24.01.2002 : भारत का गणतंत्र-दिवस हो और उसके मुख्य अतिथि ईरान के राष्ट्रपति हों, इस घटना को पाकिस्तान में किस तरह देखा जाएगा ? पाकिस्तान की तरह ईरान भी मुस्लिम राष्ट्र है और पाकिस्तान का पड़ौसी है| ईरान का इस्लामीपन पाकिस्तान से अधिक गहन और प्रामाणिक है| फिर भी ईरान के राष्ट्रपति भारत जैसे ‘काफिर मुल्क’ के मेहमान-ए-खासमखास बनकर क्यों आ रहे हैं ? शायद इसलिए कि भारत-ईरान और पाकिस्तान के बीच इस्लामी कार्ड नहीं चल रहा बल्कि आचार्य कौटिल्य का ‘मंडल सिद्घांत’ काम कर रहा है याने ‘पड़ौसी का पड़ौसी मित्र’ है, यह सिद्घान्त !
भारत और ईरान के बीच में पाकिस्तान है| मंडल सिद्घान्त के अनुसार पाकिस्तान को न तो भारत का मित्र होना चाहिए और न ही ईरान का क्योंकि ये दोनों ही उसके पड़ौसी हैं जबकि भारत और ईरान को सदा ही एक-दूसरे का मित्र रहना चाहिए, क्योंकि वे एक-दूसरे के निकट पड़ौसी नहीं हैं और उनमें अनगिनत समानताएँ और आपसी बंधन हैं लेकिन हमेशा ऐसा नहीं रहा| बल्कि इसका उल्टा हुआ| ईरान और पाकिस्तान एक समय बेहद नज़दीक आ गए और भारत के विरुद्घ हो गए| 1965 और 1971 के युद्घों में ईरान के शाह ने अयूब और याह्रया के पीछे अपनी पूरी ताकत लगा दी थी| इसका कारण यह भी हो सकता है कि दोनों राष्ट्र अमेरिकी सैन्य-गुट ‘सेन्टो’ के सदस्य थे और भारत को दबाना उसका लक्ष्य था, क्योंकि भारत सोवियत संघ का मित्र था| लेकिन ईरान का रवैया करगिल-युद्घ के समय वह नहीं था, जो 1965 या 1971 में था| बल्कि पाक-ईरान संबंधों का यह दौर अजूबा था| यह वह समय था, जबकि पाक-ईरान संबंध कटुता के दौर से गुजर रहे थे| अफगानिस्तान के तालिबान पूरी तरह पाकिस्तान के गुर्गों की तरह काम कर रहे थे और उनके साथ ईरान के संबंध इतने खराब हो गए थे कि ईरान ने अफगान सीमाओं पर युद्घ के लिए अपनी फौजें डटा दी थीं| तालिबान के आगमन के पहले भी अफगानिस्तान में ईरान और पाकिस्तान के हितों में टकराहट शुरु हो गई थी| ईरान का समर्थन वहदत पार्टी के ‘हजारा’ लोगों को मिलता था, जो मंगोलवंशी और शिया थे जबकि पाकिस्तान पठानों और ताजि़कों का पक्षधर था, जो कि प्राय: सुन्नी थे| इन जातियों की आपसी लड़ाइयों में ईरान और पाकिस्तान कई बार आमने-सामने खड़े हो जाते थे| ‘हजारा’ लोग ईरानियों की तरह फारसी बोलते हैं और तालिबान पश्तो बोलते थे| शिया-सुन्नी प्रतिद्वंद्विता केवल अफगानिस्तान में ही नहीं, पाकिस्तान के अन्दर तथा मध्य-एशिया के पाँचों मुस्लिम राष्ट्रों के अन्दर भी चल पड़ी थी| ईरान और पाकिस्तान के हित वहाँ भी टकराते हुए दिखाई पड़ते थे| लेकिन भारत और ईरान के हितों में धीरे-धीरे ऐसी संगति बैठने लगी कि जब बामियान के बुद्घ पर तालिबान ने प्रहार किया तो ईरान ने उसी स्वर में उनकी भर्त्सना की, जिसमें कि भारत ने की थी| अफगानिस्तान की घटनाओं ने भारत और ईरान को इतना निकट ला दिया कि दोनों राष्ट्र अब सामरिक सहकार की बात सोचने लगे हैं| विदेश मंत्री राजा दिनेशसिंह की यात्रा के दौरान चीन, रूस, भारत और ईरान के एक चौगुटे की बात भी जोरों में उठने लगी थी और आतंकवाद को प्रश्रय देनेवाले पाकिस्तान को इस क्षेत्र के सभी राष्ट्र अपनी दोस्ती के पायदान से एक पग नीचे उतारने को तैयार होने लगे थे|
