दैनिक भास्कर, 8 मार्च 2014 : आम आदमी पार्टी का आचरण क्या आम आदमी जैसा है? यह बुनियादी प्रश्न उनके नेताओं ने पहले दिन से ही स्वयं खड़ा कर रखा है। अब गुजरात और दिल्ली की ताजा घटनाओं ने यह सिद्ध किया है कि ‘आप’ के नेताओं और उसके कार्यकर्ताओं ने अपनी पिछली विफलताओं से कोई सबक नहीं सीखा है। खिड़की गांव में अफ्रीकी महिलाओं के साथ धींगामुश्ती करना और फिर रेल भवन के सामने धरना देकर सीनाजोरी करना आखिर किस बात का प्रतीक था? यह सुशासन तो लेश-मात्र भी नहीं था। हां, उससे आंदोलनकारी की छवि जरूर उभरती है, लेकिन आंदोलनकारी भी कैसे? जिम्मेदार, गंभीर और गरिमापूर्ण या गैर-जिम्मेदार, चलताऊ और गरिमाहीन? याद रहे कि आप आंदोलन भी तब कर रहे हैं जबकि आप खुद सरकार में बैठे हैं।
अब सरकार तो खत्म हो गई। घोर अनैतिक आधार पर खड़ी सरकार के पांव जल्दी ही उखड़ गए। चार दिन की चांदनी, अब फिर अंधेरी रात! इन अंधेरी रातों में ‘आप’ चाहती तो उजाला कर सकती थी। वह भारत की राजनीति की मशाल बन सकती थी। उसमें प्रो. आनंद कुमार, राजमोहन गांधी और योगेंद्र यादव जैसे लोग जुड़ गए हैं, लेकिन लगता है कि हड़बड़ी में बनी यह पार्टी अभी तक न तो कोई नीति बना पाई है और न ही कोई ऐसा नेता खड़ा कर पाई है, जिसे देखकर आम आदमी कह सके कि हां, यह कांग्रेस और भाजपा का विकल्प दे सकता है।
इन दोनों राष्ट्रीय और बड़ी पार्टियों का विकल्प वही पार्टी दे सकती है, जिसके पास देश के समग्र विकास की कोई विचारधारा हो, देशव्यापी संगठन हो आौर अनुभवी नेतृत्व हो। इन तीनों का अभाव आम आदमी पार्टी में दिखाई पड़ता है। इसके नेता अभी तक तो काफी ईमानदार और साहसी दिखाई पड़ते हैं, लेकिन राजनीतिक परिपक्वता और अनुभव के बिना यह पार्टी एक बढिय़ा विकल्प कैसे बन सकती है। मेरी राय में तो इस चंदन जैसी पार्टी को अभी राजनीति की शिला पर काफी घिसे जाने की जरूरत है। इस घिसाई का दूसरा नाम ही जनजागृति और जन आंदोलन का दूसरा नाम है।
आंदोलन करना तो बहुत अच्छी बात है। स्वाधीनता के आंदोलन से ही दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी, कांग्रेस का जन्म हुआ था, लेकिन जरा हम याद करें कि चौरीचौरा में क्या हुआ था। गांधीजी के ‘सत्याग्रहियों’ ने कुछ पुलिस वालों की हत्या कर दी थी। इस पर गांधीजी ने पूरा असहयोग आंदोलन ही वापस ले लिया था, लेकिन अब ‘आप’ के कार्यकर्ताओं ने भाजपा दफ्तर पर धमाचौकड़ी मचाई तो ‘आप’ के नेताओं ने कुछ नहीं किया बल्कि आश्चर्य यह है कि यह सब उनकी उपस्थिति में हुआ। अपने सिर पर गांधी टोपी लगाने से क्या कोई गांधीवादी बन जाता है? उस पर काली स्याही से ‘मैं अन्ना हूं’ या ‘आम आदमी हूं’ लिखवा देने से क्या कोई गांधी-मार्ग पर चलने लगता है? अपने नाम के साथ ‘गांधी’ नाम चिपका लेने से भी कोई गांधी नहीं बन जाता। ‘आप’ के कार्यकर्ता यदि गांधी-टोपी लगाते हैं तो उनके आचरण में थोड़ा-बहुत गांधी तो कहीं न कहीं दिखना चाहिए या नहीं?
