R Sahar, Dec 2003: जनरल परवेज़ मुशर्रफ के मुंह से निकली बात अगर सही है तो मानना पड़ेगा कि पाकिस्तान अपने पचास साल पुराने पिंजरे से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है| ‘रायटर’ को दी भेंट में मुशर्रफ ने कश्मीर पर संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को अलग रखने की बात कही है| कश्मीर के रेकॉर्ड में संयुक्तराष्ट्र की सुई इतनी गहरी अटक गई थी कि ताशकंद, शिमला और लाहौर घोषणाओं के बावजूद पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव की माला फेरना बंद नहीं की थी| बेचारे पाकिस्तानियों को यह पता नहीं कि सुरक्षा परिषद् का वह प्रस्ताव पाकिस्तानियों के पॉंव की बेड़ी बन चुका था| उस प्रस्ताव में तीसरा विकल्प है ही नहीं याने कश्मीरी अगर आज़ाद होना चाहें तो बिल्कुल हो ही नहीं सकते, क्योंकि उसमें केवल दो ही विकल्प हैं याने या तो वे भारत के साथ मिल सकते हैं या पाकिस्तान के साथ ! कश्मीरी आज़ादी के लिए लड़ रहे आतंकवादी, हुर्रियतवादी और दूसरी सभी लोगें के लिए यह प्रस्ताव जहर की पुडि़या है| वे कहते हैं कि जनमत-संग्रह के फलस्वरूप यदि हमें फौजी पाकिस्तान की गुलामी ही करना है तो उससे अच्छा तो यह है कि हम लोकतांत्रिक भारत के ‘कब्जे’ में ही रहें| इसके अलावा सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव यह भी कहता है कि जनमत संग्रह के पहले पाकिस्तान अपने कब्जाए हुए कश्मीर को खाली करे| क्या पाकिस्तान का कोई भी हुक्मरान यह खतरा मोल ले सकता है ? नहीं ले सकता, फिर भी वह संयुक्तराष्ट्र की बॉंग क्यों लगाता है ? इसीलिए कि उसे पता है कि भारत उस प्रस्ताव को कभी नहीं मानेगा| वह उसे रद्द कर चुका है| वह ही नहीं, संयुक्तराष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान भी उस प्रस्ताव को बासी घोषित कर चुके हैं| संयुक्तराष्ट्र प्रस्ताव की ओट में पाकिस्तान कश्मीर मसले को गर्माए रखना चाहता है| कश्मीरी चूल्हे को सुलगाए रखने के लिए इससे बढि़या ईंधन क्या हो सकता है ? भारत से कश्मीर पर कोई बात नहीं करने का इससे अच्छा बहाना क्या हो सकता था ? लेकिन लगता है कि पाकिस्तान के हुक्मरान अब अपने दॉंव-पेंचों से उकता गए हैं| वे शायद अब कश्मीर पर बात करना चाहते हैं| इसीलिए संयुक्तराष्ट्र प्रस्ताव को अलग रखने के लिए तैयार हो रहे हैं| इस पैंतरे को भारत अगर रियायत मान लेगा तो यह भोंदूपन की पराकाष्ठा होगी| यह रियायत नहीं, मजबूरी है| इसीलिए मुशर्रफ ने जोर देकर कहा है कि कश्मीर ही एकमात्र प्रमुख मुद्दा है| वे सं.रा. प्रस्ताव को अलग रख सकते हैं, कश्मीर को नहीं| इसका मतलब क्या हुआ ? यही कि कश्मीर को भारत अपना ‘अटूट अंग’ कहना बंद करे और कश्मीर के भविष्य के बारे में वह पाकिस्तान से बात करे| भारत ने ज्यों ही बात शुरू की कि फिर वही राग शुरू हो सकता है| राग संयुक्तराष्ट्र !
