड़ भी हो सकती थी| इसके बावजूद नवाज़ शरीफ ने बेनज़ीर की हत्या पर बहुत ही मार्मिक और गरिमामय आचरण किया जबकि मुशर्रफ ने टीवी के पर्दे पर अपना जैसा चेहरा पेश किया, उससे लगता था कि उन्हें सिर्फ कानून और व्यवस्था की चिंता है| बेनज़ीर की हत्या जैसे कोई साधारण-सी घटना है| और अब उस हत्या के लिए वे बेनज़ीर को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं| इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि हत्या की जिम्मेदारी वे उनके अपने सिर पर आती देख रहे हैं? क्या वे खुद को बचाने में लगे हुए हैं? अगर ऐसा हो रहा है तो माना जाएगा कि वे शक की सुई खुद की ओर खुद ही घुमा रहे हैं| अपने जाल में वे खुद ही फॅंस रहे हैं| भारत और पाकिस्तान जैसे देशों में जो सामान्य शिष्टाचार है, मुशर्रफ उसका भी निर्वाह नहीं कर रहे हैं| शोक व्यक्त करने के लिए वे न लाड़काना गए और न ही उन्होंने आसिफ जरदारी या बिलावल को फोन तक किया| बेनजीर की हत्या उसी तरह हुई, जैसे राजीव गांधी की हुई थी लेकिन उस समय चंद्रशेखर-सरकार ने जिस गरिमा से अपना कर्तव्य-निर्वाह किया, क्या उसका शतांश भी पाकिस्तान में दिखाई पड़ रहा है? ( लेखक पाक-अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं )
अब शक की सुई मुशर्रफ खुद अपनी तरफ घुमा रहे हैं
दैनिक भास्कर, 9 जनवरी 2008 : बेनज़ीर भुट्टो की हत्या कैसे हुई और किसने की, इन सवालों का पाकिस्तान की राजनीति पर गहरा असर हो रहा है| पहले-पहल शक की सुई मुशर्रफ की तरफ घूमने का सवाल ही नहीं उठता था| सभी मानकर चल रहे थे कि बेनज़ीर को अल-क़ायदा ने मारा है, क्योंकि वह इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ खुलकर बोल रही थीं| पहले उन्होंने 18 अक्तूबर को कराची में बेनजीर को मारने की कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली लेकिन 27 दिसंबर को वे रावलपिंडी में कामयाब हो गए| अगर मुशर्रफ सरकार के गृह मंत्री और प्रवक्ता अपनी जुबान पर लगाम रखते तो उक्त निष्कर्ष सर्वमान्य हो जाता और असली हत्यारे का पता चलता या न चलता, यह मामला यहीं बंद हो जाता|
लोग यह तो पहले से ही जानते थे कि मुशर्रफ और बेनज़ीर दोनों ही अमेरिकी इशारे पर आगे बढ़ रहे हैं| दोनों आतंकवाद के विरूद्घ एकजुट हो गए हैं| और यदि बेनज़ीर प्रधानमंत्री बन जातीं तो वे मुशर्रफ के साथ ताल-मेल बिठाकर अपना काम चलातीं| उन्होंने नवाज़ शरीफ की तरह यह कभी नहीं कहा कि वे मुशर्रफ को हटाकर ही दम लेंगी| वास्तव में राष्ट्रपति के चुनाव में अपने उम्मीदवार को बेनज़ीर ने हरवाया ताकि मुशर्रफ आसानी से जीत सकें| बेनज़ीर इस बात का भी श्रेय ले रही थीं कि उनके दबाव के कारण ही मुशर्रफ ने सेनापति का पद छोड़ा| मुशर्रफ-बेनज़ीर की यह जुगलबंदी स्वयं बेनज़ीर पर भारी पड़ रही थी| बेनज़ीर की हत्या के समय घटना-स्थल पर मौजूद इस्लामाबाद के प्रसिद्घ वकील अनीस जीलानी ने ‘डॉन’ में छपे लेख में लिखा है कि 27 दिसंबर के दिन लियाक़त बाग में हुई बेनज़ीर की सभा बहुत फीकी थी| दो-तिहाई मैदान खाली पड़ा हुआ था| मुशर्रफ-बेनज़ीर की सांठ-गांठ का सीधा लाभ नवाज शरीफ को मिल रहा था| नवाज़ शरीफ की सभाओं में जन-सैलाब उमड़ रहा था और वे फौजी तानाशाही के विरोध के प्रतीक बनते जा रहे थे| ऐसी स्थिति में बेनज़ीर की हत्या में मुशर्रफ का कोई हाथ हो सकता है, यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी लेकिन पिछले 10 दिन में सारी तस्वीर बदली नजर आ रही है|
