दैनिक भास्कर, 05 अप्रैल 2014 : भारत के लोकसभा चुनावों में हम इतने व्यस्त हैं कि हमें यह पता ही नहीं कि हमारे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में आज राष्ट्रपति चुनाव हो रहा है। अफगान राष्ट्रपति, भारतीय राष्ट्रपति की तरह ध्वज-मात्र नहीं होता बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह लगभग सर्वशक्तिमान होता है। राज्य की शक्तियों और नीतियों का वही मूल स्रोत होता है। इस पद पर लगातार 13 साल से हामिद करजई जमे रहे हैं। वे दो बार जीते हैं, लेकिन कोई भी व्यक्ति लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति नहीं बन सकता है। इसीलिए वे चुनाव से बाहर हैं, लेकिन मेरी राय में वे बाहर रहते हुए भी अंदर हैं। क्योंकि उनके अत्यंत विश्वस्त सहयोगी डॉ. जलमई रसूल इस बार राष्ट्रपति पद के प्रमुख प्रत्याशी हैं। रसूल उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री रह चुके हैं।
यद्यपि करजई ने रसूल का खुला समर्थन नहीं किया है, लेकिन उनके बड़े भाई कय्यूम करजई ने रसूल के समर्थन में अपना नाम वापस ले लिया है। यही काफी है, यह सिद्ध करने के लिए कि रसूल की पीठ पर राष्ट्रपति करजई का हाथ है। यूं भी रसूल पठान हैं, करजई की तरह! वे अफगानिस्तान के मुहम्मदजई वंश के पठान हैं। यह वही वंश वृक्ष है, जो अहमदशाह अब्दाली से जाहिरशाह तक फैला हुआ है। करजई और रसूल की घनिष्टता इतनी ज्यादा है कि काबुल के राजमहल में करजई के साथ मेरी जितनी भी मुलाकातें हुईं, उन सब में प्राय: रसूल को मैंने शुरू के आधा-पौन घंटे साथ बैठे पाया। कोई आश्चर्य नहीं कि जैसे रूस में मेदवेदेव ने पुतिन के लिए सिंहासन खाली कर दिया, ठीक उसी तरह रसूल भी करजई को तीसरी बार राष्ट्रपति बनवाने के लिए उनकी खड़ाऊ रखकर राज करते रहें। इसी तर्क के आधार पर माना जा रहा है कि इस बार रसूल जीतेंगे और उन्हें जिताने के लिए करजई के सारे समर्थकों ने कमर कस रखी है। पिछले साल शंघाई सहयोग परिषद की बैठक में पुतिन से रसूल का परिचय करवाते हुए करजई ने उन्हें ‘भावी राष्ट्रपति’ कहा था।
राष्ट्रपति पद के दूसरे प्रमुख उम्मीदवार हैं- डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला। वे भी रसूल की तरह डॉक्टर हैं। उनके पिता पठान और माता ताज़िक थीं। वे जगत प्रसिद्ध योद्धा अहमदशाह मसूद के दाहिने हाथ रहे हैं। मसूद पंजशीर घाटी के शेर माने जाते थे और वे फारसीवान ताज़िक थे। इसीलिए अब्दुल्ला को भी ताज़िक मान लिया जाता है। अफगानिस्तान में पठानों की संख्या ताज़िकों से ज्यादा है। इसीलिए मान लिया जाता है कि पठान लोग अब्दुल्ला को वोट नहीं देंगे, लेकिन अब्दुल्ला सभी वर्गों में लोकप्रिय हैं। करजई के विदेश मंत्री के तौर पर उन्होंने लोकप्रियता अर्जित की थी और 2009 के चुनाव में उन्होंने करजई को अच्छी टक्कर दी थी, लेकिन अंतिम दौर के मतदान में उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया था। वे करजई के मंत्रिमंडल के सबसे योग्य और प्रभावशाली मंत्रियों में रहे हैं। वे कई बार भारत आ चुके हैं। उन्होंने दक्षिण दिल्ली में अपने परिवार को भी बसा रखा है। पठान क्षेत्रों में उनकी बड़ी-बड़ी सभाएं हो रही हैं। करजई के बाद दुनिया के सभी कूटनीतिज्ञों और विदेश नीति विशेषज्ञों से उनके गहरे संबंध हैं।
