हिन्दुस्तान, 04 जुलाई 2002: राष्ट्रपति बुश का भाषण उनके लिए नोबेल पुरस्कार का कारण बन सकता था लेकिन अब डेढ़-दो हफ्ते बाद ऐसा लगता है कि वह भाषण अरब-इस्राइली आग को भड़काने में घी का काम करेगा| भाषण का मुखड़ा इतना बढि़या था कि फलस्तीनी नेता यासर अराफात भी उस पर फिदा हो गए| उन्होंने पहले ही दिन बुश के प्रस्ताव का स्वागत कर दिया| जिस गर्मजोशी से अराफात ने स्वागत किया, किसी अन्य अरब नेता ने नहीं किया| अराफात ने स्वागत क्यों किया ? इसीलिए कि पहली बार किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने वह बात कही, जो कभी केम्प डेविड या ओस्लो समझौते में भी नहीं कही गई ! क्या थी, वह बात ! पहली बात तो यह कि फलस्तीन के स्वतंत्र् और संप्रभु राज्य की स्थापना आवश्यक है| दूसरी, यह कार्य अधिक से अधिक तीन वर्ष में सम्पन्न होना चाहिए और तीसरी, संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 242 तथा 338 का पालन करते हुए इस्राइल को अरब भूमि का पूरा कब्ज़ा खाली करना चाहिए| यह सचमुच एतिहासिक घोषणा है| अराफात तो जीवन भर यही चाहते रहे हैं और इसके लिए ही लड़ते रहे हैं| उन्हें तो मुँह मांगी मुराद मिल गई| लेकिन क्या वजह है कि अराफात से भी ज्यादा इस्राइल ने इस भाषण का स्वागत किया ? इस प्रश्न का रहस्य खुलते ही यह सिद्घ हो जाएगा कि वह भाषण कितना आत्म-पराजयी और आत्मघाती है !
राष्ट्रपति बुश के भाषण पर इस्राइल जैसा आज मुग्ध है, पहले कभी नहीं हुआ| लगता है, जैसे वह भाषण स्वयं इस्राइल के प्रधानमंत्री एरियल शेरोन ने लिखा हो| एक इस्राइली अखबार ने यहाँ तक लिखा है कि यह भाषण देकर बुश इस्राइल की उग्रवादी लिकुद पार्टी के मनोनीत माननीय सदस्य बन गए हैं| वे ‘विश्व यहूदीवाद’ के स्वर्ण-पदक के हकदार बन गए हैं| बुश ने आखिरकार इस्राइल को ऐसा क्या परोस दिया है कि वे बुश की विरुदावलियाँ गा रहे हैं ? सबसे पहला बम तो बुश ने यह कहकर गिराया कि उन्होंने यासर अराफात के फलस्तीनी आंदोलन से अलग होने की माँग कर दी है याने जब तक अराफात फलस्तीन की तदर्थ सरकार के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का पद नहीं छोड़ेंगे, अमेरिकी सरकार फलस्तीनियों से कोई बात नहीं करेंगी| यही माँग एरियल शेरोन की रही है| इतना ही नहीं, बुश ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जनवरी 2003 में होने वाले फलस्तीनी चुनावों में वर्तमान नेतृत्व का बहिष्कार किया जाए और ऐसा नेतृत्व लाया जाए, जो आतंकवाद से समझौता न करे अर्थात्र उन्होंने अराफात की सरकार को आतंकवाद-समर्थक घोषित कर दिया है| उन्होंने इस वज्रपात के साथ-साथ अपने पूरे भाषण में फलस्तीनियों को नीम की कड़वी गोलियाँ जमकर खिलाई हैं, जबकि इस्राइल को रसगुल्ले परोसे हैं| उन्होंने बार-बार कहा है कि फलस्तीनी लोग आतंकवाद को पूरी तरह बंद करें, लोकतांत्रिक ढंग से रहें, फलस्तीनी सरकार में से भ्रष्टाचार मिटाएँ, इस्राइल, मिस्र और जोर्डन के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की शपथ लें और अपने नेतृत्व को उलट दें तो अमेरिका और पश्चिमी देश उन्हें संप्रभु राष्ट्र बनने में सकि्रय सहायता करेंगे| उन्होंने इस्राइल से यह नहीं कहा कि फलस्तीनी जमीन खाली करें, फलस्तीनी ठिकानों पर नए कब्ज़े बंद करें, फलस्तीनी नागरिकों को जानवरों की तरह न मारें, छोटे-मोटे आतंकवादी हमलों के जवाब में बेकसूर नागरिकों को जबर्दस्त सजाएँ न दें, फलस्तीनी शहरों की वह नाकेबंदी समाप्त करे, जिसके कारण सामान्य व्यापार और यातायात ठप्प-जैसा है| यह आश्चर्य की बात है कि अमेरिका फलस्तीनी क्षेत्र् में लोकतंत्र् और मुक्त-अर्थव्यवस्था को साकार हुआ देखना चाहता है और उस इस्राइल को कुछ भी नहीं कहता, जो इन दोनों लक्ष्यों के मार्ग का रोड़ा बना हुआ है| अमेरिका का यह पैंतरा दुनिया के लोग बिल्कुल भी नहीं समझ पा रहे हैं कि जब तक फलस्तीन का जन-जीवन सामान्य नहीं हो जाएगा, वहाँ मुक्त और निष्पक्ष चुनाव कैसे हो पाएँगे ? बुश के भाषण के बाद इस्राइल ने न केवल हेब्रोन पोर्ट पर कब्ज़ा कर लिया बल्कि पश्चिमी तट पर जेरिको के अलावा सभी शहरों पर अपनी फौज बिठा दी है| यासर अराफात को दुबारा उनके मुख्यालय में कैद कर दिया है|
