Nav Bharat Times, 14 July 2003 : यहॉं अमेरिका में सरकार के बड़े अफसर और बुश प्रशासन के सलाकहार चाहते हैं कि भारत सरकार अपनी फौजें जल्दी से जल्दी एराक भिजवा दें| भारत सरकार उनकी इच्छा अवश्य पूरी करेगी, ऐसा मानने के कई आधार उनके पास है| वे जानते हैं कि भारत सरकार पाकिस्तान के प्रति बेहद ईर्ष्याग्रस्त है| भारत को शिकायत है कि आतंकवाद की जी-जान से मदद करने के बावजूद आज पाकिस्तान अमेरिका के गले का हार बना हुआ है| भारत किसी ऐसी तरकीब की तलाश में है, जिससे पाकिस्तान की दाल पतली हो| इस समय जनरल मुशर्रफ की इतनी हिम्मत नहीं कि वे पाकिस्तानी फौजे एराक़ भिजवा सकें| पाकिस्तान की संसद ही नहीं, आम जनता में भी उनकी छवि गिर जाएगी| इस पाकिस्तानी दुविधा का फायदा भारत तुरन्त उठा सकता हे| यदि भारत एराक़ में भौजें भिजवा दे तो अमेरिका को लगेगा कि भारत उसका सच्चा दोस्त है| अफगान-संकट के समय पाकिस्तान ने अमेरिका की कोई सकि्रय या ठोस मदद नहीं की थी| केवल यही किया था कि तालिबान को मदद नहीं दी लेकिन एराक़ में फौजें भिजवाकर भारत अमेरिका की सकि्रय मदद करेगा| अमेरिका एराक़ में घुस तो गए लेकिन वह उन्हें अफगानिस्तान से कहीं ज्यादा भारी पड़ रहा हे| उसके सैनिक रोज़ मारे जा रहे हैं| यहॉं के अखबारों और टी.वी. चैनलों पर जबर्दस्त हार-तौबा मच रही है| बगदाद में अभी तक कोई विधिवत्र सरकार नहीं बन पाई है| अभाव, असुरक्षा और अराजकता का यही माहौल अगर थोड़ा लंबा खिच गया तो बुश का दुबारा राष्ट्रपति बनना कठिन हो जाएगा| इसीलिए अमेरिकी सरकार और उसके विद्घान सलाहकार चाहते हैं कि भारतीय फौजी बड़ी संख्या में एराक़ चले जाऍं| उनका मानना है कि भारतीय जवानों को मोटा भत्ता मिलेगा| एराक़ी जनता उनके उतना विरूद्घ नहीं होगी, जितना कि वह गोरी चमड़ीवाले अमेरिकी जवानों के विरूद्घ है| यदि भारत संकट की इस घड़ी में अमेरिका के काम आएगा तो अमेरिका न केवल भारत को सीधी सहायता बड़े पैमाने पर देगा बल्कि एराक़ी तेल की बंदरबॉंट में भारत को बड़ा हिस्सा मिलेगा| पाकिस्तान का जलवा अपने आप मद्दा पड़ जाएगा|
ज़ाहिर है कि नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास के अधिकारी और उनके भारतीय समर्थक यही बात हमारे विदेश मंत्रालया को समझा रहे होंगे लेकिन अमेरिका में मुझे अभी तक एक भी भारतीय ऐसा नहीं मिला, जो हमारी फौजें एराक़ भेजने का पक्षधर हो| सभी भारतीयबुश के कारनामे को मूर्खतापूर्ण और दुस्साहसपूर्ण मानते हैं| जहॉं तक भारतीय फौजें एराक भोजने का प्रश्न है, हमें एक तथ्य पहले जान लेना चाहिए कि शांति-स्थापना के लिए भारत ने दर्जनों देशों में पहले भी अपनी फौजें भेजी हैं| इसीलिए वह अगर उन्हें एराक़ भेजेगा तो भी कोई अजूबा नहीं होगा लेकिन जब तक दो शर्त पूरी नहीं हों, भारतीय फौजों का एराक़ भेजना अनैतिक भी होगा और अवैधानिक भी|
अनैतिक इसलिए कि फौजें एराक़ में जानेवाली हैं औरे निमंत्रण अमेरिका से आ रहा है| अमेरिका कौन होता है, एराक़ में किसी अन्य देश को निमंत्रण भेजनेवाला? यदि बुश भारतीय फौज को अमेरिका में बुलाऍं तो ऐसा करने का उन्हें पूरा अधिकार है लेकिन एराक़ मेंे वे जो कर रहे हैं, वह सर्वथा अनाधिकार चेष्टा है| यदि अन्य राष्ट्रों की फौजें वहॉं संयुक्तराष्ट्र के नेतृत्व में जाऍं तो वह सर्वथा वैधानिक और नैतिक होगा| दूसरा, एराक़ में ऐसी कोई विश्वसनीय सरकार नहीं है, जो निमंत्रण भिजवा सके| जब तक यह दूसरी शर्त भी पूरी नहीं हो, अमेरिका के इशारे पर एराक़ में कूद पड़ना भारत को शोभा नहीं देता| भारत किसी महाशक्ति का दुमछल्ला नहीं है कि वह पाकिस्तान की तरह किसी के इशारे पर कुछ भी कर डाले| सितंबर 1972 में जनरल जि़या उल हक़ ने जोर्डन के इशारे पर फलस्तीनियों का कत्ले-आम कर दिया था| क्या भारत एराक़ में इसी तरह का बर्ताव कर सकता है?