यदि इस पार्टी पर गांधी का जरा-सा भी असर होता तो यह सरकार बनती ही नहीं। सतत आंदोलन करती रहती और क्या मालूम लोकसभा चुनावों के बाद यह प्रमुख प्रतिपक्ष बन जाती, लेकिन इसके तथाकथित नेताओं को सत्ता के मोह ने ऐसा सताया कि यह आम आदमी नहीं, आम नेताओं की पार्टी सिद्ध हुई। आम नेता को भी अपनी इज्जत का ख्याल रहता है। वह मगर की पीठ पर बैठकर तालाब की सैर करने पर उतारू नहीं होता। जिस पार्टी का राज खत्म करने के लिए ‘आप’ बनी थी, वह उसी के कंधे पर सवार हो गई। उसके नेताओं का बर्ताव आम नेताओं से भी बदतर रहा। क्या वजह है कि सेंत-मेंत में बने छुई-मुई मुख्यमंत्री ने अपने 10 कमरों का बंगला स्वीकार कर लिया और अब भी जो सरकारी मकान लिया है, वह खाली नहीं किया। ‘आप’ के प्रति आरंभ में पूरा देश इतना उत्साहित इसीलिए था कि उसका नेतृत्व आम नेताओं से अलग दिखता था। वह आशा करता था कि उनका आचरण शुद्ध ही नहीं होगा बल्कि अनुकरणीय भी होगा।
अनुकरणीय आचरण की आशा तो आज की राजनीति में किसी से भी करना व्यर्थ है, लेकिन कैसी विडंबना है कि ‘आप’ जैसी पार्टी भी शुद्ध नौटंकीजीवी हो गई है। राजनीति में नौटंकी का महत्व होता है, लेकिन नौटंकी ही यदि राजनीति बन जाए तो नेताओं को विदूषक बनते देर नहीं लगती। यदि गुजरात की पुलिस ने ‘आप’ के नेता और कार्यकर्ताओं को थोड़ी देर रोककर पूछ लिया कि वे कहीं चुनावी आचार-संहिता का उल्लंघन तो नहीं कर रहे तो इस स्थानीय घटना को तिल का ताड़ बनाने की क्या जरूरत थी?
अपनी सरकार के जरिये कोई लक्षणीय उदाहरण तो पेश नहीं किया अब नरेंद्र मोदी के गुजरात में विकास का जायजा लेने पहुंच गए। गांव-गांव में जमीनी स्तर पर होने वाले विकास को आप छापा मार शैली में कैसे नापेंगे? सूचना दिए बिना चले गए मोदी से मिलने। अब शोर मचा रहे हैं कि मिलने का समय नहीं दिया। इस सब की मंशा चाहे जो रही हो, इसकी शैली इसे नौटंकी की श्रेणी में ही डालती है। अब कह रहे हैं कि मोदी नहीं मिले, क्योंकि दिखाने के लिए उनके पास कुछ है ही नहीं।
दिल्ली के भाजपा दफ्तर पर मार-पीट और तोड़-फोड़ करने की क्या जरूरत थी? अब ‘आप’ चुनाव आयोग और पुलिस, दोनों के चंगुल में फंस गई। यह ठीक है कि टीवी चैनलों और अखबारों में चमकते रहने का लालच भयंकर होता है, लेकिन ‘आप’ के नेतागण जरा सोचें कि चुनाव-घोषणा के पहले दिन ही उनका आचरण कैसा रहा? देश के दूसरे दलों और नेताओं को उन्होंने क्या संदेश दिया? देश की आम जनता उनके बारे में क्या सोचेगी?
‘आप’ का जन्म कांग्रेस-विरोध से हुआ है, लेकिन पिछले तीन-चार माह की गतिविधियों से उनकी कैसी छवि बन रही है? क्या ऐसी नहीं कि वह कांग्रेस की अनुचर है, उसकी बी-टीम है या जाने-अनजाने उसको टेका लगा रही है। कांग्रेस भी जमकर खेल खेल रही है। वह इन अनाडिय़ों की पीठ ठोके जा रही है, क्योंकि उसे अंदाज हो गया है कि उसके दिन तो लद गए हैं। अब उसकी लड़ाई लडऩे वाला भी तो कोई चाहिए। उसे मुफ्त में स्वयंसेवक मिल रहे हैं। भला, उन्हें वह अपने हाथ से क्यों फिसलने दे? ‘आप’ के नेता इसी मुग्धावस्था को प्राप्त हैं कि वे टीवी और अखबार में रोज बने हुए हैं। उनसे भी ज्यादा बने हुए हैं, जिन्हें राजनीति करते-करते आधी सदी बीत गई है। यही क्या कम है? उनके लिए नौटंकी ही भली! राजनीति उनकी बला से!!
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