हिन्दुस्तान, जून 2002 : भारत और अमेरिका की दुनिया कितनी अलग-अलग है ! यों तो भारत के ऊँचे तबके के लोगों और अमेरिका के साधारण लोगों का जीवन एक-जैसा ही मालूम पड़ता है, क्योंकि अमेरिकियों की तरह उनके पास भी कारें, एयरकन्डीशनर्स, वाशिंग मशीन, मोबाइल फोन, फि्रज, कुकिंग रेंज, आधुनिक फर्नीचर और साज-सज्जा के उपकरण आदि भी होते हैं, लेकिन दोनों की जीवन-पद्घतियों और जीवन-दृष्टियों में ज़मीन-आसमान का अन्तर होता है|
इस बार अमेरिका-प्रवास के पहले दिन ही मुझे इस अन्तर की बानगी मिली| मैं एक यहूदी मित्र् के घर ठहरा| सैर के लिए सुबह छह बजे उठा| अपने मित्र् के बेटे को भी उठाया| हम दोनों घर से निकलने के लिए दरवाज़े की तरफ बढ़े| ज्यों ही हम दोनों दरवाजे़ के पास पहुँचे, बाहर से कुछ पदचाप सुनाई पड़ी| बेटे ने दरवाज़ा खोल दिया| दरवाज़ा क्या खुला, जबर्दस्त हंगामा हो गया| एक महिला के चीत्कार की आवाज़ सुनकर हम दोनों चौंक गए| यह महिला और कोई नहीं, इस घर की मालकिन ही थी| आप पूछेंगे कि वह चिल्लायी क्यों ? हम भी पूछते, उसके पहले ही उन्होंने बताया कि उनके जीवन में ऐसा पहली बार हुआ कि वे अपने घर बाहर से आई हों और अन्दर से दरवाज़ा अपने आप खुल गया हो| हमेशा दरवाज़ा तब खुलता है, जब वे चाबी से खोलती हैं| इस बार उन्हें लगा कि यह काम किसी भूत-प्रेत ने किया है| अमेरिका में यदि घर में चार सदस्य हैं तो चारों के पास अपनी-अपनी चाबी होती है| जब भी कोई सदस्य घर लौटता है तो वह न दरवाज़ा खटखटाता है, न घंटी बजाता है बल्कि चाबी घुमाकर घर में आ जाता है| कई बार यह पता नहीं चलता कि घर में कौन सदस्य है और कौन नहीं, खास तौर से तब जबकि पति-पत्नी के अलावा भी कोई घर में रहता हो| घर के किशोर सदस्य कब आते हैं, कब सोते हैं, कब जागते हैं, किसी को कुछ पता नहीं| हर सदस्य अपने-आप में एक अलग-थलग द्वीप की तरह होता है|
एक दिन एक अमेरिकी परिवार के साथ पिट्रसबर्ग के एक दक्षिण भारतीय रेस्तराँ में गए| दो अन्य अमेरिकी अतिथि भी शामिल हुए| याने पाँच अमेरिकी और मैं एक भारतीय| पाँचों अमेरिकियों ने अपने लिए एक-एक दोसे का ऑर्डर कर दिया| यह सोचकर कि बड़े-बड़े पाँच पेटभरू दोसों की बजाय चार-छह अलग-अलग पकवान मँगाए जाएँ तो भोजन में विविधता और सरसता बन जाएगी| मैंने ऑर्डर बदलने का अनुरोध किया तो मेरे अमेरिकी दोस्तों का अनमनापन बस देखने लायक था| वे यह समझ ही नहीं पा रहे थे कि सब लोग एक-दूसरे की प्लेट के पकवनों को अपनी-अपनी प्लेट में किस तरह पा जाएँगे ? अमेरिकी जीवन मंे भोजन की साझेदारी या मिल-बाँटकर खाने की कल्पना ही नहीं है| सब अपनी-अपनी प्लेट लेकर बैठ जाते हैं और उसके चारों तरफ लक्ष्मण-रेखा खींच लेते हैं| दूसरे का कोई भी हस्तक्षेप उन्हें बर्दाश्त नहीं होता| जैसे भोजन की प्लेट, वैसा ही उनका जीवन ! अमेरिकियों के जीवन में यह वैयक्तिकता अतिवाद की सीमाओं को छू जाती है| बच्चे ज्यों ही सयाने होने लगते हैं, उन्हें घर से खदेड़ने का अभियान चल पड़ता है| जैसे पक्षियों के बच्चे पंख निकलते ही घोंसला छोड़ने लगते हैं, वैसे ही अमेरिकी बच्चे बड़े होते-होते अलग रहने लगते हैं| विवाहित पुत्र्-पुत्री अपने माता-पिता के साथ रहें तो इसे यहाँ अजूबा माना जाता है| लाखों में कोई एक परिवार ऐसा मिल सकता है, जिसमें दो विवाहित पीढि़याँ साथ-साथ रहती हों| यह बीमारी अब अमेरिका में रह रहे भारतीय परिवारों में भी घुस गई है| पिछले साल अमृतसर से गई एक दुल्हन ने अपनी अमेरिकी सास से जब कहा कि वह इस घर की चौखट को केवल मरने पर ही छोड़ेगी तो अमेरिकी सास ने मुझसे कहा कि उसकी बहू कहीं पागल तो नहीं हो गई है ?
