दैनिक भास्कर, 18 जनवरी 2014 : आम आदमी पार्टी जैसा चमत्कार भारत की राजनीति में पहले कभी नहीं हुआ। आज तक भारत में कोई ऐसी पार्टी पैदा नहीं हुई, जिसके रोज ही लाखों सदस्य बन रहे हों और जिसे घर बैठे लोगों ने करोड़ों का चंदा भेज दिया हो। ऐसी पार्टी भी कोई नहीं हुई, जिसके कर्ता-धर्ता बिलकुल नौसिखिए हों और जिन्हें अपने पहले चुनाव में ही सत्तारूढ़ होने का मौका मिल गया हो। क्या आपने किसी ऐसी पार्टी का नाम सुना है, जिसने अपने जन्म के पहले साल में ही लोकसभा के 400 उम्मीदवार खड़े करने की महत्वाकांक्षा पाली हो?
हां, चमत्कार तो पहले भी हुए हैं लेकिन उनमें और जो अब हो रहा है, उसमें जमीन-आसमान का अंतर है। 1977 में इंदिरा गांधी जैसी परमप्रतापी प्रधानमंत्री का सूपड़ा साफ करना इसीलिए संभव हुआ कि आपातकाल की कालीघटा ने सारे भारत को घेर लिया था। इसके अलावा विरोध का झंडा उन लोगों के हाथ में था- जयप्रकाश, मोरारजी, जगजीवन राम आदि, जो इंदिरा गांधी से भी ज्यादा अनुभवी नेता थे। इसी तरह राजीव गांधी के विरुद्ध 1989 में जो लहर चली थी, उसका नेतृत्व चंद्रशेखर, देवीलाल, वीपी सिंह जैसे दिग्गज कर रहे थे। बोफोर्स तोपों की रिश्वत सारे देश में इतने जोर से गडग़ड़ा रही थी कि कांग्रेस की तूती उसमें डूब गई। किंतु जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है, इसके पास न तो कोई परखा हुआ अनुभवी नेता है, न ही इसके पास वैकल्पिक राजनीति का कोई नक्शा है, न ही कोई देशव्यापी संगठन है और न ही इसके पास कुबेर के खजाने हैं (जैसे कि अन्य पार्टियों के पास हैं)। तो इसके पास कौन-सी ऐसी जादू की छड़ी है कि जिसे घुमाकर यह दिल्ली नामक राज्य में सत्तारूढ़ हो गई है?
सत्तारूढ़ तो यह इसलिए हुई है कि कांग्रेस ने जुआ खेल लिया। सत्तारूढ़ तो होना था, भाजपा को, क्योंकि उसे सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन कांग्रेस ने एक जबर्दस्त दांव मारा। दिल्ली में चकनाचूर हुई कांग्रेस ने सोचा कि सारे देश में उनकी असली दुश्मन तो भाजपा है। किसी भी कीमत पर वह उसे सिंहासन पर बैठने नहीं देगी। इसीलिए उसने तश्तरी में रखकर ‘दिल्ली’ की सल्तनत ‘आप’ को भेंट कर दी। यह भेंट सेंत-मेंत में दी गई हो, ऐसा मुझे शुरू से नहीं लग रहा था। यह संदेह अब पुष्ट हो रहा है। ‘आप’ के एक असंतुष्ट विधायक का ताजातरीन रहस्योद्घाटन यदि सही है तो दिल्ली के मतदाता अपना माथा कूट लेंगे। जिस पार्टी को उन्होंने कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए सिर चढ़ाया, वही अब कांग्रेस के कदमों में बैठकर उसकी चौकीदारी कर रही है। अपने चेहरे पर कालिख न पुते, इसीलिए कांग्रेस अब दोमुंहा खेल खेल रही है। वह एक तरफ तो ‘आप’ सरकार के कदमों की आलोचना और निंदा कर रही है तथा उसके विधि मंत्री से इस्तीफा मांग रही है और दूसरी ओर इस अल्पसंख्यक सरकार को टेका भी लगा रही है। कांग्रेस के लोग दुनिया में राजनीति के सबसे शातिर खिलाड़ी हैं। उन्होंने ‘आप’ पार्टी के मुंह में सत्ता का रसगुल्ला डालकर उसे मौन कर दिया है। अब ‘आप’ पार्टी के तमंचे की नली सिर्फ भाजपा की तरफ मुड़ गई है। ‘आप’ पार्टी के पंडितों से कोई पूछे कि अब आप किसके खिलाफ लड़ोगे? भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडऩे पर ही आपका दारोमदार है और आप उसी पार्टी के कंधे पर खड़े हैं, जो भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई है। कांग्रेस को बधाई कि उसने इन नौसिखिए नेताओं से बड़ा सस्ता सौदा पटा लिया। सत्ता का रसगुल्ला इतना रसीला था कि कांग्रेस से हाथ मिलाकर ‘आप’ के नेताओं ने अपने बच्चों की कसम भी तोड़ दी।