आज भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर मुशर्रफ-सरकार को बेनज़ीर की हत्या के लिए दोषी ठहराया जा सके| यह सीधा आरोप आसिफ ज़रदारी और नवाज शरीफ ने भी नहीं लगाया है लेकिन दोनों ने यह भी कहा है कि इस हत्या के पीछे आतंकवादी नहीं हैं, अल-क़ायदा नहीं है, तालिबान नहीं हैं, बेतुल्ला महसूद नहीं है| इतना ही नहीं, दोनों यह भी कह रहे हैं कि सरकार ने बेनज़ीर की सुरक्षा में लापरवाही की है याने आखिरकार इस हत्या की जिम्मेदारी सरकार पर ही आ रही है| हो सकता है कि दोनों राजनेता इस हत्या का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हों| अगर दोष आतंकवादियों के मत्थे मढ़ें तो उन्हें क्या फायदा है? वे उनका बाल भी बॉंका नहीं कर सकते| आतंकवादी चुनाव नहीं लड़ रहे हैं कि उनके वोट कट जाऍंगे| ज़रदारी और नवाज़ को वोट काटना है, मुशर्रफ-समर्थक पार्टी – मुस्लिम लीग (क़ायदे-आज़म) के ! यह काम अपने आप बखूबी हो रहा है|
क्यों हो रहा है? कैसे हो रहा है? आम जनता का शक स्वयं पाकिस्तान की सरकार ने मजबूत किया है| सबसे पहले उसके प्रवक्ता ने ही बेतुल्ला महसूद का नाम उछाला और उस बातचीत को प्रचारतंत्र् में उद्रधृत किया, जिसमें महसूद ने बेनज़ीर की हत्या पर किसी मौलवी को बधाई दी थी लेकिन महसूद ने दूसरे दिन ही इस खबर का खंडन कर दिया| बाक़ायदा बयान जारी करके पाकिस्तान के तालिबान ने कह दिया कि इस घटना से उनका कुछ लेना-देना नहीं है| अब सरकार क्या करती? किसी जरूरत से ज्यादा चतुर व्यक्ति ने एक नई कहानी गढ़ ली| वह यह कि बेनजीर का सिर कार की छत में लगे लीवर से टकरा गया और फट गया| डॉक्टरों की रपट और बयानों के बाद जब इस बयान पर जग-हॅंसाई हुई तो सरकार ने कह दिया कि बेनज़ीर के शव को बाहर निकालकर उसकी जॉंच की जा सकती है| इस बात से पाकिस्तान की जनता को बहुत धक्का लगा| अब खुद मुशर्रफ ने ‘सीएनएन’ को दिए इंटरव्यू में माना कि, हॉं बेनज़ीर को गोली लगी है| यह अफवाह भी फैलाई जा रही है कि किसी हत्यारे ने ‘लेज़र-बीम’ वाले तमंचे से बेनज़ीर को मारा है| पाकिस्तान इसी तरह के मनमाने अनुमानों की मंडी बन गया है| इसका सबसे ज्यादा खामियाजा स्वयं मुशर्रफ को और उनकी ‘मुस्लिम लीग’ को भुगतना पड़ रहा है| पाकिस्तान के लोग मुस्लिम लीग क़ायदे-आजम को अब मुस्लिम लीग क़ातिले-आज़म बोल रहे हैं| चुनाव को 40 दिन आगे बढ़ाने और हत्या की जॉंच के लिए स्काटलैंड यार्ड के बुलाने को भी पाकिस्तानी जनता राजनीतिक चालबाजी के अलावा कुछ नहीं मान रही हैं|
इस दुखद स्थिति के लिए पाकिस्तान की सरकार ही जिम्मेदार मालूम पड़ती है| बेनज़ीर की हत्या पर नवाज़ शरीफ रो पड़े| वे बेनज़ीर के कट्टर दुश्मन रहे हैं| बेनज़ीर ने उनके पिता को भी जेल में डाला था और उन पर तरह-तरह के मुकदमे चलाए थे| इसके अलावा बेनज़ीर ने कुछ माह पहले नवाज़ शरीफ के संयुक्त मोर्चे को भी अधर में ही छोड़ दिया था और प्रधानमंत्र्ी पद के लिए दोनों में मुठभेड़ भी हो सकती थी| इसके बावजूद नवाज़ शरीफ ने बेनज़ीर की हत्या पर बहुत ही मार्मिक और गरिमामय आचरण किया जबकि मुशर्रफ ने टीवी के पर्दे पर अपना जैसा चेहरा पेश किया, उससे लगता था कि उन्हें सिर्फ कानून और व्यवस्था की चिंता है| बेनज़ीर की हत्या जैसे कोई साधारण-सी घटना है| और अब उस हत्या के लिए वे बेनज़ीर को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं| इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि हत्या की जिम्मेदारी वे उनके अपने सिर पर आती देख रहे हैं? क्या वे खुद को बचाने में लगे हुए हैं? अगर ऐसा हो रहा है तो माना जाएगा कि वे शक की सुई खुद की ओर खुद ही घुमा रहे हैं| अपने जाल में वे खुद ही फॅंस रहे हैं| भारत और पाकिस्तान जैसे देशों में जो सामान्य शिष्टाचार है, मुशर्रफ उसका भी निर्वाह नहीं कर रहे हैं| शोक व्यक्त करने के लिए वे न लाड़काना गए और न ही उन्होंने आसिफ जरदारी या बिलावल को फोन तक किया| बेनजीर की हत्या उसी तरह हुई, जैसे राजीव गांधी की हुई थी लेकिन उस समय चंद्रशेखर-सरकार ने जिस गरिमा से अपना कर्तव्य-निर्वाह किया, क्या उसका शतांश भी पाकिस्तान में दिखाई पड़ रहा है?
( लेखक पाक-अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं )
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