नया इंडिया, 10 फरवरी 2014: आम आदमी पार्टी की सरकार आजकल जिस तरह काम कर रही है, उससे यह लगता है कि उसकी सुई अटक गई है। वह अभी भूतकाल में जी रही है। उसने अभी तक अपने आप को सत्तारुढ़ दल की तरह बदला ही नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह भारत के अन्य दलों की तरह लुंज-पुंज हो जाए या भ्रष्टाचार करे या भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करे। लेकिन अभी तक उसे यह भान ही नहीं हुआ है कि अब वह शुद्ध आंदोलनकारी पार्टी नहीं है। अब उसके पास सत्ता भी है। यदि वह सत्ता और आंदोलन दोनों का समुचित संतुलन कर पाती तो वह दिल्ली ही नहीं, भारत की महान पार्टी बन जाती। वह भारत की जनता को व्यवस्था-परिवर्तन का नया रास्ता दिखाती।
इस समय वह जन-लोकपाल बिल पास करना चाहती है। उसका इरादा बिल्कुल नेक है। वह लोकपाल को न्यायाधीशों से भी अधिक शक्तिशाली बनाना चाहती है लेकिन इस बिल को पास करने की कुव्वत तो उसमें होनी चाहिए। दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। अन्य राज्यों की तरह वह कानून नहीं बना सकती। यह ठीक है कि उसका लोकपाल सिर्फ दिल्ली में काम करेगा लेकिन उसका खर्च तो केंद्र को उठाना होगा। केंद्र पर खर्चे का बोझ डालनेवाले कानून के लिए पहले उप-राज्यपाल की अनुमति जरुरी है। यह संवैधानिक प्रावधान है। इस प्रावधान का उल्लंघन किए बिना जन-लोकपाल नहीं बन सकता। ऐसे में आम आदमी पार्टी को जन-लोकपाल जैसे कानून बनाने के पहले संविधान में संशोधन की क्षमता प्राप्त करनी चाहिए। यह संसद पर कब्जा किए बिना संभव नहीं है। तो अब वह क्यों नहीं कहती कि हम जन-लोकपाल की नौटंकी इसलिए कर रहे हैं कि हम संसद पर कब्जा करना चाहते हैं। वह यह क्यों नहीं कहती कि संविधान बदलो। पुलिसिया अधिकार भी उसे चाहिए तो उसके लिए भी संविधान में संशोधन जरुरी है लेकिन दिल्ली की जनता अब जान गई है कि बंदर के हाथ में उस्तरा देना खतरे से खाली नहीं है। यदि ‘आप’ को पुलिसिया अधिकार मिल जाएं तो क्या पता कि वह राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भी गिरफ्तार कर ले? कल से वह भारत की विदेश नीति और रक्षा नीति चलाने की भी हरकत कर सकती है।
जन-लोकपाल बिल को वह रामलीला बना रही है। मैदान का खर्च कौन देगा? यदि कांग्रेस और भाजपा दोनों के विधायकों ने विरोध कर दिया तो आम आदमी पार्टी कहीं रामलीला मैदान में ही ढेर नहीं हो जाए?
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