ल्ेकिन तालिबान के अपदस्थ होने से इस क्षेत्र का परिदृष्य बदल गया है| पाकिस्तान खुद को आतंकवाद का विरोधी बताने की कोशिश कर रहा है| ईरान के दिल में अब पाकिस्तान के लिए वह कटुता नहीं रह गई है, जो लगभग दस साल तक बनी रही| इसीलिए मुशर्रफ कई बार ईरान हो आए और खातमी भी अभी दो हफ्ते पहले पाकिस्तान गए थे| यद्यपि खातमी ने वहाँ भी आतंकवाद की भर्त्सना की लेकिन वे कश्मीर पर गोलमोल बात करते रहे| उन्हें मुसलमान होने के नाते कश्मीरियों से सहानुभूति जताई और आशा की कि शीघ्र ही उन्हें उनकी मंजिले-मकसूद मिल जाएगी| यह तथ्य भारत के लिए अपि्रय हो सकता है लेकिन ज़रा खातमी के इस गोलमोल रवैए की तुलना आयतुल्लाह खुमैनी और रफसंजानी के पुराने बयानों से करें| कश्मीर, बाबरी मस्जिद और सांप्रदायिक दंगों को लेकर दस साल पहले ईरान ने इतनी हाय-तौबा मचा दी थी कि प्रधानमंत्री नरसिंहराव को तेहरान में ईरानी नेताओं को शांत करने में अपना पूरा कूटनीतिक कौशल दाँव पर लगाना पड़ा | दो साल पहले जब प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी तेहरान गए तो राष्ट्रपति खातमी ने न केवल भारतीय पंथ-निरपेक्षता को उचित और व्यावहारिक बताया और सभ्यताओं के बीच संघर्ष की बजाय संवाद की बात भी कही| स्वयं खातमी न तो खुमैनी, खलखली या बहिश्ती की तरह कठोर इस्लामवादी हैं और न ही रफसंजानी की तरह परम्परावादी ! वे आयतुल्लाह नहीं हैं| वे हुज्जतुल्लाह हैं| फारसी में ‘हुज्जत’ का मतलब होता है, तर्क| खातमी तर्कशास्त्री हैं| तर्क का असर उनकी राजनीति पर भी है| वे उदार हैं और अन्ध-मज़हबी नहीं हैं| वे पूरब और पश्चिम के मेल से ईरान को आगे बढाना चाहते हैं| ऐसे मध्यममार्गी ईरानी नेता का भारत आना सर्वथा स्वागत योग्य है|
अपनी भारत-यात्रा के दौरान खातमी पाइप-लाइन के बारे में बात जरूर करेंगे| मध्य-एशिया के सभी तैल और गैस सम्पन्न राष्ट्र चाहते हैं कि उनकी पाइप-लाइन भारत तक चली जाए| तैल और गैस के लिए जैसी भूख भारत में है, दुनिया के किसी राष्ट्र में नहीं है| यदि एक अरब लोगों का बाज़ार तुर्कमेनिस्तान और ईरान को हाथ लग जाए तो न सिर्फ वे मालामाल हो जाएँगे बल्कि अनेकानेक अन्तरराष्ट्रीय दबावों से मुक्त हो जाएँगे लेकिन ये पाइप-लाइन हवा में तो बन नहीं सकती| उसे बनना है या तो जमीन पर या पानी में याने समुद्र में ! समुद्र में बनाने का खर्च अरबों-खरबों डॉलर है और वहाँ उसकी सुरक्षा भी बड़ी नाजुक होती है| यदि ज़मीन पर बनना है तो उसे अफगानिस्तान और पाकिस्तान होकर भारत आना होगा लेकिन जब तक अफगानिस्तान में शांति और व्यवस्था नहीं होती तथा भारत-पाक संबंध ठीक नहीं होते, पाइप-लाइन ‘पाइप-ड्रीम’ ही बनी रहेगी, हालांकि पाक और अफगानिस्तान, दोनों राष्ट्रों को किराए की कमाई ही लगभग एक-एक अरब डॉलर की हो सकती है| जब तक यह संभावना नहीं बनती, भारत और ईरान मिलकर ऐसी रेलवे लाइन डाल सकते हैं कि भारत का माल ईरान होते हुए अफगानिस्तान और मध्य-एशिया के राष्ट्रों तक पहुँच जाए तथा मध्य-एशिया का माल अफगानिस्तान और ईरान होते हुए समुद्री मार्ग से भारत पहुँच जाए| जाहिर है कि थल-जल मार्ग की यह कूटनीति इस यात्रा का मुख्य विषय होगी|
एराक के सवाल पर भारत और ईरान का रवैया लगभग एक-जैसा है| ईरान अमेरिका का कट्टर विरोधी रहा है और राष्ट्रपति बुश ने ईरान को भी एराक और उत्तर कोरिया की तरह ‘बुराई की जड़’ कहा है लेकिन सद्दाम का तख्ता उलट जाए तो ईरान अंदन ही अंदर खुश हुए बिना नहीं रहेगा| एराक की जनसंख्या में शिया लोग बहुमत में हैं| उन्हें ईरान-भक्त माना जाता है| ईरान की इस आंतरिक दुविधा के बावजूद एराक के प्रश्न पर ईरान और भारत का रवैया एक-जैसा ही होगा, क्योंकि खुमैनी का ईरान स्वयं को भारत से भी अधिक गुट-निरपेक्ष मानता रहा है|
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