नया इंडिया, 6 जनवरी 2014: अरविंद केजरीवाल को पल्टी खानी पड़ी क्योंकि लोगों ने उसको याद दिलाई, उसकी अपनी प्रतिज्ञाएं। पहली प्रतिज्ञा तो उसने यही भंग कर दी कि ‘आप’ की सरकार बनाने के लिए उसने कांग्रेस से हाथ मिलाया और जब उसने 10 कमरों वाले मकान में रहना स्वीकार किया तो सारे चैनलों और अखबार ने हल्ला मचा दिया। यदि वे शोर नहीं मचाते तो ‘आप’ के मुख्यमंत्री पहले ही दांव में चारों खाने चित हो गए थे। सबसे पहला सवाल मेरे दिमाग में यही उठा कि अरविंद क्या राहुल या अन्ना की तरह भौंदू निकल गया? क्या उसे पता नहीं था कि उसके सिर्फ एक कदम से जनता की नजर में वह ढोंगी सिद्ध हो जाएगा? क्या मंत्रियों के सरकारी बंगले में 10-10 बेडरूम होते हैं? अब संतोष की बात यही है कि ‘आप’ की सरकार की खाल गैंडे की तरह नहीं है। इस सारे मामले में यह निष्कर्ष भी निकलना है कि अरविंद की सादगी उसकी मजबूरी रही है। वह सिद्धांततः या स्वभावतः सादगी पसंद नहीं है। अब अरविंद और उसके साथियों को अपने आचरण से सिद्ध करना पड़ेगा कि वे अब तक के नेताओं से भिन्न हैं।
अब तक के हमारे नेता मानसिक दृष्टि से अंग्रेजों के ही वंशज सिद्ध होते रहे हैं। कोई भी पार्टी इसकी अपवाद नहीं है। हां, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार और असम के पूर्व मुख्यमंत्री शरदचंद्र सिन्हा जैसे कुछ नेता इसके अपवाद रहे हैं। देश में जब औसत आदमी पर 3 आने रोज खर्च होता था तो प्रधानमंत्री नेहरू पर सरकार 25 हजार रुपए रोज खर्च करती थी। जब डा. लोहिया ने यह मामला संसद में उठाया तो सरकार के हाथ-पांव फूल गए लेकिन आज तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और कुछ अन्य लोगों पर करोड़ों रुपए रोज खर्च होता है लेकिन कोई भी उनके कान खींचने वाला नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि जिन्हें कान खींचने का अधिकार है, सांसद और विधायक, वे भी लूट-पाट में लगे हुए हैं। उनके वेतन, भत्ते और ऊपर की कमाई लाखों में होती है। जब वे खुद हाथ की सफाई दिखाते रहते हैं तो लूटपाट करने वाले नेताओं को वे कैसे रोक सकते हैं।
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के लिए 3500 करोड़ याने 35 अरब रुपए के हेलिकॉप्टरों का सौदा हुआ। ऐसा सौदा करने वालों को जेल भेजा जाना चाहिए। ये लोग जनता के दुश्मन हैं। इतने पैसों में सैकड़ों स्कूल और अस्पताल खुल सकते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने अब तक 67 विदेश यात्राएं कीं। हर यात्रा पर लगभग 10 करोड़ रु खर्च हुए। खोदा पहाड़ और निकली चुहिया। चुहिया भी नहीं। अगर जाना ही था तो पाकिस्तान, लंका, नेपाल और पड़ोसी देशों में जाकर किसी साझा बाजार, साझा संसद, साझा महासंघ की बात करते। जरा बेशर्मी देखिए इस सरकार की। यह कहती है, देश में वह गरीब नहीं है, जिसे 30 रुपए रोज मिलते हैं और अपनी वर्षगांठ पर यह सरकार पार्टी देती है, जिसमें खाने की ही हर तश्तरी 8 हजार रु की होती है!
किसी भी लोकतांत्रिक सरकार में आम आदमी का खर्च और खास आदमी (नेता) के खर्च में कुछ अनुपात बांधा जाना चाहिए या नहीं? इस समय यह अनुपात 1 और 100 का है और यह 1 और 1 लाख तक भी पहुंचा है याने औसत आदमी यदि 30 रु रोज खर्च करता है तो खास आदमी का खर्च कम से कम 3 हजार रु रोज है। क्या हम इस खाई को थोड़ा-बहुत पाट सकते हैं? क्या यह अनुपात हम 1 और 10 या 20 का बना सकते हैं? क्या हम खास लोगों के खर्चों पर रोक लगाने के लिए कोई कठोर कानून नहीं बना सकते?
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