NavBharat Times, 24 Sept. 2002 : भगवाकरण था कहाँ , जिस पर उच्चतम न्यायालय ने मुहर लगाई ? भगवाकरण अगर किया गया होता तो अब तक सभी वामपंथियों और गुलामपंथियों का विधवाकरण हो जाता| भाजपा-गठबंधन सरकार में इतनी हिम्मत कहाँ कि वह भगवाकरण कर सके| जो सरकार मंदिर, धारा 370, समान कानून जैसे मुद्दों से कतरा रही है, उसमें इतना दम कहाँ से आ जाएगा कि वह बच्चों की पाठ्रय-पुस्तकों का भगवाकरण कर देगी| उसने केवल कॉमरेडीकरण के कुछ काले धब्बों को साफ़-सूफ़ करने की कोशिश की थी| कामरेडों ने इस सफाई-अभियान को भगवाकरण की संज्ञा दी और सारे देश में स्यापा मचा दिया| अब उच्चतम न्यायालय ने मानव संसाधन मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी के मुकुट में न केवल मनोहारी मोरपंख खोंस दिए हैं बल्कि भाजपा की लड़खड़ाती प्रतिष्ठा के हाथ में एक मजबूत छड़ी भी थमा दी है| उसने उन सब आपत्तियों को रद्द कर दिया है जो राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान प्रशिक्षण परिषद के विरुद्घ की गई थीं| परिषद् के विरुद्घ आपत्ति यह थी कि वह पाठ्य-पुस्तकों में मनमाने संशोधन कर रही है और धर्मों की शिक्षा के नाम पर पाठ्य-क्रम में हिन्दुत्व ठूंसनेवाली है| उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि बच्चों को विभिन्न धर्मों की जानकारी देने में कोई बुराई नहीं है| यदि सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में विभिन्न धर्मों के बारे में ऐसी जानकारी हो, जिससे उनमें सत्य, अहिंसा और पवित्र आचरण के प्रति आस्था बढ़े तो इसमें बुराई क्या है ? लेकिन उसने यह भी कहा है कि ‘धर्म शिक्षा’ और ‘धर्मों की शिक्षा’, दो अलग-अलग बातें हैं| इनका अंतर समझना जरूरी है|
उच्चतम न्यायालय के अनुसार धर्मों के बारे में शिक्षित होना तो बच्चों का मौलिक अधिकार है लेकिन उन्हें अगर ‘धर्म शिक्षा’ दी गई और वह भी सरकारी पुस्तकों और पाठशालाओं में तो वह संविधान और धर्म-निरपेक्षता का उल्लंघन होगा| ‘धर्म शिक्षा’ तो खुला मैदान है| इसमें मुल्ला-मौलवी, पोंगा-पंडित, पादरी-ग्रंथी जो चाहें सो पढ़ा सकते हैं| धर्मग्रंथों में जहाँ मानव-कल्याण की श्रेष्ठतम और सूक्ष्मतम बातें कही गई हैं, वहाँ पाखंड और अंधविश्वास को निकृष्टतम नीचाइयों तक पहुँचा दिया गया है| इन नीचाइयों तक जाने की भी छूट हमारे संविधान ने दे रखी है| निजी पाठशालाओं और निजी पाठ्रय-पुस्तकों में कुछ भी पढ़ाया जा सकता है| अल्पसंख्यकता और धर्म के नाम पर ढेरों गुप्त गलियाँ खुली हुई हैं लेकिन उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि सरकारी पाठशालाओं और पाठ्य-पुस्तकों में पाखंड और अंधविश्वास की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए|