कश्मीरी आतंकवाद और पाकिस्तान का संबंध क्या है, इसे बेनज़ीर भुट्टो ने अनजाने ही उजागर कर दिया| वे भलमनसाहत में फॅंस गईं| वे ‘दक्षिण एशिया में शांति के लाभ’ नामक संगोष्ठी में भाग लेने भारत आई थीं| उन्होंने भारत से दोस्ती की मार्मिक अपील की| उनके भाषण के बाद भारत के पूर्व सैन्य प्रमुख जनरल वेदप्रकाश मलिक ने पूछा कि ‘जब आप प्रधानमंत्री बनीं, तभी कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा| आपने क्या किया ?’ इस सीधे-से मासूम सवाल के जवाब में बेनज़ीर ने प्रसिद्घ मुगल शहजादी की तरह मासूमियत दिखा दी| उन्होंने कहा कि ‘मेरे प्रधानमंत्रित्व काल में आतंकवादी सिर्फ सैन्य ठिकानों पर हमले करते थे| आजकल की तरह बेकसूर नागरिकों, औरतों और बच्चों को अपना निशाना नहीं बनाते थे| हमने आतंकवाद को बहुत सीमित कर रखा था|’ बेनज़ीर अपने राज्य के रहस्यों को इतनी आसानी से उगल देगी, यह आशा किसी ने भी नहीं की थी| भारत सरकार चाहे तो पाकिस्तानी पूर्व-प्रधानमंत्री के इस आत्म-स्वीकार को हर जगह भुना सकती है|
इसी तरह की मासूमियत का परिचय उमर अब्दुल्ला ने भी दिया| वे केंद्र में राज्य विदेशमंत्री रह चुके हैं| उनके पिता फारुख अब्दुल्ला बरसों जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे हैं| दक्षिण एशिया संगोष्ठी में वे भी बोले| मंच पर वर्तमान मुख्यमंत्री मुफ्ती सईद भी विराजमान थे| उन्होंने मुफ्ती साहब पर कई फब्तियॉं कसीं| बोलते-बोलते वे ये बोल गए कि कश्मीर में जिनकी हुकूमत होती है, वे कश्मीर को कभी हल नहीं होने देंगे, क्योंकि उन्हें पैसा मिलना बंद हो जाएगा| उमर ने मुफ्ती साहब की तरफ इशारा करके कहा कि कश्मीर के मुख्यमंत्री के पास जितना गुप्तकोष होता है, उतना भारत में किसी के पास नहीं होता| अपने खर्च का हिसाब उसे किसी को भी नहीं देना पड़ता| वह पैसा मुख्यमंत्री से लेकर सबसे छोटे पुलिसवाले तक पहॅुंचता है| उमर जब यह बोल रहे थे तो मेरे आस-पास बैठे कई पूर्व विदेश सचिव और गुप्तचर विभाग के पूर्व अधिकारी दॉंतों तले उंगली दबा रहे थे| उनका बस चलता तो वे उमर की जुबान पकड़ लेते|
इसी दक्षिण एशिया संगोष्ठी में सोनिया गॉंधी ने कमाल कर दिया| सुबह प्रधानमंत्री बोले और दोपहर को सोनिया गॉंधी| दोनों अपना भाषण किसी न किसी अफसर से लिखाकर लाए थे| सबको पता है कि दोनों की अंग्रेजी माशाअल्ला है| एक ‘एक्सपर्ट’ को ‘एक्सपोर्ट’ पढ़ता है तो दूसरी बार-बार ‘गुद-नेबरलीनेस’ बोलती है| खैर ! मज़ा तब आया जब सोनिया के भाषण के बाद आयोजक ने कहा कि श्रोतागण कुछ सवाल पूछना चाहते हैं| सिट्टी-पिट्टी गुम ! सोनिया कुछ नहीं बोलीं| श्रोताओं के बीच देश के धुरंधर विद्वान, विशेषज्ञ और अफसर लोग बैठे थे| जाने-पहचाने पत्रकारों का, खास तौरसे संवाददाताओं का अभाव-सा था| सोनिया की मुख-मुद्रा से लगा कि कोई हज़र् नहीं| सवाल पूछें तो पूछें| पूर्व विदेश सचिव महाराजकृष्ण रसगोत्र खड़े हो गए| उन्होंने पूछा कि क्या विदेश नीति केमसलों पर सरकार आपसे सलाह-मश्वरा करती है ? इस पर सोनिया ने कहा, कुछ खास नहीं| इस पर किसी ने पूछा कि किन मुद्दों पर करती है और किन पर नहीं ? तो उन्होंने बहुत झिझकते हुए कहा कि ‘प्राय: उन्हीं मुद्दों पर, जिन पर वह पहले से फैसला कर चुकी होती है|’ इस मासूम-से जवाब पर ठहाका हो गया| फिर किसी ने पूछा, इस बार कॉंग्रेस चार में से तीन राज्यों में क्यों हार गई ? तो सोनिया गॉंधी ने तपाक से कहा, “इसलिए कि पिछली बार वह तीनों में जीत गई थी|” इस जवाब पर श्रोताओं ने और जोर का ठहाका लगाया| कुल मिलाकर अपने जवाबों से सोनिया ने दिल्ली के भद्रलोक पर अपना सिक्का जमा दिया| वे आत्म विश्वास और हाजिरजवाबी में किसी भी मॅंजे हुए नेता से कम नहीं लग रही थीं|
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