नया इंडिया, 04 सितंबर 2013 : ममता बेनर्जी सरकार को मुंह की खानी पड़ी है| अपना वोट बैंक मजबूत बनाने के लिए ममता ने पं. बंगाल सरकार को जो 600 करोड़ रुपए का चूना लगाया था, वह उसे वापस करना पड़ा है| बंगाल की मस्जिदों में काम कर रहे 75000 इमामों में से लगभग 30 हजार को वे 2500 रु0 प्रतिमाह का वेतन दे रही थीं और मुअज्जिन्स को 1500 रु. प्रति माह| अप्रैल 2012 से यह वेतन सरकारी खाते में से उन्हें जा रहा था|
जाहिर है कि ममता बेनर्जी ने यह दांव इसलिए मारा था कि बंगाल के स्थानीय चुनावों में ये हजारों तनखादार इमाम उनके लिए थोक वोटों का इंतजाम करें| उन्होंने इसके अन्तर्गत 660 करोड़ का बजट भी विधानसभा से पास करा लिया था| चुनाव जीतने के लिए 660 करोड़ की रिश्वत अपने आप में कोई बड़ी चीज़ नहीं थी लेकिन गरीब बंगालियों की जेब पर यह खुले-आम डाका था|
अब कोलकाता उच्च न्यायालय ने ममता सरकार के इस कदम को अवैध घोषित कर दिया है| उसके अनुसार यह संविधान का उल्लंघन है| सरकारी पैसे का इस्तेमाल किसी खास मजहब के लिए नहीं किया जा सकता| सरकारी वकील का तर्क था कि 2005 में इन्हीं इमामों की सेवा राज्य के लिए ली गई थी जबकि इन्होंने पोलियो उन्मूलन में सक्रिय योगदान किया था| उन्होंने जन-सेवा की थी लेकिन अदालत ने इस तर्क को रद्द कर दिया है| यदि ममता सरकार के इस तर्क को सही मान लें तो अनेक प्राकृतिक विपत्तियों के समय अगर कोई पंडित-पुरोहित, पादरी या ज्ञानी लोक-सेवा कर दें तो उनकी भी तनखा बांधी जा सकती है| यह सत्ता का शुद्घ दुरुपयोग है| सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 में एक फैसले में मजहबी आधार पर सरकारी पैसा बांटने को गैर-कानूनी घोषित किया था|
इस तरह के पैंतरों से हमारे कुछ नेता मुसलमानों को बदनाम करने की हरकत करते हैं| लोगों के मन में यह भाव पैदा होता है कि मुसलमानों को किसी भी लालच में फंसाया जा सकता है| उन्हें खरीदा और बेचा जा सकता है| वे सभ्य और सम्मानीय नागरिक नहीं हैं| उन्हें रिश्वत देकर उनके राजनीतिक ईमान को डिगाया जा सकता है|
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