दैनिक भास्कर, 25 सितंबर 2008 : भारत-अमेरिकी परमाणु सौदे का भविष्य चाहे जो भी हो, भारत और अमेरिका के संबंध अब एक नए युग में प्रवेश कर गए हैं| अब से 17 साल पहले जब शीतयुद्घ समाप्त हुआ तो भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रहा| उसने विश्व राजनीति के बदलते हुए आयामों को पहचाना और उनके साथ ताल-मेल बिठाया| सोवियत संघ का बिखरना और अमेरिका का एक मात्र् विश्व-शक्ति के रूप में उभरना इस नई विश्व राजनीति का प्रधान लक्ष्य था| जाहिर है कि बोरिस येल्तसिन के रूस के साथ भारत का वैसा संबंध नहीं रह सकता थाद्व जो कभी ख्रुश्चेव और ब्रेझनेव के रूस के साथ था| गुट-निरपेक्षता की ओट में भारत-सोवियत प्रेमालाप का जो लंबा दौर चला थाद्व अब अपने आप फीका पड़ता गया और रूस भी इतना कमजोर हो गया था कि वह एशिया और अफ्रीका में पांव फैलाने की बजाय अपनी जान बचाने में जुटा हुआ था| ऐसे माहौल में क्या भारत अपनी पुरानी नीतियों पर टिका रह सकता था ?
कैसे टिकता ? जब चीन-जैसा राष्ट्र अमेरिका से हाथ मिलाने की कोशिश कर रहा था तो भारत की क्या बिसात थी कि वह अमेरिका को चुनौती देता ? खुद भारत आर्थिक संकट में फंसा हुआ था, गठबंधन-सरकारों का दौर शुरू हो गया था, पड़ौसी पाकिस्तान को आतंकवाद के नाम पर जबर्दस्त प्रश्रय मिलने लगा था और चीन दिन दूनी रात चौगनी उन्नति कर रहा था| स्वयं चीन अमेरिका के साथ दोस्ती की पींगे बढ़ा रहा था| ऐसे वातावरण में भारत ने भी करवट ली और अमेरिका की तरफ अभिमुख हुआ| न सिर्फ भारत-अमेरिका व्यापार बढ़ा बल्कि भारतीय अर्थ-व्यवस्था के पांवों में पड़ी पुरानी बेडि़यां भी टूटने लगीं| भारत को अमेरिका की जितनी जरूरत थी, उससे ज्यादा अमेरिका को भारत की जरूरत महसूस होने लगी| चीन की बढ़ती हुई चुनौतियों ने भारत का महत्त्व बढ़ाया| भारत के मध्यम वर्ग की क्रय-शक्ति और विशाल बाजार ने भी अमेरिका को आकर्षित किया| अमेरिका यह भी नहीं भूला था कि चाहे सैन्य-गुट खत्म हो गए हों, फिर भी तीसरी दुनिया के गुट-निरपेक्ष देशों में भारत का असर ज्यों की त्यों है| भारत की दोस्ती का फायदा तीसरी दुनिया में अमेरिका को अपने आप मिलना था| इसीलिए वाशिंगटन और दिल्ली में सरकारों के बदलने के बावजूद नीतियां नहीं बदलीं| दोनो राष्ट्र लगातार एक-दूसरे के समीप आते गए|
2005 में घोषित सामरिक सहयोग की योजना इसी प्रकि्रया की तार्किक परिणिती थी| यदि अमेरिका के साथ परमाणु-सौदा संपन्न हो जाता है तो संबंधों की यह प्रकिंया घनिष्टता के नए धरातल पर पहुंच जाएगी| परमाणु-सौदे में इतने दांव-पेंच है कि वह होकर भी नहीं हो सकता है| मानो वह विफल हो जाए तो भी उसकी वजह से भारत को अनेक लाभ हो सकते हैं| पहला तो यही कि उसके लिए परमाणु सप्लायर्स ग्रुप के दरवाजें खुल गए हैं| वह दुनिया के किसी भी राष्ट्र से परमाणु क्रय-विक्रय कर सकता है| दुनिया के राष्ट्रों को अब वह अपना परमाणु-माल बेच सकता है| दूसरा, दुनिया के राष्ट्रों ने अनेक किंतु-पंरतु के बावजूद उसे छठी परमाणु शिक्त् मान लिया है| यह दर्जा पाकिस्तान और इस्राइल को नहीं मिला है| बिना परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत किए हुए भारत का छठी परमाणु शक्ति बन जाना अपने आप में एक घटना है| भारत की इस नई हैसियत को चीन और पाकिस्तान द्वारा स्वीकार किया जाना कम बड़ी उपलब्धि नहीं है| यह समझौता सफल हो या विफल, इसके कारण भारत के क्षेत्रीय महाशिक्त् के दावे को मजबूती मिली है| अब भारत चाहे तो सुरक्षा परिषद में अपनी स्थायी सीट के दावे को ज़रा और मजबूती से ठोक सकता है|