जो भी हो, यह सत्ता में आने की कहानी है, लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि दिल्ली के चुनाव में ‘आप’ पार्टी को 28 सीटें कैसे मिल गईं? दिल्ली के लोगों का मन क्या किसी ने पढ़ा है? शायद नहीं। दिल्ली के लोगों का दिल राष्ट्रकुल खेलों, टेलिकॉम धांधली, कोयला घोटाले और सबसे ज्यादा रामलीला मैदान की लीलाओं से इतना खदबदाया हुआ था कि वे नेता-मात्र से उखड़ गए थे। यदि उन्हें जरा भनक लग जाती कि ‘आप’ पार्टी को 28 सीटें तक मिल सकती हैं तो वे उसे 60 सीटें तक दे देते। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही खाली कटोरा खड़काते रहते। ऐसा इसलिए नहीं होता कि ‘आप’ पार्टी की अपनी कोई खूबी थी, बल्कि इसलिए होता कि दिल्ली का खिसियाया हुआ मतदाता किसी भी नए चेहरे का स्वयंवर करने पर उतारू था। दिल्ली की जनता ने भी जुआ खेला। ‘आप’ पार्टी सत्ता के लालच में फंसने की बजाय विरोध में रहकर यदि ‘भाजपा सरकार’ को मरोड़ती-निचोड़ती तो उसकी कुछ अखिल भारतीय छवि बनती, लेकिन अब क्या हो रहा है?
हालांकि अब गुब्बारे में रोज नए-नए छेद हो रहे हैं। लोग पूछ रहे हैं कि यह पार्टी सादगीपसंद और आदर्शवादी लोगों की है तो इसके मुख्यमंत्री ने 10 कमरों वाले भवन की हां क्यों भर दी? मुख्यमंत्री के परंपरागत निवास में रहने के खर्च से भी ज्यादा अतिरिक्त खर्च इस भवन में होता। डर के मारे सही रास्ता पकड़ा, यह अच्छा किया। बिजली, पानी, मंत्रियों के लिए सादी कारें आदि अच्छे निर्णय हैं, लेकिन अनुभवी प्रशासकों और नेताओं की राय है कि इन अफलातूनी फैसलों से राजकोष खाली हो जाएगा, लेकिन ‘आप’ वालों को क्या चिंता है? उन्हें कौन-से पांच साल तक राज करना है?
इसी तरह विदेशी सीधे विनिवेश विरोध तथा रिश्वत के ‘स्टिंग आपरेशन’ जैसी बातों को भी सिर्फ दिल बहलाने वाली तरकीबें माना जा रहा है। ये सब काम मूलत: नगरपालिका स्तर के हैं। इन्हें दिखा-दिखाकर भारत जैसे राष्ट्रों के राष्ट्र, महादेश पर शासन करने के ख्वाब देखना क्या बचकाना हरकत नहीं है? अभी आप यही सिद्ध नहीं कर पाए कि आप साइकिल की सवारी ठीक से कर पाएंगे या नहीं और आप जेट वायुयान उड़ाने की जिद करने लगे। भारत की जनता भावुक जरूर है, लेकिन वह इतनी समझदार भी है कि वह किसी डगमगाते साइकिल सवार को जेट उड़ाने की इजाजत नहीं देगी। जनता देख रही है कि ‘आम आदमी पार्टी’ दो तीन हफ्तों में ही आम पार्टियों की तरह बर्ताव करने लगी है। पार्टियां तो फिर भी पार्टियां हैं।
यहां तो मेले-ठेले की सी रेलमपेल है। एक खटका दबाया और पार्टी के सदस्य बन गए। जरा-सा खटका हुआ नहीं कि एक ही झटके में सब खिसक लेंगे। यह पार्टी है कि चूं-चूं का मुरब्बा है? न कोई नेता है और न ही कोई नीति। कश्मीर हो, माओवादी हों, विदेशी पूंजी हो, मोदी हों, समलैंगिकता हो, कांग्रेस हो – ‘आप’ पार्टी के नेताओं की अपनी-अपनी बीन है और अपना-अपना राग है। डर यही है कि लोकसभा चुनाव आते-आते दिल्ली प्रदेश में चढ़ा यह ज्वार कहीं सारे देश में भाटे की तरह न पसर जाए?
Leave a Reply