इस्राइल का यह कदम किस बात का सूचक है ? क्या इसका नहीं कि बुश के भाषण ने उसके हौंसले पहले से भी बुलंद कर दिए हैं ? क्या यह ओस्लो-समझौते का उल्लंघन नहीं है ? यही वजह है कि दुनिया के लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रों ने बुश के भाषण की फलस्तीनी राज्यवाली बात का तो स्वागत किया है लेकिन फलस्तीनी नेतृत्ववाली बात का विरोध किया है| अरब राष्ट्रों ने दबी जु़बान से ही सही, यह जरूर कहा है कि फलस्तीन के नेतृत्व का फैसला फलस्तीनियों को ही करने दिया जाए| अन्तरराष्ट्रीय इस्लामी संगठन ने अपने सम्मेलन में भी यही बात कही है और मज़ेदार बात यह है कि जी-8 के केनेडा सम्मेलन में पश्चिमी राष्ट्रों ने भी बुश के इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया है कि अराफात को हटा दिया जाए| बि्रटिश प्रधानमंत्र्ी टोनी ब्लेयर और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने भी अमेरिकी प्रस्ताव को अनुचित बताया है| वास्तव में फलस्तीनी नेतृत्व को बदलने की बात फलस्तीन के अन्दरूनी मामले में सरासर हस्तक्षेप है| यह संयुक्तराष्ट्र घोषणा-पत्र् का भी उल्लंघन है| अमेरिका को इस तरह की बेजा माँगें पेश करने की आदत पड़ गई है| कई वर्षों से वह लीब्या के कर्नल कज्ज़ाफी और एराक़ के सद्दाम हुसैन को हटाने की माँग करता रहा है| यासर अराफात जैसा नेता, जो 88 प्रतिशत मतों से राष्ट्रपति चुना गया है, उसे इस्राइल के इशारे पर सेंत-मेंत में हटा देने की माँग करना, कौनसी लोकतांत्र्िकता है ? इसका मतलब यह नहीं कि अराफात बिल्कुल दूध के धुले हुए हैं और उनसे कुछ भी गलतियाँ नहीं हुई हैं| उन पर यह आरोप है कि पिछले दिनों ही उन्होंंने कुछ आतंकवादी तत्वों को 20 हजार डॉलर दिए हैं तथा वे आतंकवादियों को गुप-चुप उकसाते रहते हैं| इसके अलावा कुछ अरब शेखों की यह राय भी है कि अराफात ने फलस्तीन की तदर्थ सरकार को अपनी जेब में डाल रखा है और उसकी संसद को रबर का ठप्पा बना दिया है| यदि वे सचमुच आतंकवाद के खिलाफ होते तो इस्राइल पर इधर हुए आत्मघाती हमले नहीं होते| इस्राइल की इस धारणा को अमेरिका ने ज्यों का त्यों निगल लिया है| उसने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि आतंकवादी हमले करनेवाला खूंखार संगठन ‘हमस’ इस्राइल से भी ज्यादा अराफात के खून का प्यासा है और अराफात ने उसके नेता शेख अहमद यासीन को फलस्तीन में नज़रबंद कर रखा है| 72 वर्षीय अराफात अब भी अरबों के सबसे लोकपि्रय नेता हैं| यदि वे चुनाव लड़ेंगे तो अवश्य जीतेंगे| उनके बदले अभी तक इस्राइल और अमेरिका को कोई ऐसा फलस्तीनी नेता नहीं मिला है, जिसे वे विभीषण बना सकें या क्विसलिंग की तरह इस्तेमाल कर सकें| यदि अराफात स्वयं हटना चाहें तो और बात है| उनके स्वेच्छया पद-त्याग के बाद भी जिन तीन-चार नेताओं के नाम उभर सकते हैं, उनमें भी कोई ऐसा नहीं है, जिसे इस्राइल अपनी कठपुतली बना पाएगा| असलियत तो यह है कि उनमें के कुछ आतंकवाद के आरोप में इस्राइली जेल में हैं|
राष्ट्रपति बुश अपने भाषण से खुद परेशान हैं| वे अपने सलाहकारों से पूछ रहे हैं कि 28 ड्राफ्ट बनाने के बावजूद इस भाषण में अराफात के बारे में कही गई बात दुनिया क्यों नहीं मान रही है ? सारी दुनिया के विरोध के बावजूद अगर अमेरिकी सरकार अराफात को हटाने और उनके बहिष्कार पर डटी रही तो अगले छह माह में चुनाव के लिए जो अनुकूल वातावरण बनना चाहिए, वह कैसे बन पाएगा ? यदि इस्राइली और अमेरिकी सरकारों ने फलस्तीनी आतंकवादियों और अराफात के प्रतिद्वंद्वियों से कोई सांठ-गांठ कर रखी हो तो और बात है, वरना चुनाव-पूर्व इस अंतरिम काल में हिंसा और रक्तपात के बढ़ने की संभावनाएँ तेज़ होती जाएँगी|
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