नवभारत, 28 अगस्त 2002: केन्द्र सरकार मुग्धा नायिका की तरह गर्व से भरी हुई है| उसने राष्ट्रपति को झुका लिया , उच्चतम न्यायालय को ठेंगा दिखा दिया और चुनाव आयोग को उसका ठिकाना बता दिया| चुनाव-सुधार पर अध्यादेश जारी क्या किया, पूरा पोंचा ही फिरा दिया| जाहिर है कि यह अध्यादेश वह नहीं है, जिस पर डॉ. कलाम दस्तखत करना चाहते थे बल्कि वह है, जिस पर देश के सारे नेताओं ने अपनी इज्जत दाँव पर लगा दी है| डॉ. कलाम दस्तखत नहीं करते तो क्या करते ? राष्ट्रपति भवन में अभी वे नए-नए हैं| जैसा ज्ञानी जैलसिंह ने किया, वे डाक-विधेयक की तरह चुनाव अध्यादेश को अधर में लटका सकते थे| उसे उच्चतम न्यायालय की सलाह-पेटिका में डलवा सकते थे लेकिन उन्होंने जितना कर दिया, वह क्या कम है ? राजनीति उनका पेशा नहीं है लेकिन उनकी जरा-सी हरकत के कारण सभी नेताओं की पेशानी पर पसीना झलक आया| उन्हें दस्तखत करने पड़े लेकिन अब भी ब्रह्मास्त्र उनके पास ही है| वे चाहें तो इस अध्यादेश को कानून बनने से रुकवा सकते हैं| यह अध्यादेश जब कानून की शक्ल में उनके पास आएगा, तब वे इसे वापस भेजने में यथोचित समय लगा सकते हैं और सारे देश को संदेश दे सकते हैं कि कृष्ण पांडवों के साथ हैं, दुर्योधनों के नहीं| अक्षौहिणी सेनावाले सारे राजनीतिक दल और नेता एक तरफ होंगे और देश की असहाय निरुपाय जनता दूसरी तरफ होगी| राष्ट्रपति जनता की तरफ होंगे, राष्ट्र की तरफ होंगे और नेतागण राज की तरफ होंगे, माल-मत्ते की तरफ होंगे| नेताओं को राजनीति करने दी जाए लेकिन राष्ट्रपति राष्ट्रनीति करें|
पहले चुनाव सुधार विधेयक और अब इस अध्यादेश ने देश की जनता और नेताओं को दो खेमों में बाँट दिया है| यह काम तहलका नहीं कर पाया था| तहलका ने देश के नेतृत्व की पोल तो खोली लेकिन खुद तहलका के बारे में लोगों को शक-ओ-शुबहा बना रहा| तहलका के बहाने कौन किसकी दाल गला रहा है, यह न तब किसी को पता था और न अब भी है लेकिन उच्चतम न्यायालय, चुनाव आयोग और राष्ट्रपति के दरबार में सिर्फ जनता की दाल गल रही है, यह सबको पता है| अगर किसी को पता नहीं है तो सिर्फ नेताओं को पता नहीं है| क्या ही अच्छा होता कि नेतागण छोटे-मोटे बयान देने की बजाय लेख लिखते और अगर कोई उनके लेख न छापता तो वे विज्ञापन देते और लोगों को बताते कि आखिर वे चुनाव-सुधार के विरोधी क्यों हैं ? जनता जानना चाहती है कि उम्मीदवार अपनी सम्पत्ति, अपनी शिक्षा और अपने सदाचरण के तथ्यों को छुपाना क्यों चाहते हैं ? क्या हर उम्मीदवार की दाल में कुछ काला है ? क्या सभी नेताओं ने इतनी अवैध संपत्तियाँ खड़ी कर ली हैं और गुप-चुप अपराध किए हैं कि वे उम्मीदवार नहीं बन पाएँगे ? ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है| लाल बहादुर शास्त्री, रफी अहमद किदवई, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय और मधु लिमए जैसे हजारों रत्न अब भी भारतीय राजनीति के समुद्र में खोजे जा सकते हैं| ‘माँग के खाइबो और मसीद को सोइबो’ वाले नेताओं की आज भी भारत में कमी नहीं है लेकिन पार्टी चलानेवाले बड़े नेताओं पर यह बात लागू नहीं होती| पार्टी-संचालन का खर्च और चुनावी-प्रबंध का चक्र-व्यूह है ही कुछ ऐसा कि जिसमें हर अभिमन्यु मारा जाता है| काजल की इस कोठरी में से बेदाग दामन लिए कोई वापस नहीं लौटता| यदि भारत की वर्तमान राजनीति का यह ध्रुव-सत्य है तो सारे नेता इसका स्पष्ट बखान क्यों नहीं करते ? अपनी मजबूरियों से अपने मालिकों को वाकिफ़ क्यों नहीं करवाते ? भारत की जनता क्रूर या निष्ठुर नहीं है| वह उन्हें माफ़ कर देगी और नई जिंदगी जीने का मौका देगी लेकिन अगर वे सीनाजोरी करेंगे तो गेहूँ के साथ घुन भी पिसेगा याने ईमानदार नेता भी जनता की नज़रों से गिरेंगे और पूरी राजनीति ही पैंदे में बैठ जाएगी| ऐसी स्थिति में गैर-राजनीतिक राष्ट्रपति देश में आशा की किरण होंगे| उनका राजनीतिक नहीं होना ही उनकी सबसे बड़ी खूबी होगी| क्या भारत के राजनीतिक दल इतना बड़ा खतरा मोल लेने को तैयार हैं ?
