नया इंडिया, 16 सितंबर 2014 : भारत के अस्पताल और डाॅक्टर रोगियों कोकिस बुरी तरह लूटते हैं, इस बारे में कुछ तथ्य अभी सामने आए हैं। रोगियोंकी शल्य-चिकित्सा के समय जो भी उपकरण उनके शरीर में लगाए जाते हैं, उन्हें दुगुने-तिगुने दामों में बेचा जाता है। रोगी या उसके परिजन मजबूर होतेहैं। वे क्या करें? अस्पताल या डाक्टर जो भी बिल बनाकर दे देता है, वह उन्हेंभरना पड़ता है।
अभी पता चला है कि हृद-रोग से पीडि़तों को जो ‘स्टेन्ट’ लगाया जाता है, उसपर अस्पताल 60 हजार रु. से 1 लाख रु. तक मुनाफा कमाते हैं। वे रोगी सेकहते हैं कि यह यंत्र तो हमने विदेश से मंगाया है। क्या करें, यह डाॅलर मेंखरीदना पड़ता है। आपको पता ही है कि डाॅलर तो रुपए की तुलना में लगभग60 गुना भारी होता है। बेचारा रोगी यह कैसे पता करे कि अस्पताल ने वहउपकरण कौनसी कंपनी से मंगाया, कितने में मंगाया और कब मंगाया। कईबार कई मियाद बाहर उपकरण भी रोगियों को चिपका दिए जाते हैं। रोगियोंको यह भी बता दिया जाता है कि विदेशी उपकरण ही सर्वश्रेष्ठ हैं। भारत में बनेउपकरण का कोई भरोसा नहीं। रोगी को अपना घर या जेवर या जमीन बेचनापड़े लेकिन वह अस्पताल की इस ठगी का शिकार हुए बिना नहीं रह पाता। जोलोग गरीब हैं (इनकी संख्या 100 करोड़ के आस-पास है), उनके पास बेचने केलिए कुछ नहीं होता है। उन्हें कर्ज भी कौन देगा? वे अपना इलाज़ कराने कीबजाय अपना सिर मृत्यु की दहलीज़ पर टिका देते हैं।
चिकित्सा-जैसे पवित्र-व्यवसाय को इतना अधःपतन हो रहा है और हमारीसरकार सोई हुई है। जैसे दवाइयों की कीमतों पर कुछ नियंत्रण लागू हुआ है,वैसे ही इन चिकित्सा-उपकरणों की कीमतों पर नियंत्रण की व्यवस्था तुरंतक्यों नहीं करती? जरुरी यह है कि देश में चिकित्सा और शिक्षा सर्वसुलभ हो।इसके लिए या तो इन दोनों का पूर्ण सरकारीकरण हो या फिर स्कूल-कालेजोंऔर अस्पतालों पर इतना कड़ा नियंत्रण हो कि वे किसी को ठग न सकें।आजकल पढ़ाई और दवाई, दोनों में नैतिकता शून्य होती जा रही है। वे सिर्फपैसा कमाने का धंधा बन गए हैं। धंधों में फिर भी कुछ नैतिक नियमों कापालन होता है लेकिन पढ़ाई और दवाई के क्षेत्रों में जैसी लूटमार और ठगी कामाहौल बन गया है, वह दुनिया के ‘सबसे पुराने धंधे’ को भी मात करता हुआदिखाई पड़ रहा है।
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