आखिर इसका मतलब क्या है ? क्या उच्चतम न्यायालय धर्मों के विरुद्घ है ? नहीं है| तो क्या वह ‘धर्म शिक्षा’ के विरुद्घ है ? हाँ , है| तो क्या ऐसा नहीं लगता कि वह टॉफी तो खाता है लेकिन शक्कर से परहेज़ करता है| यदि वह धर्मों के विरुद्घ नहीं है तो ‘धर्म शिक्षा’ के विरुद्घ क्यों है ? क्या कोई ‘धर्म-शिक्षा’ ऐसी भी हो सकती है, जो उस धर्म में न हो या अनैतिक हो ? क्या हिन्दू धर्म की शिक्षा के नाम पर इस्लाम धर्म की शिक्षा भी पढ़ाई जा सकती है ? जाहिर है कि ऐसा नहीं हो सकता| और यदि सभी धर्म सत्य, अहिंसा, न्याय और पवित्रता का उपदेश करते हैं तो उच्चतम न्यायालय से पूछा जाना चाहिए कि ऐसे में ‘धर्म शिक्षा’ देने में क्या बुराई है ? असलियत यह है कि यह असलियत नहीं है| सच्चाई तो यह है कि अब तक के समस्त संगठित संस्थाबद्घ धर्मों ने सत्य, अहिंसा और पवित्र आचरण जैसे आदर्शों की धज्जियाँ उड़ा रखी है और उन्होंने सिद्घांत तथा व्यवहार में भी एक-दूसरे की भी धज्जियाँ उड़ाई है| ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय अपने फैसले से जो करना चाह रहा है, वह यह है कि भारत जैसे देश में विभिन्न धर्मों के लोग आपस में लड़ें नहीं और उनमें शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बना रहे| सारी दुनिया का इतिहास बताता है कि शिक्षा की पद्घति को शासन की विचारधारा का अनुवर्ती होना पड़ता है| दूसरे शब्दों में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय शिक्षा को भारत गणराज्य की सर्वधर्म समभाव की विचारधारा की चौखट में जड़ दिया है| याने बच्चों को धर्मों की केवल वे ही बातें पढ़ाई जाएँ जो उनको बेहतर नागरिक बना सके और दूसरे धर्मों के बारे में सहिष्णु भी बना सके| याने धर्म के लिए शिक्षा का नहीं, शिक्षा के लिए धर्म का इस्तेमाल हो रहा है| न्यायालय को डर है कि यदि बच्चों को ‘धर्म शिक्षा’ देने की छूट दे दी गई तो पता नहीं उन्हें क्या-क्या पढ़ा दिया जाएगा| उस स्थिति में शिया-सुन्नी, केथलिक-प्रोटेस्टेंट और शैव-शाक्त खाइयाँ तो दुबारा खुद ही जाएँगी, मध्ययुगीन धर्मयुद्घों की तलवारें भी अपनी म्यानों से बाहर निकल आएँगी| इसीलिए कम से कम शिक्षा के सरकारी तंत्र से न्यायालय ‘धर्म शिक्षा’ को अलग रखना चाहता है लेकिन भारतीय जीवन में धर्मों की भूमिका इतनी गहरी है कि उन पर पर्दा डालना भी सरल नहीं है| इसलिए ‘धर्मों की शिक्षा’ पर उसने सभी आपत्तियों को रद्द कर दिया है|
इस फैसले से संघ परिवार का गद्रगद्र होना और वामपंथी तथा गुलामपंथी परिवार का हतप्रभ होना स्वाभाविक है लेकिन दोनों पक्ष यह भूल रहे हैं कि असली संग्राम तो अब शुरू होगा| ‘धर्मों की शिक्षा’ याने धर्मों के बारे में जानकारी भी इस ढंग से दी जा सकती है कि अमृत दिखे तो अमृत लेकिन बन जाए विष ! जो सिर के बल खड़ा है, वह पाँव के बल खड़ा दिखे और जो पाँव के बल खड़ा है, वह सिर के बल ! यही काम हमारे वामपंथियों और गुलामपंथियों ने पिछले पचास साल में बड़ी सफाई के साथ कर दिखाया| बच्चों की पाठ्रय-पुस्तकों में बिना प्रमाण के यह सिद्घ कर दिया कि आर्य बाहर से आए थे| जब सारे भारतीय धर्मों के जन्मदाता ही विदेशी थे तो स्वदेशी और विदेशी धर्मों में क्या फर्क करना ? यदि तुम आर्यों को सह सकते हो तो अंग्रेज को क्यों नहीं सह सकते ? यह गुलामपंथियों का तर्क था और वामपंथियों का तर्क यह था कि जब कनिष्क और हुविष्क तुम्हारे पुरखे हो सकते हैं तो मार्क्स और लेनिन से