नया इंडिया, 25 दिसंबर 2013 : भारत में पिछले 66 साल में दर्जन भर से ज्यादा प्रधानमंत्री हो गए लेकिन मेरी राय में सिर्फ चार प्रधानमंत्री अभी तक ऐसे हुए हैं, जिन्हें देश लंबे समय तक याद करेगा। ये हैं – जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, पीवी नरसिंहराव और अटलबिहारी वाजपेयी! इन चारों प्रधानमंत्रियों ने अपनी पूर्ण अवधि तक राज किया और भारत के इतिहास-पटल पर ऐसी गहरी लकीरें खींच दी हैं कि जिनका आनेवाले कई दशकों तक प्रभाव बना रहेगा।
श्रीमती इंदिरा गांधी से मेरा काफी संपर्क रहा। नरसिंहरावजी के साथ घनिष्ट सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर मिला और अटलजी के साथ छात्र-काल से बना आत्मीय और पारिवारिक संबंध उनके प्रधानमंत्री काल और बाद में भी बना रहा है। मुझे कहा गया है कि मैं यह बताऊं कि अटलजी किन-किन बातों के लिए याद किए जाएंगे?
सबसे पहली बात, जिसके लिए अटलजी को सदियों तक याद किया जाएगा, वह है, पोखरन का परमाणु-विस्फोट! वह भारतीय संप्रभुता का शंखनाद था। दुनिया की परमाणु-शक्तियां 12 मई 1998 को बहुत बौखलाईं। उन्होंने अनेक अप्रिय बयान और धमकियां भी जारी कीं लेकिन यही वही दिन था, जब से भारत की गणना शक्तिशाली राष्ट्रों में होने लगी। अटलजी ने इंदिराजी का अधूरा काम पूरा किया। यह काम राव साहब करें, यह सलाह मैंने उन्हें चुनाव के तीन-चार माह पहले दी थी। उन्होंने तैयारी भी कर ली थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबावों के डर से उन्होंने देर कर दी। वे सोच रहे थे कि दुबारा चुनकर आएंगे, तब करेंगे। अटलजी को जैसे ही मौका मिला, उन्होंने यह चमत्कारी कदम उठा लिया। यह विस्फोट शनिवार की शाम को हुआ था। रविवार की सुबह उनसे मेरी बात हुई। उसके पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से सुबह ही फोन पर मेरी बात हुई। वे लाहौर के अपने माॅडल टाउन वाले बंगलों में उस रात ही लौटे थे। मैंने अटलजी से कहा कि अगले हफ्ते-डेढ़ हफ्ते में ही पाकिस्तान भी बम फोड़ेगा, वरना नवाज़ शरीफ को गद्दी छोड़ना पड़ेगी। अटलजी को विश्वास नहीं हुआ। फिर भी मैंने उनसे कहा कि आप मियां नवाज़ को फोन कीजिए और उनसे कहिए कि ये भारत का नहीं, तीसरी दुनिया का बम है। आपका भी है और हमारा भी है। इस पर भी पाकिस्तान विस्फोट कर ही दे तो हमें एक द्विपक्षीय परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) और विशद् परमाणु-परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) के लिए तैयार करना चाहिए। पाकिस्तान ने कुछ दिनों बाद हमसे भी बड़ा विस्फोट कर दिया। भारत ने ‘हम पहल नहीं करेंगे’ याने आगे होकर हम परमाणु हथियार नहीं चलाएंगे, ऐसी रचनात्मक घोषणा की। बाद में मैंने द्विपक्षीय भारत-पाक परमाणु संधि पर एक लेख लिखा, जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने प्रधानमंत्री के कहने पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार समिति के सभी सदस्य को भिजवाया। कहने का तात्पर्य यह कि अटलजी अपने से छोटों की बात पर ध्यान देनेवाले नेता भी थे।
