नया इंडिया, 04 अगस्त 2014: कांग्रेस जैसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के नेताओं में अब थोड़ा-बहुत साहस पैदा हो गया है। वे मुंह खोलने लगे हैं। अपने मालिकों के सामने ‘जी-हुजूर’ बोलने के अलावा वे कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं करते थे। पंजाब के कांग्रेसी नेता जगमीतसिंह बरार ने काफी प्राणलेवा बयान दे दिया है। उन्होंने कहा है कि मां-बेटा अब दो साल तक कुर्सी खाली करें और कांग्रेस को अपने पांव पर खड़े होने दें। उनके पहले केरल के टीके मुस्तफा, राजस्थान के भंवरलाल शर्मा और मप्र के गुफरान आजम भी उंगली उठा चुके हैं। नटवरसिंह तो आजकल छाए हुए ही हैं।
इन सब साहसिक लोगों के बारे में एक बड़ा कड़ुआ सच हमें पहले जान लेना चाहिए। यह सच बोलने का साहस उन्होंने तब नहीं दिखाया जब मां-बेटा दनदना रहे थे। क्यों उन्हें तब यह नहीं दिख रहा था कि कांग्रेस की लुटिया डूब रही है? क्या उन्हें पता नहीं था कि दोनों को भाषण देना नहीं आता, तर्क करना नहीं आता, दोनों पढ़े-लिखे नहीं हैं, दोनों देश के किसी भी मामले में नीति-निर्धारण की योग्यता नहीं रखते। सारे कांग्रेसी इन तथ्यों को भली-भांति जानते थे। इसके बावजूद उन्होंने मां-बेटा राज को कबूल किया।, जी-हुजूरी करते रहे और अब दुर्दिन में उन पर टूट पड़े हैं। इसमें सोनिया और राहुल का क्या दोष है?
सोनिया और राहुल की सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि वे अपनी कमजोरियों को जानते हैं। इसीलिए उन्होंने प्रधानमंत्री या मंत्री पद पर कभी कब्जा नहीं किया। अभी राहुल को विपक्ष का नेता बनने से कौन रोक सकता था? लेकिन उन्होने खड़गे को बना दिया। यह ठीक है कि सोनिया और राहुल को अपनी जान का डर रहा हो लेकिन प्रधानमंत्री पद किसी भी नेता के लिए इतनी बड़ी चीज होती है कि वह जान पर खेलना भी पसंद करता है। मां और बेटा-दोनों इस पद के मोह में नहीं फंसें, क्या इसे अति मानवीय गुण नहीं कहेंगे? मनमोहनसिंह जानते थे कि वे प्रधानमंत्री पद के सर्वथा अयोग्य हैं लेकिन फिर भी कूद पड़े। उनसे ज्यादा चतुर मां-बेटा निकले। उन्होंने अपनी जगह कामचलाऊ कठपुतला बिठा दिया। इतिहास इसी कठपुतले को कूटता रहेगा।
आज कांग्रेस की दशा ऐसी हो गई है कि बरार के सुझाव को लागू करना ही असंभव है। यदि मां-बेटा हट जाएं तो कांग्रेस को कौन संभालेगा? सारे कांग्रेसी पिछले 15 साल में लिलिपुट बन गए हैं। उनमें कौन गलीवर है? उनमें कौन इतना कद्दावर है कि सब जिसक मान लेंगे? आज यदि मां-बेटा हट जाएं तो कांग्रेस के 44 सांसद भी चार दलों में जा मिलेंगे। जरूरी यह है कि दोनों हिम्मत बटोरें, देशहितकारी मुद्दों पर डटें, जी हुजूरों से बचें, पार्टी में पूर्ण आंतरिक लोकतंत्र आने दें। उसके आने पर हट जाएं। अपना पिंड छुड़ाएं लेकिन आज भारत को तगड़े विपक्ष की जरूरत है। उसके बिना मोदी-सरकार विफल हो जाएगी। 1967 में लोहिया के पास दस सांसद भी नहीं थे लेकिन वे सरकार को चिट्टी उंगली पर नचाते रहते थे। संख्याबल अपनी जगह है लेकिन बुद्धिबल से बड़ा कोई बल नहीं है।
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