नाक-भौं क्यों सिकोड़ रहे हो ? तुम ‘दास केपिटल’ और ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ को विदेश में बनी रचनाएँ बताते हो और तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे वेद भी भारत के बाहर रचे गए थे ? अपने वर्तमान को उचित ठहराने के लिए उन्होंने भारत के सभी गड़े मुर्दे उखाड़ लिए | इसी तरह शिवाजी, गुरु तेगबहादुर और जाटों को ‘लुटेरा’ कहने और सुभाष को फाशीवादी बताने में उन्हें जरा भी संकोच नहीं हुआ| भारतीय महानायकों के बारे में विदेशियों की अपनी राय है और वह राय कुछ हद तक तथ्यात्मक भी हो सकती है लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि क्या बच्चों के कोमल मन पर उस तरह की रायों को थोपना जरूरी है ? महावीर के पहले के जैन तीर्थंकरों को कपोल-कल्पित बताना, आर्य ऋषियों को गोमांसभक्षी कहना (और सूअर के मांस-भक्षण को अप्रचलित कहना) आदि बातें बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों में ठूंसना क्यों आवश्यक है ? इन इतिहास लेखकों ने सिर्फ हिन्दू, सिख और जैनों को चोट पहुँचाई, अगर वे कहीं इस्लाम के प्रति भी जरा साफ़गोई बरतते तो उन्हें कभी का साफ. कर दिया जाता|
एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों के लेखन में शुरु से ही तीन भयंकर भूलें हुई हैं| पहली तो यह कि बच्चों की पाठ्रय-पुस्तकें लिखने के लिए ऐसे लेखकों को चुना गया, जो अपने विषयों के विख्यात विशेषज्ञ हैं| जिन मुद्दों या दृष्टियों या निष्कर्षों के कारण वे विख्यात हुए, उनका समावेश किए बिना, वे उन पाठ्य-पुस्तकों को कैसे लिखते ? इसीलिए जिन संदिग्ध विषयों को बाद की कक्षाओं के लिए छोड़ा जा सकता था, उन्हें भी बच्चों की कक्षाओं में घसीटा गया| दूसरा, इन पाठ्य-पुस्तकों के लेखकगण मूलत: वामपंथी और गुलामपंथी थे| उनकी निष्ठा बच्चों के प्रति नहीं, अपने पंथों के प्रति अधिक दृढ़ थी| वे इन पाठ्य-पुस्तकों को क्यों बख्शते ? उन्होंने बच्चों को इतिहास कम, पंथ ज्यादा पढ़ाया| तीसरा, ये पुस्तकें मूलत: अंग्रेजी में लिखी गई हैं| इसीलिए न तो इनकी अंग्रेजी ठीक है और न ही इनके अनुवाद ! यदि भारत के नेतागण पढ़े -लिखे होते या उन्हें पढ़ने-लिखने की फुर्सत होती तो एन.सी.ई. आर.टी. की इन किताबों को तुरंत जब्त कर लिया जाता और उन्हें कूडे़दान के हवाले कर दिया जाता| ऐसी पुस्तकों को आज तक पाठ्य-पुस्तकें कहा जाता रहा है, जो सर्वथा अपठनीय हैं| जिन्हें पढ़कर बड़े नहीं समझ सकते, उन्हें बच्चों पर लाद दिया गया| बच्चों पर, हिरणों पर यह घास कब तक लदी रहेगी ? उम्मीद की जानी चाहिए कि जैसे कांग्रेसियों ने पाठ्रय-पुस्तक लेखन का काम वामपंथियों को ठेके पर उठा दिया था, वैसे यह सरकार किन्हीं अन्य पंथियों को नहीं उठाएगी| उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद यदि ऐसी पाठ्रय-पुस्तकें बच्चों को मिल सकें जो समझने में आसान हों, मतवाद से मुक्त हों तथा जानकारी और जिज्ञासा बढ़ाएँ तो सचमुच भारत के बच्चों की प्रतिभा का सर्वांगीण विकास हो सकेगा|
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