नव-विवाहितों के क्या कहने, अविवाहित किशोरों को भी अपनी पढ़ाई का खर्चा खुद निकालना पड़ता है| अमेरिका में उच्च शिक्षा बहुत महँगी है| यदि किसी नामी-गिरामी विश्वविद्यालय मंे पढ़ें तो मासिक खर्च लगभग डेढ़ लाख रू0 होता है| जाहिर है कि साधारण अमेरिकी नागरिक इतनी राशि नहीं दे सकता| इसीलिए किशोरों को दिन-रात छोटे-मोटे काम करके अपनी गाड़ी खुद धकानी पड़ती है| शायद यही वजह है कि अमेरिकी नौजवान अपने माता-पिता के प्रति वैसा कृतज्ञता-भाव नहीं रखता, जैसा कि भारतीय नौजवान रखते हैं| अमेरिका में बुढ़ापा काटना इतना कठिन हो जाता है कि जो भारतीय लोग अब से पच्चीस-तीस साल पहले यहाँ आए थे, वे भारत की ओर टकटकी लगाए दिखाई पड़ते हैं| वे वापस लौटने की मानसिकता में उलझ जाते हैं| उनका असमंजस भी विचित्र् है| वे यह नहीं बता पाते कि उन्होंने अमेरिका में बस जाने का जो निर्णय अपनी जवानी में किया था, वह ठीक भी था या नहीं| एक सवाल मैंने सैकड़ों भारतीयों से पूछा| वह यह कि यदि आपको अगला जन्म मिले और आपको यह तय करना हो कि आप अमेरिका में रहेंगे या भारत में तो आप क्या तय करेंगे ? लगभग सभी ने एक ही जवाब दिया कि “भारत में रहेंगे|” यह जवाब मुझे उन्होंने भी दिया, जिनके पास लाखों अमेरिकी डालर हैं, अपने निजी हवाई जहाज हैं और घरेलू नौकर-चाकर भी हैं, याने ऐसे भारतीय जो सम्पन्न अमेरिकियों से भी अधिक सम्पन्न हैं, वे भी अगले जन्म में अमेरिका में नहीं रहना चाहते| आखिर क्यों ?
शायद इसीलिए कि अमेरिकी जीवन की भयंकर चूहा-दौड़ में आगे निकल जाने के बावजूद वे यह महसूस करते हैं कि वे चूहे के चूहे ही रह गए| सारी जिन्दगी का गुणा-भाग करने के बाद उन्हें नतीजे में शून्य ही दिखाई पड़ता है| जब जवान थे, अवसरों का अनंत आकाश उन्हें अपनी तरफ खींचता था| डॉलरों की छोटी-सी कमाई भी रूपए की कमजोर कीमत के कारण कई गुना बड़ी दिखाई पड़ती थी| भारत में खून-पसीना चुआ रहे रिश्तेदारों और मित्रें से तुलना करने पर सीना गर्व से फूल उठता था लेकिन अब जीवन के सांध्य-काल में उन्हें धुंधलका नहीं, अंधेरा ही अंधेरा दिखाई पड़ता है| बुढ़ापे का एकाकीपन तो उन्हें दीमक की तरह खाए जा ही रहा है, वे यह भी महसूस करते हैं कि जिन ऐशो-आराम की चीज़ों को पाने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन झोंक दिया, वे तो अमेरिकियों के लिए बहुत साधारण-सी बात है| 95 प्रतिशत अमेरिकियों को वह सब सहज ही उपलब्ध है, जिसे पाकर यहाँ बसे लोग अपने आपको भारत के दो प्रतिशत सम्पन्नों से भी अधिक सम्पन्न समझने के मुगालते में जी रहे थे| सम्पन्नता की तलाश में अमेरिका आए भारतीयों को जो कुर्बानियाँ करनी पड़ी है, उनका लेखा-जोखा किया जाए तो सचमुच यह लगेगा कि ये लोग भारत में ही रह जाते तो कहीं अधिक संतुष्ट रहते| साधनों की प्रचुरता संतुष्टि की गारन्टी नहीं है, यह इन भारतीयों को देखकर समझ में आ जाता है| चूहा-दौड़ में आगे