दैनिक भास्कर, 20 जून 2008 : अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे पाकिस्तान पर हमला नहीं बोल सकते हैं| फिर भी उन्होंने हमले की धमकी क्यों दे दी? उन्होंने कहा कि यदि जरूरी हुआ तो अब अफगान फौज पाकिस्तान के अंदर घुसेगी और तालिबानी अड्डों का सफाया करेगी| इस तरह का सफाया कश्मीर में घुसकर भारत सरकार आज तक नहीं कर सकी तो बेचारी पर-निर्भर अफगान-सरकार क्या करेगी? इस तथ्य के बावजूद हामिद करज़ई को ऐसी धमकी इसलिए देनी पड़ी कि वे मजबूर हो गए थे| पिछले एक साल में अफगानिस्तान के उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम और उसके हृदय काबुल में इतनी भयंकर घटनाऍं हो गई हैं कि यदि करज़ई इस तरह का बयान नहीं देते तो उनका खुद का जीना मुहाल हो जाता| कंधार की जेल को तोड़कर 1100 कैदियों को रिहा करवा लेना, अमेरिकी फौजी शिविर में घुसकर बम-विस्फोट कर देना, काबुल की अति सुरक्षित पॉंच सितारा होटल सिरीना में घुसकर लोगों को मार देना, पश्चिमी दूतावासों पर बम विस्फोट कर देना, जरंज-दिलाराम सड़क बना रहे भारतीय इंजीनियरों और मजदूरों की हत्या और अपहरण कर लेना, अफगान सांसदों और मुस्तफा काजि़मी जैसे नेताओं की सरेआम हत्या कर देना आदि ऐसे कारनामें हैं, जिन्होंने तालिबान की दहशत सारे देश में फैला दी है| अफगानिस्तान में इस तरह को कोई भी घटना कहीं भी होती है तो सारा दोष हामिद करज़ई के मत्थे मढ़ दिया जाता है| विरोधी नेता उन्हें अफगानिस्तान का राष्ट्रपति नहीं, काबुल का महापौर कहते हैं| वे उन्हें ‘अमेरिकी बबरक कारमल’ भी कहते हैं|
बेचारा करज़ई क्या करे? पिछले सात वर्षो मे न तो अफगान फौज और न ही पुलिस खड़ी हो सकी और न ही सक्षम नौकरशाही ! गुप्तचर विभाग भी लगभग नगण्य है| विदेशी सहायता का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा गैर-सरकारी संस्थाएं खर्च करती हैं| अफगान सरकार को उसकी पूरी जानकारी तक नहीं होती| इसी प्रकार विदेशी फौजें भी स्वतंत्र् हैं| वे अपने ढंग से काम करती हैं| उन पर अफगान सरकार का कोई नियंत्र्ण नहीं है| विदेशी फौजी जवान स्थानीय परंपराओं और कानून-क़ायदों को नहीं जानते| उनकी गतिविधियों के कारण वे अफगान नगरों और गांवों में काफी अलोकपि्रय हो गए हैं| एराक से ज्यादा विदेशी सैनिक अफगानिस्तान में मारे जा रहे हैं| पाश्चात्य राष्ट्र इतना पैसा और खून बहा रहे हैं लेकिन उन्हें कोई जस नहीं मिल रहा है| करजई-सरकार की साख दिनों-दिन गिरती जा रही है| ऐसे में करजई सारी जिम्मेदारी का ठीकरा पाकिस्तान के सिर नहीं फोड़ते तो क्या करते? यही राजनीति है| पाकिस्तान के सिर पर डंडे बजाने से बेहतर राजनीति क्या हो सकती है| यही राजनीति सरदार दाऊद, बबरक कारमल, नजीबुल्लाह और बाद में मुजाहिदीन नेता उस्ताद रब्बानी भी करते रहे| पाकिस्तान का नाम उछालते ही अफगानिस्तान में कई तोपें एक साथ गोले दागने लगती हैं| ताजि़क, उज़बेक, हजारा, किरगीज़ आदि जातियॉं को यो भी पाकिस्तान से कोई भावनात्मक लगाव नहीं है| जहां तक पश्तूनों का सवाल है, जो पश्तून पश्तूनिस्तान के समर्थक हैं, वे पाकिस्तान के पुराने दुश्मन हैं और वे लाखों पश्तून भी पाकिस्तान के आलोचक बन गए हैं जो पिछले 25-30 साल वहंा शरणार्थियों की तरह रहे हैं| उनका मानना है कि पहले पश्तूनों को शरण देकर और फिर आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान ने अरबों-खरबों रूपया कमाया है अैार बेशुमार हथियार जमा किए हैं| इसलिए ज्यों ही काबुल-सरकार से ज़रा-सा भी इशारा मिलता है, सारे अफगानिस्तान में पाकिस्तान-विरोधी प्रदर्शन होने लगते हैं| पिछले साठ वर्षो में पाकिस्तानी राजदूतावास पर दर्जनों हमले और सैकड़ों प्रदर्शन हुए हैं| पाकिस्तान के राजदूत तारिक़ अजीजुद्दीन का, जो खुद पठान हैं, पिछले दिनों अपहरण हो गया था| करजई की धमकी के समर्थन में निंरतर प्रदर्शन हो रहे हैं|
