नया इंडिया, 20 दिसंबर 2013: कांग्रेस संसदीय दल को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने जो कुछ कहा, क्या उसे सुनकर किसी कांग्रेसी सांसद को संतोष हुआ होगा? उसके घावों पर मरहम लगा होगा? जितने सांसद वहां बैठे हुए थे, उनमें से तीन-चैथाई को पता है कि वे अगली संसद का मुंह नहीं देख पाएंगें लेकिन वे बेचारे क्या करें? मुंह पर पट्टी बांधकर बैठे रहना उनकी मजबूरी है। उनमें से किसी ने भी खड़े होकर मां-बेटा नेतृत्व को चुनौती नहीं दी। किसी ने भी अ-नेता प्रधानमंत्री को आड़े हाथों नहीं लिया। बल्कि यह टुकुर-टुकुर देखते रहे कि उनके महान नेताओं ने अपनी हार का सारा ठीकरा प्रतिपक्ष के माथे फोड़ दिया। यह कहना कितना हास्यास्पद है कि प्रतिपक्ष याने नरेंद्र मोदी एंड कंपनी अपने कुप्रचार में सफल हो गई। वे अपने झूठ को जनता के गले उतारने में सफल हो गए। उन्होंने कांग्रेस सरकार के अच्छे कामों को दबाया और मंहगाई वगैरह को उछालकर लोगों को गुमराह कर दिया। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत की जनता मूर्ख है। वह सच्चाई की पहचान करना नहीं जानती। इतना ही नहीं, इन अ-नेताओं ने यह नहीं बताया कि कांग्रेस पार्टी ने जो अरबों रुपया इकट्ठा कर रखा है, आखिर उसे किस काम में लगाया गया है? प्रचार के साधनों पर किसका कब्जा ज्यादा है? कांग्रेस का या प्रतिपक्ष का?
दोनों अ-नेताओं ने असली मर्ज़ पर उंगली नहीं रखी। उन्होंने यह नहीं बताया कि उन्हें भ्रष्टाचार ले डूबा। वे पार्टी अनुशासन आदि की नकली दलीलें देते रहे। मां-बेटा पार्टी में किसकी हिम्मत है कि वह अनुशासन भंग करेगा? मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री या पार्टी-नेता की बजाय गांव की पाठशाला के माट्साब की तरह सांसदों को अर्थशास्त्र का क ख ग समझाते रहे। उन्होंने कितना बड़ा रहस्य उजागर कर दिया? वे बोले कि अरे, मंहगाई बढ़ी तो क्या हुआ? लोगों की आमदनी भी तो बढ़ी है। चार राज्यों की हार भी कोई हार है? अभी हिम्मत हारने का कोई कारण नहीं है। हार-जीत तो चलती रहती है। याने बेचारे घबराए हुए सांसदों को अर्थशास्त्रीजी ने अब दर्शन शास्त्र का भी ‘डोज़’पिला दिया। उन्होंने सुद्दढ़ नेतृत्व को भी खाली माया-मोह की संज्ञा दे डाली। वे पूछते हैं कि तगड़े नेता का देश क्या करेगा? नेता तगड़ा हो और उसे पता ही न हो कि उसे करना क्या है तो उसका फायदा क्या है? उन्होंने यह नहीं बताया कि नेता दब्बू हो और उसे यह भी पता न हो कि करना क्या है तो देश को कितना नुकसान होता है? जिन मुद्दों का इन चार राज्यों के चुनाव से कोई संबंध नहीं रहा, उन पर दोनों नेता अपनी तान तोड़ते रहे। वे कहते रहे कि प्रतिपक्ष (नरेंद्र मोदी) सांप्रदायिकता फैलाता रहा और वोटों की फसल काटता रहा। यह तो कोई मुद्दा था ही नहीं। लेकिन असली अ-नेता वही होता है, जो अ-मुद्दे को मुद्दा बनाने की कोशिश करता है और मुद्दे को अ-मुद्दा।
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