निकल जाने के खातिर भारतीयों को लगातार 16-16 और 18-18 घंटे काम करते रहना पड़ता है| यों तो कोई भी काम करना बुरा नहीं है लेकिन यहाँ भारतीयों को वे सब काम भी करने पड़ते हैं, जो वे अगर भारत में करें तो उनकी नाक कट जाए| यहाँ बड़े से बड़े आदमी को झाड़ू लगाना, बर्तन माँजना, पाखाने की सफाई करना, बगीचे की घास काटना, खाना बनाना, कपड़े धोना और उन पर इस्तरी करना जैसे काम नित्य प्रति करने पड़ते हैं| पिछले तैंतीस वर्षों में मैंने अपने किसी भी अमेरिकी या भारतीय मित्र् के यहाँ ‘ड्राइवर’ नहीं देखा| निजी कारों में बिल्कुल नहीं| इतनी कमाई कोई नहीं करता कि वह ‘ड्राइवर’ को तनखा दे सकें| अलबत्ता, कुछ घरों में साप्ताहिक या मासिक सफाई के लिए घंटों के हिसाब से नौकर-चाकर आने लगे हैं| वे यहाँ उसी रौब से आते हैं, जैसे कि भारत में मास्टर लोग ट्रयूशन पढ़ाने आते हैं| दूसरे शब्दों में साधारण अमेरिकी के जीवन-स्तर तक पहुँचने के लिए भी भारतीयों को हड्डी-पिघाल परिश्रम करना पड़ता है| अपनी तुलना जब वे भारत के उच्च मध्यमवर्गीय लोगों से करते हैं तो उन्हें अफसोस होता है कि हाय, अमेरिका के चक्कर में क्यों फँस गए ? जहाँ तक अमेरिकियों का सवाल है, उन्हें कोई अफसोस नहीं होता, क्योंकि उनके पास तुलना करने के लिए कोई नहीं है| उनकी जीवन-पद्घति वैसी ही है| उन्हें तब अचरज जरूर होता है, जब उन्हें बताया जाता है कि भारत के उच्च मध्यमवर्गीय लोगों के पास वे सब वस्तुएँ हैं, जो उनके पास हैं और वे भी हैं, जो उनके पास कभी नहीं हो सकतीं| जैसे नौकर-चाकर, सचिव-सहायक, पारिवारिकता, दोस्ती-यारी आदि|
अमेरिका में जन्मे, पले-बड़े भारतीय बच्चों और नौजवानों को वह असमंजस कभी शायद ही होगा, जो उनके माता-पिता को हो रहा है| वे अमेरिकी चाल में ढलते जा रहे हैं लेकिन भारतीय संस्कारों की पकड़ इतनी मजबूत है कि वे अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं| अमेरिका में बसे बूढ़े भारतीयों को अपनी संस्कृति और धर्म को बचाने की जितनी चिंता बनी रहती है, उतनी चिंता भारत के बुजुर्गों में भी दिखाई नहीं पड़ती| इसीलिए लगभग हर शहर में मंदिरों, मस्जिदों, गुरूद्वारों, मठों और आश्रमों की भरमार दिखाई पड़ने लगी है| तरह-तरह के बाबा, साधु-संत, महंत, मठाधीश, पुजारी, पुरोहित, तांत्र्िक, योगी और ज्योतिषी वगैरह फल-फूल रहे हैं| अगले जन्म में पता नहीं, कौन कहाँ पैदा होगा ? तब तक इन्तजार कौन करे ? बुजुर्ग भारतीयों ने अभी से अमेरिका में समानान्तर भारत का निर्माण शुरू कर दिया है| लगभग हर शहर में भारतीय भोजन, भजन, भूषा, भेषज और भाषा का जलवा दिखाई पड़ने लगा है| अमेरिका के विशाल समुद्र में अनेक अन्तरराष्ट्रीय तरंगे उठ रही हैं| इन एक-दूसरे को काटती और जोड़ती हुई तरंगों के बीच अमेरिका में बसे हुए भारतीय अपने लिए अपना एक अलग द्वीप खड़ा कर रहे हैं|
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