नया इंडिया, 09 मार्च 2014 : भारत की राजनीति में आजकल कई अजूबे हो रहे हैं। एक ऐसा अजूबा है, जो शायद दुनिया की राजनीति में आज तक कभी सुनने में नहीं आया। भारत में अब एक औरतों की पार्टी बन गई है। सभी राजनीतिक दलों में मर्दों का दबदबा रहता है। यदि किसी पार्टी में कोई इंदिरा या सोनिया गांधी निकल आए या ममता बेनर्जी या मायावती या जयललिता नेता बन जाएं तो भी उन पार्टियों में वर्चस्व तो मर्दों का ही रहता है। सांसद और विधायक ज्यादातर मर्द ही होते हैं। लेकिन वाराणसी में ‘भारतीय अवाम पार्टी’ नामक एक पार्टी शुरू हो गई है। इसकी सभी सदस्याएं और पदाधिकारिणी महिलाएं होंगी। मर्दों को भी इसमें जगह मिलेगी लेकिन उन्हें दस प्रतिशत का आरक्षण मिलेगा। याने इस पार्टी में 90 प्रतिशत महिलाएं होंगी और 10 प्रतिशत पुरूष!
इस पार्टी की अभी 35000 सदस्या बनी हैं। इसका जन्म 23 जनवरी 2013 को हुआ है, सुभाष बाबू के जन्म दिन पर। साल भर में इसकी सदस्य-संख्या काफी अच्छी बन गई है लेकिन यह पार्टी 2014 के चुनाव में भाग नहीं लेगी। इस पार्टी का उद्देश्य औरतों की स्थिति को मजबूत करना है। उन्हें खुद मुख्तार बनाना है ताकि वे अपने निर्णय खुद कर सकें। अभी तो उनका राजनीतिक रवैया उनके घर के पुरूषों के रवैए पर ही निर्भर होता है। जब वे खुद राजनीति करेंगी तो वे पुरूषों का भी भाग्य-निर्धारण करेंगी। जनसंख्या में वे आधा स्थान रखती हैं लेकिन निर्णय-प्रक्रिया में उनका स्थान नगण्य होता है।
इस संगठन में ज्यादातर महिलाएं मुसलमान हैं। यह तो बहुत की स्वायत योग्य बात है। यदि मुस्लिम महिलाओं में इतना आत्म-विश्वास पैदा हो गया है कि वे अपना संगठन बना रही हैं तो इसका संदेश स्पष्ट है कि सदियों से दबा हुआ भारतीय समाज अब अंगड़ाइयां ले रहा है। इस संगठन को खड़ा करने वाली युवतियां काफी पढ़ी-लिखी हैं। वे कई आधुनिक कंपनियों में ऊंचे-ऊंचे पदों पर है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे अपनी गरीब, ग्रामीण और पिछड़ी हुई बहनों के उत्थान पर ज्यादा ध्यान देंगी।
यह अच्छा है कि वे अभी चुनाव के चक्कर में नहीं पड़ी। आज की राजनीति के नथुनों में सिर्फ दो तरह की सांस चलती हैं। एक का नाम है, नोट और दूसरी का नाम है, वोट। नोट और वोट की राजनीति से वे फिलहाल अलग रहें और चोट की राजनीति करें तो मर्दों की पार्टियां उनका अनुकरण करेंगी। चोट की राजनीति का मतलब है, उन सब सामाजिक और राजनीतिक बुराइयों पर चोट करना, जो औरतों का दमन करती हैं। यदि यह संगठन पांच साल तक आंदोलनों की भट्टी में तप सके तो किसे पता है कि अगले आम चुनाव में भारत पर औरतों का ही राज हो जाए।
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