भारत को ये सब फायदे अब तक मिलते रह सकते हैं, जब तक कि वह परमाणु-परीक्षण न करे| यदि किसी भी कारण उसने परमाणु-परीक्षण कर दिया तो उसका हुक्का-पानी बंद हो जाएगा| अमेरिका से खरीदी गई सैकड़ों अरब रू. की परमाणु भटि्रटयां, तकनीक और अन्य सामगि्रयां बिल्कुल बेकारहो जाएंगी और अन्य परमाणु सप्लायर देश भी हाथ खड़े कर देंगे| भारत पैंदे में बैठ जाएगा| वह विश्व-अछूत बन जाएगा| इस अर्थ में मनमोहनसिंह-सरकार ने बड़ा जुआ खेला है| अमेरिका सरकार गद्रगद्र है, क्योंकि भारत से उसे कम से कम 150 बिलियन डॉलर के व्यापार की उम्मीद है| चौपट होती अर्थ-व्यवस्था के लिए यह बड़ा सहारा है|
इस सहारे का मुआवज़ा भारत को विदेश नीति के क्षेत्र् में मिल सकता है| पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जैसे देशों की जटिल स्थिति के प्रति भारत का जो भी रवैया रहेगा, उसे अमेरिका खुला या गुपचुप समर्थन देता रहेगा| चीन और रूस के साथ भारत अपने सामरिक या व्यापारिक संबंध घनिष्ट करेगा तो अमेरिका उसमें टांग नहीं अड़ाएगा| बर्दाश्त करेगा| पाकिस्तान-जैसे दुमछल्ले राष्ट्र पर अमेरिका अपना दबाव बनाएगा कि वह भारत के साथ अपने संबंध सुधारे| यह दबाव पिछले छह-सात साल से अपना कमाल दिखा भी रहा है| इसका ताज़ा प्रमाण न्यूयार्क में हुई रास्ते खोलने की घोषणा है| यदि इस अमेरिकी दबाव का फायदा भारत का आग्नेय एशिया और पश्चिम एशिया में भी उठा सके तो क्या कहने ?
अमेरिका से बढ़ती हुई घनिष्टता के कुछ आयाम ऐसे हैं कि जिनसे भारत को सावधान रहना बहुत जरूरी है| अमेरिका की हरचंद कोशिश रहेगी कि वह जो भी गलत सलत कदम उठाता है, भारत उसका समर्थन करे| अमेरिका के इशारे पर ही भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी में दो बार ईरान के विरूद्घ वोट डाला| अमेरिकी दबाव के कारण ही ईरानी पाइपलाइन का मामला अटका हुआ है| यह समझ में नहीं आता कि एराक में अमेरिकी कब्जें का भारत विरोध क्यों नहीं करता ? असेतिया और अबखाजिया के मामले में भी भारत ने कोई दो-टूक रवैया नहीं अपनाया| अमेरिका घनिष्टता का सबसे खतरनाक आयाम यह है थ्क भारत अपने कर्तव्य से विमुख हो सकता है| क्ष्ज्ञेत्र्ीय महाशक्ति होने के नाते जो जिम्मेदारियां उसे निभानी हैं, उन्हें वह अमेरिका के पाले में सरका सकता है| अफगानिस्तान, म्यांमार और तिब्बत की की स्थिरता भारत की क्षेत्र्ीय जिम्मेदारी है| इसी तरह पाकिस्तानी आतंकवाद का मूलोच्छेद भारत का क्षेत्र्ीय दायित्व है लेकिन उसे अमेरिका ने ओढ़ रखा है| डर यह है थ्क् यह भारतीय विदेश नीति का स्थायी भाव न बन जाए| यदि यह डर सच साबित हुआ तो भारत कितना ही शक्तिशाली हो जाए, वह जापान और जर्मनी की तरह अमेरिका का दुमछल्ला बन सकता है| अमेरिकी घनिष्टता के कारण भारत पहुचनेवाली मूल्यमान भारत को अंदर से बिल्कुल खोखला कर सकते हैं, क्या इस खतरे के प्रति हमारी सरकार सावधान है|
Leave a Reply