इसका मतलब यह नहीं है कि करज़ई पाकिस्तान पर हमले की तैयारी कर रहे हैं| इस तरह की तैयारी प्रधानमंत्री सरदार दाऊद ने 1955 और 1961 में की थी लेकिन उन्होंने भी वास्तव में कोई हमला नहीं किया| कहने की जरूरत नहीं कि पाकिस्तानी फौज के मुकाबले अफगान फौज चार दिन भी नहीं ठहर सकती| इसके अलावा अफगानिस्तान और पाकिस्तान, दोनों ही अमेरिका-रक्षित राष्ट्र हैं| उन्हें आपस में कौन लड़ने देगा? दोनों देशों में तीन-चार बार लड़ाई की जो नौबत खड़ी हो गई थी, उसके पीछे सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा थी, शीतयुद्व के दांव-पेंच थे और दोनों राष्ट्रों में प्रभावशाली नेतृत्व की उपस्थिति थी| आज ये सभी तत्व लगभग अनुपस्थित हैं|
इसका अर्थ यह नहीं कि करजई की धमकी कोरी गीदड़भभकी है| सबसे पहली बात तो यह है कि करजई ने जो कुछ कहा है, वह कानूनसम्मत है और परंपरासम्मत है| अंतरराष्ट्रीय कानून में ‘हॉट परस्यूट’ (ठेठ तक पीछा करना) की राष्ट्रों का वाजिब अधिकार माना गया है| यदि आतंकवादियों, डकैतों, अपराधियों और चोरों का पीछा करते हुए किसी एक देश की फौज को दूसरे देश की सीमा में घुसना पड़े तो यह उस देश की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं माना जाता| पाकिस्तानी सरकार को अपनी संप्रभुता की डींग मारने का यों भी कोई अधिकार नहीं है| उसके आतंकवादी रोज़ ही उसकी संप्रभुता भंग कर रहे हैं| उन्होंने बेनज़ीर की हत्या कर दी, मुशर्रफ पर हमले किए, कई क्षेत्रें पर अपनी हुकूमत जमा ली, उसामा बिन लादेन को छुपा रखा है और पाक सरकार के साथ किए समझौतों को तोड़ दिया है| इसके अलावा अमेरिकी फौजें पाकिस्तानी भूमि पर जिस स्वच्छंदता से विचरण करती हैं, क्या किसी संप्रभु राष्ट्र में कर सकती हैं? इसीलिए यदि करज़ई सचमुच हमला बोल ही दें तो भी सारा विश्व-समुदाय अफगानिस्तान का ही साथ देगा, पाकिस्तान का नहीं | आज भी किसी राष्ट्र ने करज़ई के बयान को गलत नहीं बताया है| वास्तव में करजई ने बुराई की जड़ पर हाथ रख दिया है|
वास्तव में पाकिस्तान सरकार का आज जो भी रवैया हो, वह तालिबान का निरंतर समर्थन करती रही है| तालिबान को अपने पॉंवों पर प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टों और उनके गृहमंत्री जनरल बाबर ने ही खड़ा किया था| अफगानिस्तान को अपना फौजी पिछवाड़ा और आर्थिक उपनिवेश बनाने के लिए ही तालिबान का आविष्कार किया गया था| इन तालिबान ने पाकिस्तान को अब भस्मासुर की भूमिका में ला खड़ा किया है| पाकिस्तान को अपनी भूल का अहसास अब हो रहा है| इस भूल को अमेरिका का पूरा समर्थन रहा है| उसामा बिन लादेन अमेरिका की ही अवैध संतान है| अमेरिकी फौजें अब तालिबान से सीधे भिड़ रही हैं| वे पाक-अफगान सीमा की भी खास परवाह नहीं कर रही हैं| यही कोण है, जिसे करजई ने उछाला है| यदि अमेरिकी जहाजों और हैलीकॉप्टरों पर सवार होकर अफगान फौजी पाकिस्तान तालिबों को मारेंगे तो पाकिस्तान क्या कर लेगा? इस दृष्टि से करज़ई की धमकी खोखली नहीं है|
अमेरिका को पता है कि पाकिस्तान के चुने हुए नए नेता, जनरल मुशर्रफ और कयानी चाहे तालिबान का विरोध कर रहे हैं लेकिन पाकिस्तानी फौज, गुप्तचर विभाग और नौकरशाही में ऐसे अनेक तत्व हैं, जो तालिबान का चोरी-छिपे समर्थन करते हैं| अमेरिका की प्रसिद्घ संस्था रेंड कारपोरेशन की एक ताज़ा रपट ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है| भारतीय मजदूरों और इंजीनियरों से अफगान लोगों को कोई शिकायत नहीं है बल्कि उनके प्रति अफगान जनता प्रेम और उपकार के भाव से भरी होती है| इसके बावजूद उनकी हत्या क्यों होती है? जाहिर है कि यह कुकृत्य पाकिस्तानी तालिबान के इशारे पर होता है| उन्हें अफगानिस्तान में भारत की लोकपि्रयता बिल्कुल भी नहीं पचती| वे अफगानिस्तान को पाकिस्तान की रखैल बनाकर रखना चाहते हैं| क्या उन्हें पता नहीं है कि जिन जांबाज़ अफगानों ने सिकंदर, चंगेज खान, मुगल बादशाहों, अंग्रेजों और रूसियों के दांत खट्टे कर दिए, वे पाकिस्तानियों के पिट्रठू बनकर नहीं रह सकते हैं|
आज जरूरी यह है कि करजई के बयान को पाकिस्तान सरकार सही कोण से देखे| उसकी निंदा करने की बजाय उसके प्रति सहानुभूति बरते और आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाए| यदि अमेरिका, अफगानिस्तान और पाकिस्तान, तीनों एकजुट कार्रवाई करें तो तालिबान पर काबू पाना असंभव नहीं है|
(लेखक दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ हैं और हाल ही में अफगानिस्तान-यात्र करके लौटे हैं)
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