अटलजी का दूसरा उल्लेखनीय काम था लगभग दो दर्जन दलों की गठबंधन सरकार को पूरे पांच साल तक चला ले जाना। आज तक देश का कोई अन्य नेता ऐसा चमत्कार नहीं कर सका। उनके गठबंधन में फारुक अब्दुल्ला की कश्मीरी पार्टी से लेकर जयललिता और एस. रामदास की तमिल पार्टी भी थीं। उन्होंने भाजपा को सचमुच एक राष्ट्रीय पार्टी बना दिया। यदि भाजपा के पास अटलजी जैसा सर्व समावेशी व्यक्तित्व नहीं होता तो ऐसा गठबंधन बनना मुश्किल हो जाता। यदि स्वार्थवश कुछ दल इकट्ठे हो जाते तो भी उन्हें टूटने में ज्यादा समय नहीं लगता। अटलजी के व्यक्तित्व की खूबी थी कि शरद यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, फारुक जैसे लोग भी उनकी सरकार में सहर्ष काम करते रहे। उन्होंने जसवंतसिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे राजनीति के बाहर से आए लोगों से भी काम लिया। विभिन्न क्षेत्रीय दलों की तरफ से आनेवाले दबावों को वे गद्दीदार कागज की तरह से सोखते रहते थे। उन्होंने भाजपा जैसी विचारधारा में आबद्ध पार्टी को नरम किया और कश्मीर, राम मंदिर और समान आचार संहिता जैसे मुद्दों को हाशिए में डाल दिया। एक अर्थ में उन्होंने अपनी सरकार को शक्तियों के ऐसे विराट् गठबंधन में परिवर्तित कर दिया, जिनसे मिलकर कभी नेहरु की कांग्रेस बनी थी। परमाणु-बम के मामले में उन्होंने इंदिराजी के काम को आगे बढ़ाया तो विविध शक्ति-समन्वय के मामले में उन्होंने नेहरुजी के काम को नया आयाम दिया। अटलजी ने अपनी चातुर्य से यह महत्वपूर्ण बात रेखांकित की कि यदि भारत को भारत की तरह चलाना है तो अपनी पार्टी और सरकार को सर्वसमावेशी बनाकर चलाना होगा। वे शासन के संचालन में अपनी विरोधी कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं के अनुभवों से लाभ उठाने में भी कोई संकोच नहीं करते थे। उनका स्वभाव इतना अच्छा था कि यदि देश में कोई सर्वदलीय सरकार भी बनती तो यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी उन्हें दिल से नेता स्वीकार कर लेतीं, चाहे प्रकट तौर पर वे उनका विरोध ही करतीं। इस दृष्टि से अटलजी भावी पीढ़ियों के नेताओं के लिए अनुकरणीय बन गए हैं। इसीलिए मैंने पिछले दिनों एक लेख में लिखा था कि जब तक नरेंद्र मोदी के शरीर में अटलजी की आत्मा का प्रवेश नहीं होगा, उनका प्रधानमंत्री बनना और बनकर टिके रहना मुश्किल होगा।
अटलजी के कार्यकाल में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कार्य शुरु हुए, जो अपनी रचनात्मकता और नवीनता के लिए जाने जाएंगे। जैसे सड़कों से पूरे देश को जोड़ना। नदियों को भी एक-दूसरे से जोड़ने की योजना उन्होंने बनाई थी। इसके अलावा सरकार की कई बीमारु संस्थाओं को उन्होंने गैर-सरकारी बना दिया। यह थोड़े साहस का काम था। उन्होंने नरसिंहराव सरकार की कई पहलों को अंजाम दिया। अर्थ-व्यवस्था में भी नई चमक पैदा हुई। मंहगाई पर नियंत्रण हुआ। लोगों की आमदनी बढ़ी। करगिल-युद्ध में भी भारत की जीत हुई। सरकार ने संयम से काम लिया। भारत ने पाकिस्तानियों को अपने क्षेत्र से बाहर खदेड़ा लेकिन उनके क्षेत्र पर कब्जा नहीं किया। सारी दुनिया में भारत की सराहना हुई और पाकिस्तान की निंदा।
उस जमाने में विदेश नीति के क्षेत्र में अटलजी ने कुछ ऐसे कदम उठाए, जिनका प्रभाव हमें भावी दशकों में बराबर देखने को मिलेगा। उन्हें यह श्रेय मिलेगा कि उन्होंने अफगानिस्तान को भू-राजनैतिक आजादी दिलाई। मैं इंदिराजी और अफगान राष्ट्रपति सरदार दाउद खान से 1973 से आग्रह कर रहा था कि वे पाकिस्तान की घेराबंदी खत्म करें। अफगानिस्तान आने-जाने के लगभग सभी प्रमुख मार्ग पाकिस्तान होकर निकलते हैं। पाकिस्तान जब चाहता है, अफगानिस्तान का हुक्का-पानी बंद कर देता है। इससे भारत और अफगानिस्तान के संबंधों में सबसे बड़ी बाधा उपस्थित हो जाती है। अटलजी ने अफगानिस्तान से ईरान की सीमा तक एक पक्की सड़क बनवा दी। यह जरंज-दिलाराम मार्ग ऐसा विकल्प है, जो ईरान की खाड़ी के जरिए अफगानिस्तान को पूरे दक्षिण एशिया से जोड़ देगा। हामिद करजई की सरकार को अन्य क्षेत्रों में सक्रिय सहयोग देने और अफगानिस्तान को दक्षेस का सदस्य बनवाने के लिए भी अटलजी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