तीसरे प्रमुख उम्मीदवार हैं डॉ. अशरफ गनी अहमदजई। ये मेडिकल डॉक्टर नहीं, अकादमिक डॉक्टर हैं। आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं। करजई के वित्तमंत्री रह चुके हैं। अमेरिकी प्रशासन में इनके अच्छे संबंध रहे हैं। इनके पास अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण का नक्शा भी है। डॉ. गनी ने अपने उपराष्ट्रपति के तौर पर जनरल अब्दुल रशीद दोस्तम को उम्मीदवार बनाया है। दोस्तम जबर्दस्त, लेकिन विवादास्पद युद्धवीर हैं और उज्बेक वंश के हैं। इसीलिए उत्तरी अफगानिस्तान के उज्बेक इलाके में डॉ. गनी के प्रति विशेष उत्साह देखा जा रहा है, लेकिन अशरफ गनी की दो कमजोरियां मानी जा रही हैं। एक तो वे अहमदजई वंश के हैं। अहमदजई लोगों के मुकाबले अफगानिस्तान में मुहम्मदजई वंश का राज रहा है। अहमदजइयों में सिर्फ डॉ. नजीबुल्लाह और हफीजुल्लाह अमीन सिंहासन पर बैठ पाए, वह भी तख्तापलट के जरिये। अहमदजई लोग गिलजई पठानों की एक शाखा है। गिलजइयों और मुहम्मदजइयों में पुराना वैर चला आ रहा है। इसीलिए लगता है कि अशरफ गनी को मुहम्मदजई पठान कम पसंद करेंगे। दूसरी बात, जो गनी की जीत को संदेहास्पद बनाती है, वह है उनकी बीमारी। सारे अफगान जानते हैं कि उन्हें कैंसर हो गया है। वे जीत भी गए तो कितने दिन राज करेंगे?
जहां तक जीत का सवाल है, जब तक किसी उम्मीदवार को डाले गए कुल वोटों का 50 प्रतिशत नहीं मिले, वह विजयी घोषित नहीं हो सकता। इसीलिए पिछली बार की तरह इस बार भी चुनाव का दूसरा दौर भी जरूरी लग रहा है। जिन दो उम्मीदवारों को सबसे ज्यादा वोट मिलेंगे, उन दोनों में आखिरी मुकाबला होगा। पिछले चुनाव में धांधली की बहुत शिकायतें सामने आई थीं, लेकिन इस बार चुनाव आयोग ने ज्यादा सावधानियां बरती हैं। फिर भी लाखों नए वोटरों के बारे में कहा जा रहा है कि उनका सौदा अभी से हो चुका है। जो आठ उम्मीदवार मैदान में हैं, वे ज्यादा वोट नहीं काट पाएंगे। प्रसिद्ध मुजाहिदीन नेता अब्दुल रसूल सय्याफ का कट्टरपंथियों पर कुछ असर जरूर है, लेकिन असली संघर्ष उक्त तीन उम्मीदवारों के बीच ही है। हाल में दिवंगत हुए उपराष्ट्रपति मार्शल फहीम ने एक योजना ऐसी रखी थी कि पहले दो उम्मीदवार आपस में फैसला कर लें। एक राष्ट्रपति बन जाए और दूसरा प्रधानमंत्री। संविधान में मामूली संशोधन करके बड़ी टक्कर टाली जा सकती थी, लेकिन अब टक्कर तो होगी।
तीनों उम्मीदवार तालिबान से लडऩे और अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण की कसम खा रहे हैं। तीनों उम्मीदवार अमेरिका के साथ रक्षा समझौता करने को तत्पर हैं। संसद की हामी के बावजूद करजई ने उसे अधर में लटका रखा है। तीनों उम्मीदवारों को पता है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद क्या हाल होने वाला है। वे यह भी जानते हैं कि तालिबान और आईएसआई की भूमिका तेज होने वाली है। न तो अफगान फौज इतनी सक्षम है कि वह अकेले दम पर देश को स्थिर रख सके और न ही अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत है कि वह विदेशी सहायता के बिना अपने पैरों पर खड़ी रह सके।
यदि इस चुनाव के बाद अराजकता फैल गई तो सबसे ज्यादा असर भारत पर पड़ेगा। एक तो हमारी 12000 करोड़ रुपए की सहायता पर पानी फिर जाएगा। इसके अलावा अफगानिस्तान दुबारा भारत के विरुद्ध आतंकवाद का अड्डा बन जाएगा। पाकिस्तान के आतंकवादियों को खुलकर खेलने का मौका मिलेगा। यूं तो तीनों उम्मीदवारों का रवैया भारत के प्रति मैत्रीपूर्ण है, लेकिन भारत में बनने वाली नई सरकार को अपने पत्ते बहुत सावधानी से खेलने होंगे। अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता कायम करना भारत को अपनी जिम्मेदारी समझकर कई नई कूटनीतिक पहल करनी होंगी।
वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष
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