इतना ही नहीं, इसके अलावा भी कई कारण हैं, जिनके रहते भारत को अपनी फौजें भेजने के पहले कई बार सोचना होगा| सबसे पहला तो यही कि क्या हम अपनी संसद के प्रस्ताव को भूल गए हैं? हिन्दी की आड़ लेकर हमने अमेरिका की ‘निन्दा’ की थी| अपनी फौजें भेजकर क्या हम स्वयं निंदनीय कार्य नहीं करेंगे? क्या फौजें भेजकर हम अमेरिकी आक्रमण को सही ठहराने का काम नहीं करेंगे? सारी दुनिया में भारत की कितनी खिल्ली उड़ेगी| दूसरा, क्या भारत की फौज को अन्तरराष्ट्रीय स्तर का भत्ता मिलेगा, इसीलिए हम अपने जवानों की जान को दॉंव पर लगा दें? क्या भारतीयों की जान इतनी ससती है? यदि अमेरिका के नेताओं ने इतनी दादगीरी की है तो उन्हें अब अपने सैनिकों की लाशें ढोने के लिए भी तैयार रहना चाहिए| भारत स्वतंत्र औरे संप्रभु राष्ट्र है| उसकी फौजें अपनी रक्षा के लिए खड़ी की गई हैं| उन्हें भाड़े पर उठाने का अधिकार किसी भी सरकार को नहीं है| तीसरा, एराक़ मेंफौजें भेजकर भारत यह भी सिद्घ करेगा कि वह कोई महान देश नहीं है बल्कि अवसरवादी टुच्चा देश है| जो देश कल तक एराक़ और सद्दाम हुसैन को अपना मित्र घोषित करता रहा है, वह आज उनकी पीठ में छुरा घोंपने को तैयार है| क्या भारत का बर्ताव सद्दाम के लिए वही होना चाहिए, जो तालिबान के प्रति पाकिस्तान का रहा है? चौथा, यदि इस समय भारत एराक़ में अपनी फौजें भेजेगा तो सारे मुस्लिम देशों में प्रतिकूल प्रतिकि्रया होगी| ये बात दूसरी है कि अमेरिकी हमले के वक्त मुस्लिम देशों की दब्बू सरकाकरें अपनी दुम दबाकर बैठ गई थीं लेकिन उन देशों की जनता अमेरिकी कार्रवाई का तब भी विरोध कर रही थीं और अब भी विरोध कर रही है| पॉंचवॉं, यह शुद्घ गलतफहमी है कि एराक़ में फौजें भिजवाने से भारत और अमेरिका सामरिक-मित्र बन जाऍंगे| अमेरिका को मित्रों की तलाश कभी नहीं रही| वह हमेशा पठृ तलाशता है| यदि फ्रांस और अन्य यूरोपीय राष्ट्र अमेरिका के अभिन्न मित्र नहीं हो सकते तो कौनसा देश हो सकता है? इन राष्ट्रों ने अमेरिका के साथ मिलकर द्घितीय महायुद्घ लड़ा था और बाद में सैन्य-संगठन भी बनाए थे लेकिन बुश ने इस बार ब्लेयर को अपना बगलबच्चा बना लिया और शेष पश्चिमी राष्ट्रों को ऑंखें दिखाईं| सेनाऍं भेजने के बावजूद क्या आगे जाकर भारत का भी यही हाल नहीं होगा? छठा, अमेरिका ने भारत को अीी तक क्या कोई ऐसी धरोहर दे दी है कि वह फौजें भेजकर अपनी संप्रभुता को प्रतिहत करे? कौनसा ऐसा मुद्दा है, जिस पर आज तक अमेरिका ने खुलकर भारत का साथ दिया है, कश्मीर पर उसका रवैया हमेशा डावांडोल बना रहता है या पाकिस्तान-समर्थक होता है| परमाणु-विस्फोट हुआ तो उसने भारत का विरोध किया| 1971 के युद्घ के समय उसने भारत को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपना युद्घपोत भेज दिया था| 1962 में वह तटस्थ बना रहा| गोवा पर उसने हमारा विरोध किया क्या आज भी वह भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनवाने के लिए तैयार है? हमारे लिए अमेरिका अपनी जुबान हिलाने को भी तेयार नहीं है और हम उसके पापों को हमारे जवानों के खून से धोने को तैयार हो जाऍं, इससे बढ़कर बचकानापन क्या होगा| सातवॉं, पाकिस्तान को सीधा करने के लिए अमेरिका की खुशामद की नीति भी सर्वथा मेरूदंडहीनता है|
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