नया इंडिया, 25 सितंबर 2014 : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा सिर्फ इसलिए भी महत्वपूर्ण कही जा सकती है कि यह वही अमेरिका है, जिसने 12 साल पहले मोदी को अंतरराष्ट्रीय अछूत बनाने की कोशिश की थी। अब वही अमेरिका मोदी की अगवानी के लिए पलक-पांवड़े बिछाए हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा उनसे न केवल संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन के दौरान न्यूयार्क में मिलेंगे, बल्कि वाशिंगटन में उनका औपचारिक स्वागत-सत्कार भी करेंगे। वे अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में ठहरेंगे भी! यह मोदी की द्विपक्षीय राजकीय यात्रा नहीं है लेकिन उससे कम भी नहीं है। इसका अर्थ क्या हम यह लगाएं कि अमेरिका का हृदय-परिवर्तन हो गया है? क्या अमेरिका मोदी का दीवाना हो गया है? आखिर वह मोदी पर इतना फिदा क्यों हो रहा है?
अमेरिका को मोदी से कोई प्रेम नहीं है। उसे अपने स्वार्थ से प्रेम है। मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं। मोदी की उपेक्षा भारत की उपेक्षा है। भारत की उपेक्षा करके अमेरिका अपनी विश्व-नीति कैसे चला सकता है? मोदी की वजह से अमेरिका अपनी भारत-नीति में रत्ती भर भी हेर-फेर करने वाला नहीं है। कौनसा ऐसा बड़ा मुद्दा है, जिस पर अमेरिकी नीति में बदलाव के संकेत आए हैं? क्या मोदी के वाशिंगटन-प्रवास के दौरान अमेरिका अपने परमाणु-सौदों को परवान चढ़ाने का कोई आश्वासन देगा? दस साल से जिस सौदे को लेकर दोनों देशों में इतनी उथल-पुथल मची है, वह अभी भी अधर में लटका हुआ है। इसी तरह टैंकतोडू जेवलिन प्रक्षेप्रास्त्र का सौदा भी हवा में है। शस्त्र-निर्माण तकनीक के बारे में भी किसी समझौते की बात नहीं सुनी जा रही है। अमेरिका ने व्यापार, निवेश, वीज़ा आदि मामलों में जो अड़ंगे लगा रखे हैं, उन्हें हटाने के भी कोई आसार नज़र नहीं आ रहे है। विश्व-व्यापार संगठन में भारत और अमेरिका के बीच जो वाग्युद्ध हुआ था, वह अब भी बरकरार है। हां, शिक्षा, चिकित्सा, ऊर्जा आदि मुद्दों पर कुछ सैद्धांतिक समझौते जरुर होंगे, जैसे कि पिछले हफ्ते चीन के साथ हुए हैं।
कहीं ऐसा न हो कि जैसी चीनी राष्ट्रपति की भारत-यात्रा हो गई, वैसी ही मोदी की अमेरिका-यात्रा भी हो जाए? याने कोई ठोस और बुनियादी उपलब्धि न हो लेकिन गाजे-बाजे खूब धूमधाम से बजते रहें। वे बजेंगे तो सही! न्यूयार्क के मेडिसन चौराहे पर 20 हजार श्रोताओं की सभा को देखकर अमेरिकी राष्ट्रपति भी भौंचक रह जाएंगे। इसके अलावा दुनिया में अपना सिक्का जमाने वाले 10 बड़े अमेरिकी महाप्रबंधक मोदी के साथ भोजन-वार्ता करेंगे। आशा करें कि मोदी जब ओबामा से मिलेंगे तो वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान के भविष्य के बारे में कुछ ठोस बात करेंगे। दोनों देशों का व्यापार 100 बिलियन डालर से बढ़कर अगले दस साल में 500 बिलियन डालर हो जाए, यह कौन नहीं चाहेगा? भारत-जापान-अमेरिका का विश्व-त्रिकोण बन सकता है लेकिन असली मुद्दा यह है कि क्या अमेरिका आज किसी देश के साथ बराबरी का बर्ताव कर सकता है? अमेरिका को दुमछल्ले पालने की लत पड़ गई है और भारत की यह मजबूरी है कि वह किसी का दुमछल्ला नहीं बन सकता।
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