यदि नहीं तो वे यह क्यों नहीं बताते कि वे केवल निर्वाचन अधिकारी को भाग्य-विधाता बनाने के विरुद्घ हैं| सिर्फ इतना ही| इससे बिल्कुल भी ज्यादा नहीं| चुनाव आयोग की मानी जाती तो यही होता| निर्वाचन अधिकारी किसी भी उम्मीदवार के पर्चे रद्द कर देता| प्रतिद्वंद्वियों की कहीं भी कमी नहीं रहती है| वे झूठे-सच्चे आरोप लगाकर चुनावी मैदान ही सूना करवा देते| अराजकता फैल जाती| इस तर्क में दम है लेकिन इसका तोड़ भी है| चुनाव अधिकारी को अंतिम अधिकार न दिया जाए| अंतिम निर्णय प्रत्येक प्रांत का उच्च न्यायालय करे| चुनाव के पर्चे एक माह की बजाय छह माह पहले भरे जाएँ और रद्द होने पर उच्च न्यायालय चुनाव के एक माह पहले तक फैसला दे दे| उसी दिन से चुनाव-अभियान शुरू हो| चुनावी-मामलों को निपटाने के लिए उच्च न्यायालय एक पृथक्र चुनाव-बैंच भी कायम कर सकता है| आश्चर्य है कि भारत के राजनीतिक दलों के इतने बड़े-बड़े नेता इस छोटी-सी समस्या का कोई संतोषजनक समाधान नहीं निकाल पाए|
काँग्रेस पार्टी का अब यह दावा करना हास्यास्पद है कि वह सिर्फ निर्वाचन अधिकारी को भाग्य-विधाता बनाने के विरुद्घ थी, चुनाव-सुधारों के विरुद्घ नहीं| सर्वदलीय बैठक में उसने सर्वसम्मति का विरोध क्यों नहीं किया ? देश के सबसे पुराने और सबसे बड़े राजनीतिक दल होने के नाते यह उसका कर्तव्य था कि वह उस सर्वसम्मति का डटकर विरोध करती, जिसके आधार पर चुनाव-सुधार का पाखंडपूर्ण विधेयक लाया जा रहा था| भ्रष्टाचार के तौर-तरीकों की वह जैसी जानकार है और उनके कारण उसने जैसी चोट खाई है, क्या किसी पार्टी ने भी खाई है ? उसने अपने पाप-प्रक्षालन का पवित्र अवसर खो दिया| अब भी वह चाहे तो राष्ट्रपति के अध्यादेश का और बाद में इस विधेयक का जमकर विरोध करे| विरोध ही नहीं करे, अपनी पार्टी के सभी उम्मीदवारों को निर्देश दे कि कानूनी प्रावधान हो या न हो, प्रत्येक काँग्रेसी उम्मीदवार अपनी सम्पत्ति, शिक्षा और सदाचरण का ब्यौरा जग-जाहिर करे| काँग्रेस अगर ऐसा करेगी तो वह नहले पर दहला मारेगी| अपने आपको ‘निराली’ कहनेवाली पार्टी, भाजपा, के होश फाख्ता हो जाएँगे|
असलियत तो यह है कि भाजपा भी काँग्रेस की कार्बन कॉपी बन चुकी है| नेतृत्व का अभाव दोनों पार्टियों में है| एक स्वयंसेवकों की पार्टी है और दूसरी दरबारियों की| भेड़चाल दोनों की नियति है, दोनों पार्टियों में कोई ऐसा महाप्रतापी नेता नहीं है, जो भ्रष्टाचार की शतरंज को उलट दे| खेल के नियमों को बदल दे| भारत को नई चाल में ढाल दे| भारत के मार्क्सवादियों से क्या उम्मीद की जाए ? जब से सोवियत संघ का वटवृक्ष गिरा है, वे अनाथ हो गए हैं| अब तो वे गुर्राना भी भूल गए हैं| अपेक्षाकृत स्वच्छ राजनीतिक जीवन जीनेवाले मार्क्सवादी आजकल जो भी वाक्य बोलते हैं, उसके दो-दो अर्थ निकलते हैं| पता नहीं चलता कि वे किधर हैं ? संपत्ति और सदाचरण की घोषणा के मामले में गांधी के काँग्रेसी, गोलवलकर के स्वयंसेवक और मार्क्स के क्रांतिकारी सभी गलबहियाँ डाले बॉल-डान्स करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं| लोहिया के लोगों से मुल्क को उम्मीद थी कि वे अगुवाई करेंगे लेकिन श्री मुलायमसिंह यादव ने बेचारे राष्ट्रपति को जो झाड़ पिलाई, उससे सबसे ज्यादा गुदगुदायमान कौन हुआ होगा ? क्या प्रधानमंत्री नहीं ? क्या मंत्र्िामंडल नहीं ? विचारधाराओं की अंत्येष्टि का इससे अच्छा उदाहरण क्या मिलेगा|
विचारधाराओं की इस राख में से किसी शक्तिशाली गरुड़ के उठ खड़े होने की संभावनाएँ बलवती होती जा रही हैं| भारतीय राजनीति आज उस मुकाम पर पहुँच रही है, जहाँ से एक नए युग की घंटिया बजना शुरु हो गई हैं| ईमानदार और बेदाग लोगों का कोई भी नया दल आज पलक झपकते ही पंख लगाकर उड़ सकता है और भारत की राजनीति के आकाश का गरुड़ सिद्घ हो सकता है|
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