R Sahara, 4 May 2003 : शेरे-कश्मीर स्टेडियम में प्रधानमंत्री वाजपेयी ने दोस्ती का हाथ क्या बढ़ाया, मुशर्रफ और जमाली ने उसे कूदकर पकड़ लिया| वे उसे अब छोड़ ही नहीं रहे हैं| रोज़ दबा रहे हैं| रोज़ सहला रहे हैं| रोज़ कोई न कोई नया शिगूफा छोड़ देते हैं| अब वे कह रहे हैं कि कम से कम वही स्थिति बहाल कर दीजिए, जो दिसंबर 2001 (संसद पर हमले) के पहले थी| जब आपने सीमाओं पर चढ़ाई फौज वापस उतार ली तो अब आवागमन, व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, उच्चायुक्तों की वापसी जैसे कामों पर ढक्कन लगाए रखने में क्या तुक है? भारत सरकार का असमंजस बढ़ता ही चला जा रहा था| यह असमंजस अब प्रधानमंत्री ने दूर कर दिया है|
लेकिन अगल हफ्ते ही नई परेशाली खड़ी होनेवाली है| भारत-पाक फोरम की तरफ से लगभग आधा दर्जन पाकिस्तानी सांसद भारत आ रहे हैं| सांसदों को दक्षेस-देशों में जाने के लिए वीज़ा की जरूरत नहीं होती| उनके साथ डॉ. मुबशर हसन भी आ रहे हैं| वे पीपल्स पार्टी के संस्थापकों में से हैं और जुल्फिकार अली भुट्टो के वित्तमंत्री भी रह चुके हैं| उनके पास पॉंच साल का वीज़ा है| मुबशर हसन ने फोन पर बताया कि वे प्रधानमंत्री तथा अन्य बड़े नेताओं से मिलना चाहते हैं| पता नहीं, इन लोगों से हमारे नेता मिलेंगे या नहीं| जो भी हो, पाकिस्तानी नेतागण को दिल्ली में गोष्ठी करने और पत्रकार-परिषद आयोजित करने से कौन रोक सकता है? मुशर्रफ और जमाली ने अपना कूटनीतिक युद्घ शुरू कर दिया है| उन्होंने अपने हाथी और ऊॅंट आगे बढ़ा दिए हैं लेकिन हम क्या करें हमारी शतरंज पर तो बादशाह के अलावा कोई और मोहरा है ही नहीं| उसे लाहौर के खाने में बढ़ाकर हमने नतीजा भुगत लिया था| दूध का जला छाछ को फूंक-फूंककर पीता है|
हमने दोस्ती का हाथ तो बढ़ा दिया लेकिन पॉंव बढ़ाने में जान काफी घबरा रही है| डर है कि सुरक्षा-परिषद की मासिक अध्यक्षता का फायदा उठाने में अब पाकिस्तान चूकेगा नहीं| वह फलस्तीन के साथ-साथ कश्मीर भी उठाएगा| यदि भारत ने पाकिस्तान से बात शुरू कर दी तो कहीं कश्मीर का अन्तरराष्ट्रीयकरण न हो जाए? कैसा दब्बूपन है, यह ! साहूकार को डर है कि कहीं चोर चिल्ला न पड़े|
हिंदी के मुद्दे पर फिर एक हिम्मत का काम हुआ| संसद में न तो कोई सेठ गोविंददास है, न पुरुषोत्तमदास टंडन और न प्रकाशवीर शास्त्री ! अब सत्तारूढ़ लोगों को किसी का डर नहीं है| कोई लोहिया और लिमये नही है कि उनके कान खींचे लेकिन बालकवि बैरागी ने हिंदी के उस स्वर्णिम संघर्ष-काल की याद दिला दी| उन्होंने राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को नाश्ते का वह निमंत्रण वापस भिजवा दिया, जो अंग्रेजी में था| उन्होंने कहा कि यदि राष्ट्रपति भवन ही राजभाषा-नियमों का पालन नहीं करेगा तो फिर सरकार और जनता क्यों करेगी? सवाल यह है कि मध्य प्रदेश के जो अन्य सांसद राष्ट्रपतिजी के नाश्ते पर पहुंचे, उनमें से किसी ने भी यह प्रश्न क्यों नहीं उठाया?
बैरागीजी ने संसद में गृहमंत्री से यह भी पूछा कि संघ लोक सेवा आयोग में हिंदी क्यों नहीं आ रही है? केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक (6 दिसंबर 2002) में पारित संकल्प के बावजूद संघ लोकसेवा आयोग की अनेक परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता क्यों बनी हुई है? गृहमंत्री ने आश्वासन दिया है कि वे 13 मई को सभी राज्यों के सचिवों की बैठक बुलाकर उसमें कुछ फैसला करेंगे| इसी तरह का आश्वासन पिछले हिंदी दिवस के अवसर (14 सितंबर 2002) पर आडवाणीजी ने भारतीय भाषा सम्मेलन को दिया था| गृह-सचिव कमल पांडे को बुलाकर उन्होंने हमारे 14 सूत्री मॉंग-पत्र की एक-एक मॉंग पर भली-भॉंति विचार किया था और उन पर कार्रवाई का आदेश दिया था लेकिन उस दिन के बाद से आज तक गृह मंत्रालय ने सम्मेलन को रसीदी पत्र तक नहीं भेजा है|
नेपाल में माओवादियों और सरकार के बीच दुबारा सम्वाद शुरू हो गया, यह खुशखबर है| माओवादियों का असर इतना बढ़ गया है कि नेपाल के चुने हुए सांसद अपने जिलों में जाने से भी डरते थे| मंत्रियों की हिम्मत नहीं होती थी कि वे अपने निर्वाचन-क्षेत्रों में चले जाऍं| नेपाल से आए कुछ मित्रों ने बताया कि माओवादी काठमांडों घाटी को भी चारों तरफ से घेरने की कोशिश कर रहे हैं ताकि किसी दिन वे वहॉं सशस्त्र क्रांति कर सकें| अमेरिका, बि्रटेन और भारत नेपाल सरकार की सक्रिय सहायता कर रहे हैं लेकिन किसी लोकपि्रय जन-आंदोलन को डंडे के जोर से कब तक दबाया जा सकता है? यह जरूरी है कि इस आंदोलन की लोकपि्रयता के कारणें में उतरा जाए, उन्हें समझा जाए और उनके युक्तिसंगत समाधान खोजे जाऍं| इस दृष्टि से अर्जु न कर्की और डेविड सेड्रडोन द्वारा संपादित ‘द पीपल्स वार इन नेपाल : लेफ्ट पर्सपेक्टिव्ज़’ पुस्तक अत्यंत उपयोगी है| इस गंरथ के लेखों से पता चलता है कि बाबूराम भट्टराई और पुष्पकमल ‘प्रचंड’ का नेतृत्व सेंत-मेंत में नहीं उग आया है| नेपाली समाज औ राजनीति के इस मार्क्सवादी विश्लेषण के प्रत्येक निष्कर्ष से सहमत होना आवश्यक नहीं है और माओवादियों के तौर-तरीकों पर तो कठोर आपत्ति भी की जा सकती है लेकिन उन्हें देशद्रोही कहकर नेपाली समाज के निर्भीक विश्लेषण से आंखें नहीं मोड़ी जा सकतीं|
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