R Sahara, 18 May 2003: कबीर ने लिखा है कि शेरों के झुड नहीं होते और हंसों की पंक्तियॉं नहीं होतीं लेकिन अमेरिका में अजूबा हो रहा है| वहॉं करोड़पतियों की संख्या लाखों में है| वहां हर नौवां भारतीय करोड़पति है और इन करोड़पतियों की संख्या सौ-दो सौ नहीं, पूरी दो लाख है| 18 लाख भारतीयों में से 2 लाख भारतीय करोड़पति हैं| अमेरिका में करोड़पति होने का अर्थ है, कम से कम 50 करोड़ रु. का मालिक होना| एक डॉलर बराबर लगभग पचास रु.|
पूरे अमेरिका में कुल 21 लाख करोड़पति हैं याने वहॉं की कुल जनसंख्या (लगभग 27 करोड़) के एक प्रतिशत से भी कम लोग करोड़पति हैं जबकि भारतीयों की कुल जनसंख्या के दस प्रतिशत लोग करोड़पति हैं याने भारतीयों के करोड़पति होने की रफ्तार औसत अमेरिकियों से दस गुना है| अगर यह सत्य है तो क्या यह माना जाए कि अमेरिकियों के मुकाबाले भारतीय लोग 10 गुना अधिक चतुर हैं या परिश्रमी हैं? यदि ऐसा है तो वे भारत में कोई कमाल करके क्यों नहीं दिखाते? शायद इसका कारण भारत की परिस्थितियॉं भी हैं| इसका अर्थ यह भी हुआ कि यदि अमेरिकी लोग भारत में पैदा हुए होते तो शायद वे भी पिछड़ जाते| यदि भारत की परिस्थिति में सुधार हो जाए तो यह असंभव नहीं कि भारत में रहकर भारतीय लोग भारत को अमेरिका से आगे ले जाऍं|
आज भी औसत अमेरिकी की आय लगभग 3 हजार डॉलर प्रतिमास है जबकि औसत भारतीय की आय पॉंच हजार डॉलर है| वर्तमान अमेरिका में भारतीय होना सम्मान और सम्पन्नता का सूचक है| अमेरिका में रहनेवाले भारतीयों के पास बड़ी-बड़ी कारें हैं, लंबे-चौड़े मकान हैं और घरेलू नौकर-चाकर तक हैं| उनकी सम्पन्नता अन्य लोगों के दिल में ईर्ष्या उपजाती है| अमेरिकी लोग जानते हैं कि यदि भारतीय नाराज़ होकर एक साथ भाग खड़े हों तो अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था ठप्प हो सकती है| अमेरिका में बसे भारतीयों की अब दूसरी पीढ़ी भी तैयार हो रही है| भारतीय मूल के नौजवान अमेरिकी राजनीति और प्रशासन में भी हाथ बंटा रहे हैं| कई क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहॉं कांग्रेसमेन का चुनाव-परिणाम भारतीयों वोटों पर निर्भर हो गया है| कोई आश्चर्य नहीं कि आनेवाले कुछ वर्षों में भारतीय लोग सीनेट और कांग्रेस में प्रवेश कर जाएं| यदि भारतीयों की संख्या अमेरिका में बढ़ती रही तो 21वीं सदी के अंत तक कोई भारतीय अमेरिका का राष्ट्रपति बन जाए, यह असंभव नहीं|
पाकिस्तान से आए दर्जन भर सांसदों से मिलना अनेक भारतीयों के लिए अपूर्व अनुभव था| उनकी बातचीत में कहीं कोई कटुता नहीं थी| कश्मीर के सवाल पर वे जोर जरूर देते थे लेकिन यह किसी ने भी नहीं कहा कि कश्मीर की वजह से आपसी संबंधें की गाड़ी को ठप्प कर दिया जाए| आतंकवाद की सभी ने निन्दा की लेकिन कुछेक ने यह भी पूछा कि आम जनता की सहानुभूति न हो तो आतंकवाद जिंदा कैसे रह सकता है? सांसद एम.पी. भंडारा ने बताया कि जिन लोगों ने भारत की संसद पर हमला किया, उन्हीं ने पाकिस्तान में दर्जन भर फ्रांसीसी तकनीशियनों को मार डाला| आतंकवादी किसी के सगे नहीं होते| श्री भंडारा पारसी हैं| मूलत: नागपुर के हैं| कभी केंद्रीय मंत्री भी रहे हैं| वे उद्योगपति और लेखक भी हैं| सन्र 1983 में रावलपिंडी में इन्हीं के घर पर जनरल पीरज़ादा से भेंट हुई थी, जो धारा-प्रवाह संस्कृत बोलते थे और जनरल जि़या-उल-हक के गुरु थे| इस प्रतिनिधि मंडल में दो महिलाएं भी थीं| दोनों बेनज़ीर भुट्टो की पार्टी से थीं| डॉ. जमाल निर्दलीय हैं| वे सरहदी सूबे से चुने गए हैं| उनका कहना था कि भारत आकर उन्हें लग ही नहीं रहा कि वे विदेश-यात्रा कर रहे हैं| कुछ सांसदों ने सुझाव दिया कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक ही व्यापार क्षेत्र क्यों नहीं बनाया जाता? यह सुझाव डॉ. राममनोहर लोहिया के भारत-पाक महासंघ के मूल विचार का ही एक आयाम मालूम पड़ता है| वास्तव में तो पूरे दक्षिण एशिया का महासंघ बनना चाहिए लेकिन बनेगा कैसे? दोनों देशों के नेतागण रोजमर्रा के झंझटों में इस कदर
उलझे रहते हैं कि वे दूर की बात सोच ही नहीं पाते| पाकिस्तान के ये सांसद हमारे सत्तारूढ़ नेताओं से बिना मिले ही वापस जा रहे हैं| लेकिन उनके दिल प्रेम और मधुरता से भरे हुए हैं| ये लोग पाकिस्तान लौटकर दोस्ती और अमन का पैगाम देंगे, इसमें संदेह नहीं है|
अजय गोयल द्वारा संपादित पुस्तक ‘अनकविरंग रशिया’ देखी| अजय गोयल आजकल मास्को में रहते हैं और कुछ वर्षों से अंग्रेजी की पत्र्िाका ‘रशिया जर्नल’ निकाल रहे हैं| ‘रशिया जर्नल’ में छपे लेखों और संपादकीयों का यह संग्रह चकित करता है| रूसी समाज, अर्थ-व्यवस्था और राजनीति पर लिखी गईं ये बेबाक टिप्पणियॉं पाठकों का प्रचुर ज्ञानवर्द्घन करती हैं| यह पुस्तक दर्शकों को अखाड़े के अंदर बिठाकर तमाशा दिखाती है| इसके ज्यादातर लेखक रूसी हैं| रूस-जैसे देश में इतना निर्भय लेखन हो सकता है, यह आनंद और आश्चर्य का विषय है| अब से 35 साल पहले जब मैं मास्को विश्वविद्यालय में पढ़ने गया था तो पहले ही दिन राजदूत डी.पी. धर ने मुझे जुबान पर ताला लगाए रखने की हिदायत दी थी| पूरा सोवियत संघ ही उन दिनों विशाल ताले की तरह दिखाई पड़ता था| गोर्बाचौफ़ ने कुछ ऐसी चाबी लगाई कि ताला ही बिखर गया लेकिन पूतिन ने बचे-खुचे रूस को सहेजा और अपने पॉंव पर खड़ा किया| इस नए रूस की कहानी इस पुस्तक में रोचक ढंग से प्रस्तुत की गई है|
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