इसी प्रकार अटलजी ने चाहे करगिल में पाकिस्तान को सबक सिखाया लेकिन उन्होंने बाद में जनरल परवेज़ मुशर्रफ की सरकार से अच्छे संबंध बनाने की भरसक कोशिश की। उन्हीं का कूटनीतिक कौशल था कि पाक सरकार ने 2004 में कहा कि वे भारत के विरुद्ध अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवादियों को नहीं करने देंगे। संसद पर हमला होने के बाद भारत ने सीमांत पर जो शक्ति-प्रदर्शन किया, उसने पाकिस्तान के होश ढीले कर दिए थे। कश्मीर पर मुशर्रफ का रवैया काफी बदल गया था। दोनों कश्मीरों के बीच आवाजाही शुरु हो गई थी। वीज़ा के प्रतिबंध कुछ ढीले पड़े थे। लोगों के संबंध आपस में बढ़ने लगे थे। यदि अटलजी एक बार और प्रधानमंत्री रह जाते तो भारत-पाक संबंध शायद हमेशा के लिए सुधर जाते, क्योंकि उन दिनों कई बार मुझे पाकिस्तान जाने का मौका मिला और वहां मैंने पाया कि अटलजी से ज्यादा लोकप्रिय कोई भी अन्य भारतीय नेता नहीं हुआ। यहां तक कि जमाते-इस्लामी के नेता भी अटलजी के बारे में संभलकर बोलते थे।
श्रीलंका, नेपाल, बर्मा आदि के बारे में अटलजी ने कई पहल कीं लेकिन अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को सहज पटरी पर लाने का मुख्य श्रेय उन्हीं को है। वे चीन के साथ भी सहज संबंध बनाने को उत्सुक थे। जब वे विदेश मंत्री थे, मोरारजी देसाई की सरकार में, तब भी उन्होंने विशेष प्रयत्न किया था। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि उनकी विदेश नीति में भी उनके व्यक्तित्व की गरिमा और उदारता सदा प्रतिबिंबित होती रही। यह होते हुए भी भारत के राष्ट्रहित की कभी उपेक्षा नहीं हुई।
श्री अटलबिहारी वाजपेयी की संवेदना और करुणा का सर्वोत्तम उदाहरण तब देखने को मिला, जब 2002 में गुजरात में नर-संहार हुआ। जिस दिन गोधरा में वह दुर्घटना हुई, अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई भारत आए हुए थे। हैदराबाद हाउस में राजभोज था। लगभग दोपहर 3.30 पर हम लोग जब बाहर निकले तब पता चला कि गोधरा में कई लोगों को जिंदा जला दिया गया। उसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई। अटलजी से बराबर बातचीत होती रहती थी। कुछ दिन बाद नवभारत टाइम्स में मेरा लेख छपा, जिसमें मैंने लिखा, गुजरात में राजधर्म का उल्लंघन हो रहा है। लेख पढ़ते से ही अटलजी ने मुझे फोन किया और जैसे कि उनका स्वभाव है, उन्होंने अतिशय प्रशंसा की। उन्होंने ‘राजधर्म’ के उल्लंघन की बात को कई बार दोहराया और वह आज भी एक मुहावरे की तरह दोहराया जाता है। गुजरात के बारे में अटलजी और मेरे बीच काफी विचार-विमर्श हुआ, जिसके बारे में कभी और लिखूंगा लेकिन स्वयं गुजरात जाकर अटलजी ने शरणार्थियों के शिविर में भाव-विहल होकर जैसे आंसू बहाए, वैसे तो कोई कवि-हृदय ही बहा सकता है। यह आम राजनेताओं या प्रधानमंत्रियों के बस की बात नहीं है।
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